परिशिष्ट / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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प्राचीनकाल में मिथिला के व्यवहार से धर्म का निर्णय किया जाता था - मिथिलाया व्यवहारत:, ‘अर्थात धर्म आदि के सम्बन्ध में मिथिला के निवासी जो कुछ कहते या करते थे, वह शास्त्रानुमोदित होता था। शास्त्र प्रतिकूल वे कुछ भी रागद्वेषवश कहने या करने को तैयार नहीं होते थे। इसी से उनके वचन मान्य होते थे। मिथिला में आज भी भूमिहार ब्राह्मण को पछिमा ब्राह्मण कहते हैं। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। फिर भी कुछ दुराग्रही लोग भूमिहार को ब्राह्मण मानने से कतराते हैं। यहाँ तक तो गनीमत है, क्योंकि जिसका मानसिक स्तर द्वेषग्रस्त है उससे सद्विवेक की बात करना ही अनावश्यक है। किंतु इधर जातिगत वाद-विवाद संबंधी एक मुकदमे का विषय जो मुझे दंडी स्वामी विमलानन्द सरस्वती रचित पुस्तक 'ब्राह्मण कौन' में पढ़ने को मिला, उससे मुझे आश्‍चर्य हुआ। पश्‍चात मेरे एक मित्र ने इस संबध में अपना विचार प्रकट करने के लिए मुझसे आग्रह किया। अतएव इस लेख में आगे रखे जानेवाले अपने विचार के उपोद्वलक उक्‍त मुकदमे का संक्षिप्त विवरण पहले यहाँ उद्धृत किया जा रहा है - ’अयोध्या जी में पुराना 'आनन्द भवन' नामक एक मठ है, जिसकी स्थापना भूमिहार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक विरक्‍त महात्मा ने की थी। उस मठ के महंथ 'सियावर शरण' अपना उत्तराधिकारी घोषित किए बिना ही साकेतवासी हो गए। अस्तु, उनके भंडारे में उपस्थित संत-महंथों ने परम्परा के अनुसार उनके शिष्य 'महावीर शरण' को चादर दे कर महंथ घोषित किया। 'आनन्द भवन' की भूसंपत्ति फैजाबाद जिले के बीकापुर विकास प्रखण्ड भीतर 'मंझनपुर' ग्राम में पड़ती है। वहाँ का एक लोभी व्यक्‍ति मठ की कुछ भूमि हथियाना चाहता था। महंथ महावीर शरण के रहते इसकी संभावना न देख उसने एक कठपुतली वैरागी संत नामधारी 'राम दुलारे शरण' के द्वारा अदालत में 'श्री महावीर शरण' की महंथी को चुनौती देते हुए यह दावा कराया कि महंथ 'सियावर शरण' का भंडारा मैंने किया था और संत-महंथों ने आनन्द भवन का महंथ मुझे चुना है। उनका यह भी कहना था कि आनन्द भवन मठ का महंथ वसीयतनामे के अनुसार वही हो सकता है जो विरक्‍त वैरागी तथा ब्राह्मण हो। महावीर शरण भूमिहार है, इसलिए मठ का महंथ होने के योग्य नहीं है। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण नहीं होते। उन्होंने मठ पर अवैध अधिकार कर लिया है। उन्हें वहाँ से हटा दिया जावे। किंतु सब-जज श्री रामकुमार सक्सेना ने मूल वाद संख्या 22 सन 1962 में 31-3-64 को अपने पारित निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा कि महावीर शरण भूमिहार ब्राह्मण है और उनकी शपथ के अनुसार मैं यह मानता हूँ कि उनकी जाति ब्राह्मण मानी जाती है। मैं उन्हें ब्राह्मण मानता हूँ और वे अहदनामे के अनुसार मन्दिर के सरबराहकार बनने के लिए सर्वथा योग्य है। महावीर शरण सियावर शरण के पुराने चेला है। निर्माणकर्ता द्वारा निर्मित सभी योग्यताएँ महावीर शरण में विराजमान है। अत: मैं रामदुलारे शरण का दावा खारिज करता हूँ।

