परिशिष्ट क / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
परिशिष्ट क / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
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“'परिशिष्ट क.(उद्धरण के लिए उदाहरण)”'
(1) कई मनोविकारों की स्वच्छंद योजना-
“देखो दशरथ रामचंद्र को यौवराज्य देना चाहते हैं सो मैं अथाह भय में डूबी दु:ख और शोक से युक्त हो, और आग से जलाई जाती-सी हो तेरे हित के लिए यहाँ आई हूँ।”1&
अयोध्याध 7।
(2)ईष्या के कारण क्रोध की उत्पत्ति-
“ऐसा धात्री का वचन सुन कुब्जा अत्यंत डाह से उस कैलास श्रृंग सदृश प्रासाद पर से उतरी। उस काल में वह पापदृष्टि दासी जो क्रोध से जली जाती थी कैकेयी के पास जो सोती थी, जाकर बोली।”2 [ वही ] A
(3) एक विषय में किसी के प्रति कोई भाव उत्पन्न होने से उसके संबंधी अन्य विषयों के प्रति भी प्राय: वैसा ही भाव उत्पन्न हो जाता है। वाल्मीकिजी ने
1. अक्षयं सुमहद्देवि प्रवृत्तं त्वद्विनाशनम्।
रामं दशरथो राजा यौवराज्यमभिषेक्ष्यति॥ 20॥
सास्म्यगाधे भये मग्ना दु:खशोकसमन्विता।
दह्यमानानलेनेव त्वद्धितार्थमिहागता॥ 21॥
(वाल्मीकीय रामायण)
2. धात्रयास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षिता।
कैलासशिखराकारात्प्रासादादवरोहत॥ 14॥
सा दह्यमाना क्रोधेन मंथरा पापदर्शिनी।
शयानामेव कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत्॥ 13॥
(वाल्मीकीय रामायण)
कैकेयी के द्वारा इसका बड़ा विनोदपूर्ण उदाहरण खड़ा किया है। मंथरा ने जब कैकेयी के हृदय में अपने प्रति सुहृद्भावना उत्पन्न कर लिया तब कैकेयी कहती है-
“एक तुझे छोड़ और सब टेढ़े अंग-भंग युक्त और परम पापिष्ठ हैं और तू वायु से झुके कमल के समान प्रियदर्शना है। तेरा वक्षस्थल स्कंधपर्यंत इस मौत के लोंदे से भरा और ऊँचा है, और नीचे सुंदर नाभि से युक्त उदर वक्षस्थल से मानो
लज्जित होकर शांत अर्थात् धँसा हुआ है...तेरा मुख विमलचंद्र के तुल्य है।”1 इत्यादि। अयोध्यार 9।
(4) “अब उस काल में नराधिप अमर्ष से 'अहो'! धिक्कार है!' ऐसा वचन कह फिर शोक से मूर्च्छित हो गए। फिर कुछ अधिक विलंब में संज्ञा को प्राप्त हो अति दुखित हुए, तदनंतर क्रुद्ध हो तेज से जलाते हुए कैकेयी से बोले।”2 अयोध्यात 12 ।
प्रधान भाव या प्रधान भाव संचारी
(5) हे नक्षत्रों से भूषित रात्रि! मैं तेरा प्रभात नहीं चाहता। 3 अयोध्याा 13 ।
(6) सांगरूपक-”हे राम! मेरे मन से उत्पन्न यह शोक रूप अग्नि जो तुम्हारे अदर्शन रूप वायु से बढ़कर, विलाप दु:ख रूप ईंधन से और ऑंसू रूप घृत से प्रदीप्त और चिंता श्रम धूम से पूर्ण है मुझे भस्म कर देगी।”4 अयोध्याू 24।
1. नाहं समवबुद्धयेयं कुब्जे राज्ञश्चिकीर्षितम्।
सन्ति दु:संस्थिता: कुब्जे वक्र: परमपापिका:॥ 40॥
त्वं पद्ममिव वातेन सन्नता प्रियदर्शना।
उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत्स्कंधात्समुन्नतम्॥ 41॥
अधस्ताच्चोदरं शान्त सुनाभमिव लज्जितम्॥ 42॥
विमलेन्दुसमं वक्त्रामहो राजसि मन्थरे॥ 43॥ (वही)
2. मण्डले पन्नगो रुद्धो मन्त्रौरिव महाविष:।
अहोधिगिति सामर्षो वाचमुक्त्त्वा नराधिप:॥ 5॥
मोहमापेदिवान्भूय: शोकोपहतचेतन:।
चिरेण तु नृप: संज्ञां प्रतिलभ्य सुदु:खित:॥ 6॥ (वही)
3. न प्रभात त्वयेच्छामि निशे नक्षत्राभूषिते॥ 7॥ (वही)
4. अयं तु मामात्मभवस्तवादर्शनमारुत:।
विलापदु:खसमिधो रुदिताश्रुहुताहुति:॥ 6॥
चिन्तावाष्पमहाधूमस्तवागमनचिन्तज:।
कर्शयित्वाधिकं पुत्रा नि:श्वासायाससंभव:॥ 7॥
त्वया विहीनामिह मां शोकाग्निरतुलो महान्।
प्रधक्ष्यति यथा कक्ष्यं चित्राभानुर्हिमात्यये॥ 8॥ (वही)
(7) रति-भाव का अमर्ष - ऐसा राम का वचन सुन प्रियवादिनी वैदेही प्रेमपूर्वक क्रुद्ध हो पति से बोली। 1 अध्याथय 27।
Add (जोड़िए) - 'कोकिल कंठ' कहकर कवि कोकिल की वर्ण आकृति की कल्पना जगाना नहीं चाहता,मधुर स्वर की कल्पना जगाना चाहता है।
1. एवमुक्ता तू वैदेही प्रियार्हा प्रियवादिनी।
प्रणयादेव सक्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत्॥ 1॥ (वही)
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