परीकथाएं, दैत्य कथाएं अौर बचपन / जयप्रकाश चौकसे

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परीकथाएं, दैत्य कथाएं अौर बचपन
प्रकाशन तिथि :26 मार्च 2016


बचपन की पटकथा पर जीवन की फिल्म आधारित होती है। यह सामान्य सर्वमान्य अवधारणा है, जिसके अपवाद भी होते हैं। जीवन के यथार्थ की तरह स्वप्न संसार भी है और वह अधिक निर्णायक भी साबित होता है। बच्चों का स्वप्न संसार अन्य आयु समूह के स्वप्न संसार से अलग होता है और व्यक्तित्व विकास या विनाश का अनिवार्य हिस्सा होता है। आज हम शिद्‌दत से जानना चाहेंगे कि हिटलर बाल उम्र में कैसा था? उसका स्वप्न संसार कैसा था? यह तो तय है कि बाल रावण के स्वप्न संसार में कोई सीता अपहरण नहीं था। गौरतलब केवल इतना है कि बाल-काल में भविष्य के संकेत मिलने जरूरी नहीं है। आइंस्टीन ने बचपन में महान वैज्ञानिक होने का कोई सपना शायद ही देखा हो। बालपन के स्वप्न संसार परी कथाओं के साथ दैत्य कथाओं से भी भरे होते हैं। नींद से कई लोग चीखकर उठते हैं, कुछ मुस्कराते हुए उठते हैं। हिटलर, रावण और मुसोलिनी की माताओं ने भी सामान्य लोरियां ही गाकर सुनाई होंगी। उम्र के हर दौर में जीवन पर विविध प्रभाव पड़ते हैं। बाल ठाकरे तो युवावस्था में अखबार के लिए कार्टून रचते थे। उनका हास्यबोध कमाल का था और उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि वे मराठी भाषी लोगों की उच्चता का मायाजाल रचेंगे। हिटलर ने जर्मन जाति की सर्वश्रेष्ठता का ऐसा जुनून रचा कि दूसरा विश्वयुद्ध हो गया। हिटलर के बालपन में भविष्य के कोई कोई संकेत नहीं मिलते।

बचपन में परीकथाओं के साथ दैत्य कथाएं भी पढ़ी जाती हैं। दैत्य कथाओं पर अनेक फिल्में बनी हैं और यह अत्यंत लोकप्रिय फिल्म विधा है। सिनेमा तकनीक में आए सुधार के कारण विज्ञान फंतासी और दैत्य कथाओं पर बनी फिल्मों ने दर्शकों का मन मोह लिया, उन्हें चमत्कृत कर दिया। जब 1933 में विशाल वनमानुष पर पटकथा लिखी गई तब निर्माता ने कहा कि इसमें प्रेम कथा गूंथी जानी आवश्यक है। निर्देशक की एक सहायक ने सुझाव दिया कि अतिरिक्त प्रेम-कथा डालने से बेहतर होगा कि वनमानुष को ही अंग्रेज कन्या से प्रेम हो जाए, जो उस दल की सदस्य थी, जिन्होंने वनमानुष पकड़ा था। फिल्म के एक दृश्य में कैद वनमानुष के चेहरे पर नायिका का स्कार्फ गिर जाता है और वह प्रेम के उन्माद में चीत्कार कर उठता है। यह अभिनव प्रेम कथा थी और अंत में वनमानुष के मृत शरीर पर नायिका के विलाप का दृश्य दिल दहलाने वाला था। यह कथा तीन या चार बार बनाई गई है और नित्य बेहतर होती तकनीक के कारण इसके प्रभाव भी विलक्षण रहे हैं।

दरअसल, फिल्म विधा की सारी श्रेणियों में प्रेम-कथा का होना अनिवार्य तत्व है। यहां तक कि हॉरर फिल्मों में भी प्रेम-कथा गूंथी जाती है। ड्रैकुला के भी प्रेम-प्रसंग होते हैं। मनुष्य के अदृश्य होने की कथाओं में भी प्रेम-कथा होती है। इस विधा में बोनी कपूर की 'मिस्टर इंडिया' सबसे महंगी और सबसे सफल फिल्म रही है। निर्देशक शेखर कपूर को भी बाद में कोई इतनी भव्य सफलता नहीं मिली। दरअसल, अदृश्य होने की कामना बड़ी बलवती है, क्योंकि हम अपनी गैर हाजिरी में अपने बारे में दूसरों के विचार जानना चाहते हैं परंतु हमेशा अदृश्य रहने की कामना कोई नहीं करता। देखे जाने की इच्छा भी कम बलवती नहीं होती। यह कल्पना रोचक है कि आम आदमी अदृश्य होेने का रसायन प्राप्त करके मंत्रिमंडल की बैठक में यह देखना चाहेगा कि उसके भाग्य-विधाता किस तरह काम करते हैं। इन बैठकों में भी हास्यबोध रखने वाले व्यक्ति होते हैं, जिन्हें गंभीरता का नाटक खेलना होता है। आमतौर पर सरकारें आम आदमी को अदृश्य मानती हैं और उनके प्रयासों से आम आदमी का अस्तित्व ही किसी दिन समाप्त हो जाएगा। प्राय: असंभव की कल्पना करना मनुष्य का शगल रहा है। दरवाजे में चाभी के लिए बनाए गए छोटे छेद से झांकने की प्रवृत्ति बड़ी मजबूत होती है। हम अपनी निजता की रक्षा के लिए पूरी शक्ति से जुटे होते हैं परंतु अन्य लोगों की निजता में अतिक्रमण करने की गहरी लालसा होती है। ऐसे लोगों को 'पीपिंग टॉम' कहा जाता है। इस तरह की गोपनीय जानकारी के आधार पर लोगों को ब्लैकमेल भी किया जाता है। क्या विजय माल्या के पास सत्तासीन लोगों की कोई गोपनीय जानकारी थी, जो इस कदर आंख मीच ली गई है कि 9 हजार करोड़ का चूना लगाकर एक आदमी विदेश चला गया और इतने दिनों बाद भी सरकार ने हुकूमत-ए-बरतानिया को कोई त्र नहीं लिखा कि हमें यह हमारा अपराधी सौंपा जाए।

प्राय: देशों के बीच यह करार होता है कि इस तरह के मामले में संदिग्ध व्यक्ति की वापसी की मांग की जाए। सरकार सोती है या सोने का अभिनय करती है। सोए को जगाना आसान है, जागे को कौन जगाए? रात के प्रहरी प्राय: 'जागते रहो' का नारा लगाकर सोने लगते हैं। सरकारों में इच्छा शक्ति की कमी उनकी कमजोरी नहीं वरन् स्वार्थ साधने की हिकमत है। वे सब जानकर अनजान बन जाती हैं। उनके इस भोलेपन की दिलकश अदा पर अवाम फिदा है।