इसके बाद रामदुलारे शरण ने दूसरी अपील की। तत्कालीन जिला जज श्री आर.पी. दीक्षित ने पुनर्विचार के लिए मुकदमे को उसी न्यायपीठ में लौटा दिया। उस समय श्री सक्सेना साहब का स्थानांतरण हो चुका था और उनकी जगह पर श्री जी.डी. चतुर्वेदी आ चुके थे। उन्होंने बिना सोचे-समझे अपने निर्णय में लिखा कि भूमिहार लोग ब्राह्मण नहीं होते और उस वंश से संबंधित महाराज बनारस, महाराज हथुआ और महाराज तमकुही भी ब्राह्मण नहीं है।

तत्पश्‍चात् कुछ विद्वानों एवं सन्तों ने महावीर शरण की ओर से जी.डी. चतुर्वेदी महोदय के निर्णय के प्रतिकूल जिला जज के पास अपील दाखिल किया।

जज साहब ने पुन: सुनवाई के लिए मुकदमे को एडिशनल जिला जज, 'श्री एस.ए. अब्बासी' महोदय की न्यायपीठ में भेज दिया। विद्वान, अनुभवी और कुशाग्र बुद्धिवाले न्यायमूर्ति 'अब्बासी' महोदय ने पुन: नए सिरे से अभियोग का परीक्षण किया और बड़े मनोयोग से ग्रन्थों तथा अभिलेखों का अध्यायन एवं गवाहियाँ लीं। सारे परीक्षण के बाद वे इस निर्णय पर पहुँचे कि 'भूमिहार ब्राह्मण उत्तम ब्राह्मण' हैं इस प्रकार उक्‍त मुकदमे में महंत महाराज महावीर शरण की विजय हुई।

इसके बाद विपक्ष की ओर से जिला जज, फैजाबाद के यहाँ अपील की गई। किंतु एडिशनल (अतिरिक्‍त जज) (न्यायाधीश ने अब्बासी महोदय के फैसले को बरकरार रखा। तब अन्त में विपक्ष की ओर से उच्च न्यायालय के लखनऊ पीठ में अपील की गई। किंतु उच्च न्यायालय ने भी नीचे के न्यायाधीशों के फैसलों को पूर्ण समर्थन के साथ बहाल रखा।

अब इस सम्बन्ध में हमारा निवेदन है कि जैसे अन्य ब्राह्मणों के विषय के 'जाति विलास', 'जाति भास्कर' एवं 'जाति निर्णय' आदि संकलित ग्रन्थ ही प्रमाण माने जाते हैं, वेदादि शास्त्र नहीं। क्योंकि उनमें तो ब्राह्मण मात्र का उल्लेख है, न कि देशोपाधि विशिष्ट ब्राह्मण जाति का। उसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मण के विषय में महर्षि 'मरीति प्रणीत' 'जाति विलास' को क्यों न प्रमाण माना जावे? 'जाति विलास' ग्रन्थ के 152वें अध्याय में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है, जो कि संक्षेप में इस प्रकार है -

‘पुराणों में यह बात प्रसिद्ध है कि भगवान परशुराम ने इक्कीस बार दुष्ट राजाओं का विनाश कर के देश, काल, पात्र के अनुसार ब्राह्मणों के लिए पृथ्वी दान कर दी और स्वयं तप करने के लिए वन में चले गए। इसलिए 'श्रीमद्‍भागवत्' में लिखा है कि - 'सर्वस्व ब्राह्मणस्येदं यत्किंच जगतीतले' अर्थात इस संसार में जो कुछ है, वह ब्राह्मण का ही धन है। कालांतर में ब्राह्मण ने ही धन वितरित कर के संसार का व्यवहार चलाया। अस्तु प्रस्तुत प्रसंग में जब परशुराम जी ने ब्राह्मणों को पृथ्वी दे दी तब शांतिप्रिय ब्राह्मणों ने उनसे निवेदन किया - ‘प्रभु! आप तो वन में जा रहे हैं। यदि दुष्ट लोग युद्ध की इच्छा से हम पर आक्रमण करें तो हमारी रक्षा कौन करेगा?’ इस पर परशुराम जी ने ब्राह्मणों को एक शंख देते हुए कहा - ‘जब भी कभी कोई तुम पर आक्रमण करे तो यह शंख बजा देना। मैं तुरंत आ कर दुष्टों को दंड दूँगा।’ यह पा कर ब्राह्मण निश्‍चिन्त हो बड़ी निपुणता से संसार का पालन करने लगे।

