परिवर्तन / उपमा शर्मा
सुबह से मिसिज सिंह तैयारियों में लगी हुई थीं। उनकी लाड़ली बिटिया दीक्षा को देखने सचिन का परिवार आने वाला था। साथ में एक की कालिज से मेडीकल की पढ़ाई की थी। दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे फिर भी परिवार की रजामंदी के बिना विवाह को तैयार न थे। मिसिज सिंह ने पूरी तैयारी कर ली, सब कुछ चाक-चौबंद। फिर भी चिन्तित थीं, इकलौती बेटी की पसंद था सचिन। कैसे भी ये रिश्ता होना जरूरी था। दीक्षा पढ़ाई-लिखाई में बेहद होशियार लेकिन गृहस्थ जीवन का इतना कोई अनुभव नहीं था। बस यही चिंता सता रही थी उन्हें बारबार। नियत समय पर सचिन का परिवार आ गयी। चाय-नाश्ते के साथ बातों का सिलसिला भी जारी था।
सचिन की दादी ने प्यार से पूछा-"बेटी खाना बनाना भी पसन्द है कि खाना-खाना ही।"
"जी माँ जी, ज्यादा कुछ परफेक्टली नहीं बना पाती; लेकिन थोड़ा बहुत बना लेती हूँ।"
"जी, आप चिंता न कीजिए माँ जी। अब तक पढ़ाई में रही। अब इसकी पढ़ाई-लिखाई सब बंद कर इसे खाना बनाने में कुशल कर दूँगी। मैं सब अपने हाथ से बनाती हूँ। जी रसोई को मैं पूजाघर और खाना बनाने को पूजा मानती हूँ मैं। मेरी रसोई में कोई बाहरी झाँक भी नहीं सकता।" मिसेज सिंह ने जल्दी से जबाब दिया। डर था कहीं रिश्ता हाथ से ही न निकल जाए।
"माफ करना बेटी, हम रसोई को नहीं कर्म को पूजा मानते हैं और ये क्या बिटिया की पढ़ाई क्यों रुकवानी? सचिन इसके खाना बनाने से नहीं, इसकी काबिलीयत से प्रभावित हो शादी कर रहा है। आज के युग में भी अगर घर सम्हालने की जिम्मेदारी लड़की की है कहकर उसकी प्रतिभा रोक दी जाएगी, कैसे सही है ये? बिटिया खाना एक बाई भी बना लेगी, लेकिन वह किसी मरीज को सही नहीं कर पाएगी। दीक्षा अब हमारी बहू है, इसे विशिष्ट डिग्री ले समाज की सेवा करने दो। खाना हम किसी से भी बनवा लेंगे।"
परिवर्तन की इस सुखद बयार से दीक्षा और सचिन के चेहरे खिल गए।