कुछ समय के उपरांत एक बार ब्राह्मण परिषद् में कुछ खल प्रकृति के ब्राह्मणों ने वह भाव प्रकट किया कि इस शंख की परीक्षा ली जावे। इसको हममें से कोई बजावे। यदि इसकी ध्वनि सुन कर परशुराम जी आ जाते हैं तो हमें विश्‍वास हो जावेगा कि समय पर परशुराम जी हमारी रक्षा अवश्य करेंगे, अन्यथा हमें राजनीति के चक्कर में पड़ना अच्छा नहीं। यद्यपि इस विचार को उत्तम प्रकृति के ब्राह्मणों ने पसंद नहीं किया, किंतु अश्रद्धालुओं ने बहुमत से इसको पास कर के शंखध्वनि कर डाली। ध्वनि सुनते ही भगवान परशुराम आ पहुँचे और ब्राह्मणों से कहने लगे कि शीघ्र बतलाओ तुम्हारा शत्रु कहाँ हैं? मैं क्षण-भर में उसका विनाश करूँगा। ब्राह्मण भय से काँपने लगे और बोले - 'प्रभु! अपराध क्षमा हो, हम लोगों ने आपके पुण्य दर्शन की अभिलाषा से शंख बजा दिया था। अब हम लोग आपके दर्शन से कृतार्थ हो गए।' किंतु अन्तर्यामी भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि ‘तुम लोग राज्य करने के योग्य नहीं हो। तुम्हें दरिद्रता से कष्ट भोगना पड़ेगा। फिर जो ब्राह्मण शंखध्वनि की परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, उनसे कहा कि तुम लोग भूमिपति होगे। तुम्हें दरिद्रता का सामना नहीं करना पड़ेगा' यह कह कर भगवान चले गए। जो ब्राह्मण परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, वे विश्‍वामित्र के पक्षधर थे, इसलिए कौशिक गोत्र में उनकी जीविका वृत्ति की उपकल्पना की गई। जिस वंश से जिसका रक्षण होता है उसके उसी वंश से गोत्र का व्यवहार होता है। यही कारण है कि कौशिक गोत्रोत्पन्न भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या अधिक हैं। किंतु सावर्ण्य, वत्स, शांडिल्य आदि गोत्र भी भूमिहारों के होते हैं। संभवत: ये ऋषि भी कौशिक के समर्थक रहे होंगे।’

यहाँ हम 'जाति-विलास' के कुछ अंतिम श्‍लोकों को उद्धृत कर रहे हैं :

तथा कालेन चारम्भस्सद्‍भावो भावमावृत:।

एतस्यात्मात्कौशिके गोत्रे भूमिहार: समन्वय:॥ 99॥

एवं प्रयोज्यमानत्वात्तत्वधर्मा निराकृत:।

भानुदप्रो महासौम्य: सर्वमूल्लमनुस्मृतम्॥ 100॥

अजीतगर्तस्त्रयोपुत्र: भानुदत्तस्य पंचका:।

जयद्रथस्यषट् पुत्रा: सोमसिंधुर्दशाब्रत:॥ 101॥

भूमिहारा: प्रजायन्ते परशुरामप्रभावत:।

एतस्मात् शाश्‍वतोधर्मोब्रह्मवृत्तर्व्य वस्थिता॥ 102॥

ब्राह्मकालं विजानीयाद्ब्राह्मतत्वव्यवस्थितम्।

ब्रह्मदेशं तथाकार्य तथावृत्ति: तथा क्रिया॥ 103॥

अर्थ - इस प्रकार भगवान परशुराम जी के सम्बन्ध से भूमिहार जाति-भेद से नियुक्‍त हुए और कौशिकादि गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों का वंश प्रवृत्त हुआ। जिनके आदिपुरुष महासौम्य भानुदत्त हुए। तथा अजीतगर्त और उनके तीन पुत्र हुए। भानुदत्त के पाँच पुत्र हुए, जयद्रथ के छह पुत्र हुए। इस प्रकार सोम, सिंधु और दस वंशज अन्य :

इस प्रकार शाश्‍वत् धर्म और व्यवस्थित ब्राह्म वृत्ति के पालक भूमिहार ब्राह्मण परशुराम जी के प्रभाव से ब्राह्मकाल, ब्राह्मतत्व तथा तत्वदेशादि व्यवहार-वृत्ति में कुशल हुए॥ 99-103॥

उपर्युक्‍त प्रकार से 'जाति-विलास' में भूमिहार ब्राह्मण उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इस प्रकार 'कान्यकुब्ज वंशावली' पुस्तक में भी भूमिहार को ब्राह्मण प्रतिपादित किया गया है -

मदारादिपुराख्यस्य भूमिहारा द्विजास्तु ये।

तेभ्यश्‍च यवनेन्द्रैश्‍च महद्यद्वमभूत् पुरा॥

अर्थात मदारपुर (कानपुर जिले में गंगा तट पर अवस्थित) के भूमिहार ब्राह्मण से यवनेन्द्रों का महान युद्ध हुआ था। आधुनिक युग के महामनीषी डॉ. राजेंद्र लाल मित्र के भूमिहार ब्राह्मण के सम्बन्ध में अपने 'बंगला मासिक' पत्र के पर्व 4, खण्ड 47, पृष्ठ 73, शकाब्द 1719 में लिखा है-‘कान्यकुब्ज ब्राह्मण दीगेर 5 ठो दल आछे, यथा सरवरिया, सनौढ़ा या सनाढ्‍य, जिझौतिया, भूमिहार एवं प्रकृत कनौजिया।’

इसी मन्तव्य का रूपांतर करते हुए लिखित श्‍लोक में कान्यकुब्ज के पाँच भेद बतलाए गए हैं :

सर्यूपारी सदाढयश्‍च भूमिहारो जिझौतय:।

प्राकृताश्‍च इति पंचभेदास्तस्य प्रकर्तिता:॥

यही आजकल के निष्पक्ष विद्वानों की भी धारणा है कि भूमिहार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण का ही एक भेद हैं जैसे सर्यूपारी, सनाढ्‍य आदि कान्यकुब्ज के भेद हैं।

अब प्रश्‍न यह उठता है कि भूमिहार ब्राह्मण में भूमिहार विशेषण क्यों लगा? इसका उत्तर इतिहास आदि के उद्‍भट विद्वान योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य के शब्दों में यह है - ये ब्राह्मण 'जायगीर' इत्यादि रूपे भूमि प्राप्त हइया छेन से भूमिहार:। 'भूमिहार' शब्द है - भूमिं हरति केनचित उपायेन स्वीकारेति गृह्‍णाति इति भूमिहार: भूमिं हृ + अण्। अर्थात भूमि को स्वीकार करने या ग्रहण करनेवाला 'हृ, हरणो' धातु से बना है। हरण का अर्थ स्वीकार भी होता - ‘हरणा पापणं स्वीकार: स्तेयं नाशनं च इति चत्वार: अर्था:।’

योगेंद्र भट्टाचार्य ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'हिंदू कास्ट एंड सेक्ट्स' में इस बात को और भी स्पष्ट किया है जिसका सारांश इस प्रकार है :

भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति का पता तो सिर्फ उनके नाम से ही मिल जाता है। इसका शब्दार्थ है - 'भूमिग्राही ब्राह्मण'। राजपूताना गजेटियर के अनुसार भूम एक प्रकार का जमीन में हक था जो पुश्त दर-पुश्त तक चलता रहता था। इस भूमि का लगान नहीं देना पड़ता था, यह छीनी नहीं जाती थी, इत्यादि।

इस प्रकार विद्वानों ने जो 'भूमिहार' शब्द का विश्‍लेषण-विवेचन किया है, उससे जिन ब्राह्मणों को भगवान परशुराम द्वारा भूमि दी गई थी, उनका सम्बन्ध स्पष्ट रूप से जुड़ जाता है, जो अपने आप में साक्षात इतिहास है।

प्राचीनकाल से ले कर आज तक के बड़े-बड़े विद्वानों की भी यही सम्मति है कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। जैसे मैथिल मनीषी महामहोपाध्याय चित्रधर मिश्र, महामहोपाध्याय बालकृष्ण मिश्र आदि। सर्यूपारी विद्वान महामहोपाध्याय द्विवेदी, महोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि। कान्यकुब्ज विद्वान संपादकाचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. लक्ष्मीनारायण दीक्षित शास्त्री, पं. वेंकटेश नारायण तिवारी आदि। इस प्रकार अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मणेतर जातियों के विद्वानों ने भी इस सत्य को स्वीकारा है कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं।