पर्यावरण और हिन्दी के हाइकुकार / सुधा गुप्ता

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'पर्यावरण' दो शब्दों की संधि से बना है-परि + आवरण। हमारी पृथ्वी के चारों ओर जो आवरण है, वह पर्यावरण कहा जाता है। पिछले दो ढाई दशक से ही यह शब्द बहुत अधिक प्रयोग में आ रहा है। वैज्ञानिकों ने लक्ष्य किया कि हमारे इस सुंदर ग्रह पृथ्वी के चारों ओर का आवरण कई भाँति से दूषित हो रहा है, क्षतिग्रस्त हो रहा है। इसके कारणों की खोज की गई तो 'पर्यावरण प्रदूषण' की बात सामने आई-गंभीर अध्ययन के पश्चात् मुख्यतः प्रदूषण के पाँच स्तर (प्रकार) स्थिर किए गए-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं आकाशीय प्रदूषण।

सच्चा साहित्यकार वही है जो अपने चारों ओर स्थित परिवेश से सरोकार रक्खे, 'सत्साहित्य' वही है जो हित सहित हो और सत् की ओर प्रवृत्त करें। काल्पनिक जगत की मनोरम यात्र, अस्थायी तौर पर मनोरंजन तो कर सकती है किन्तु न तो समाज को प्रतिबिम्बित करती है, न ही सामाजिक चेतना जाग्रत करने का, कोई 'संदेश' देने में सफल! एक अत्यंत प्राचीन उक्ति पूर्णतः सार्थक और आज भी पूरी तरह प्रासंगिक हैः 'साहित्य समाज का दर्पण' है। अस्तु।

आज विश्वस्तर पर हम जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनमें नस्लवाद, आतंकवाद, खाद्यान्न-अभाव, विश्व युद्ध की आशंका, परमाणु हथियारों से खतरा के साथ-साथ एक ज्वलन्त समस्या है। 'पर्यावरण प्रदूषण' को रोकना और पर्यावरण का संरक्षण।

वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि पृथ्वी ग्रह का तापमान् निरंतर बढ़ रहा है, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पर्यावरण में असंतुलन के कारण अतिवृष्टि, अनावृष्टि भयानक जल संघात (सुनामी जैसे) जैसे संकेत स्पष्ट करते हैं कि यदि स्थिति नियंत्रण में न आई तो पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा। इस घोषणा ने सम्पूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया है। सम्पन्न और 'विश्वशक्ति' बने अमेरिका जैसे देश भले ही न मानें कि उनकी 'ग्रीन हाउस गैसों' ने पर्यावरण को कितनी अधिक क्षति पहुँचाई है किन्तु उनके दुराग्रह के बावजूद सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। अविकसित / विकासशील देशों में विभिन्न स्तरों पर यह समस्या भयावह रूप में उभरकर सामने आई है-

हमने बहुत-सी भूले की हैं-जंगल काट डाले, महानगरीय सभ्यता के विकास की झोंक में, कंक्रीट के नगर बसा डाले, नदियों को मल-मूत्र, शव, उद्योग धंधों के अवशिष्ट से भर दिया, भाँति-भाँति के प्रयोगों के दूषित अवशिष्ट सागर में भर दिए और इस प्रकार पृथ्वी पर स्थित जल को दूषित, मैला, अपवित्र, सर्वथा अनुपयोगी बना डाला। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस की बढ़ोतरी से वायु साँस लेने योग्य नहीं रह गई रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग तथा अनेक प्रकार का कचरा बिखेरने / फैलाने से हमारी प्यारी वसुंधरा कि दिव्य गंध खो गई है और पृथ्वी की प्रथम परत दुर्गंध से भर उठी, तेज ध्वनि-विस्तारक, मिल-भोंपू के शोर, चीखते संगीत ने ध्वनि प्रदूषण कर डाला और मानव की सुनने की क्षमता को प्रभावित किया अर्थात् मनुष्य बहरा बनने की ओर अग्रसर है। लाखों शीत गृह है, असंख्य एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर चलाकर, रूम रिफ्रैशनर से कमरों को तात्कालिक सुगंध देकर 'क्लोरो-फ्रलोरो' कार्बन के क्षतिकारक उत्सर्जन से आकाशीय प्रदूषण उत्पन्न किया, जिससे ओजन परत में छेद कर डाला। हाय रे अभागे मानव! तू सर्वाधिक बुद्धिमान् होने का दावा करते हुए बुद्धिहीन साबित हुआ- 'विज्ञान' की प्रगति ने अंततः सर्वनाश के द्वार खोल दिए-

वनस्पति-विज्ञान, पशु-पक्षी जगत् से जुड़े जीव-विज्ञान के विद्वान् नित्य नवीन सूचनाएँ देते हैं कि अंधाधुंध वन-कटाव के दुष्परिणाम अनेक रूपों में सामने आ रहे है-प्राकृतिक परिवेश के निरन्तर घटते जाने के कारण अनेक दुर्लभ वनस्पतियाँ और पशु-पक्षी-प्रजातियाँ नष्ट होती जा रही हैं या विलुप्ति के कगार पर है। तथ्य तो यह है कि अंधाधुंध 'वन-कटाव' ने प्रकृति को 'निर्वस्त्र' कर डाला है, दुर्लभ, बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ, वनस्पतियाँ जो धरती माँ के बहुमूल्य आभरण थे, नष्ट होने से धरती 'निराभरण' अतः शोभाविहीन होती जा रही है, जो आज इस सुंदर ग्रह के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।

हिन्दी के हाइकुकार इस समस्या से गहरे रूप में आंदोलित हुए हैं, एक सुदीर्घ शृंखला है उन हाइकुकारों को जिन्होंने इस विषय को उठाया है और अपनी चिंता, रोष, आक्रोश स्पष्ट रूपों में प्रकट किया है। यह दूसरी बात है कि कहीं यह समस्या काव्यात्मक शिल्प से ओत-प्रोत होकर अनूठे शब्द-चित्र के रूप में है तो कहीं सीधे-सादे कथन मात्र है। हिन्दी की वरिष्ठ हाइकुकार श्रीमती उर्मिला कौल का एक सुंदर शब्द चित्र हैः-

उकड़ू बैठी / शर्मसार पहाड़ी / ढूँढ़ती साड़ी।

एक निर्वस्त्र रमणी का अपनी लज्जा-मर्यादा बचाने का प्रयत्न-उकड़ू बैठकर साड़ी ढूँढना-सचमुच एक दुर्लभ, अनमोल शब्द-चित्र है। डॉ.भगवत शरण अग्रवाल, वरिष्ठ हाइकुकार अपने सदा के सौम्य अंदाज में वृक्ष काटने की वर्जना करते हुए वृक्ष को 'देवता' घोषित करते हैं।

कुछ देते ही / पत्थर खा कर भी / वृक्ष देवता।

इसके साथ ही एक लम्बी शृंखला है—

आरी चलाई / हमने वृक्ष पर / छाँह गँवाई। -भागवत दुबे

चोट सहते / फिर भी क्या ये पेड़ / कुछ कहते। -राजेन्द्र बहादुर सिंह

विष है पीते / रूप धरे तरु का / शिव हैं जीते। -सितांशु कुमार

उठी कुल्हाड़ी / गिरे आँसू-आशीष / वृक्ष के फल। -राम सनेही शर्मा 'यायावर'

विटप रोते / आततायी क्यों बना / शिष्ट मनुष्य। -डॉ.रमाकांत श्रीवास्तव

वृक्ष की छाँव / सभ्यता के मरु में / ढूँढता गाँव। -नीलमेन्दु सागर

बचाएँ प्राण / मत काट वृक्षों को / पुत्रें-सा मान। -संतोष कुमार सिंह

मौन पुकारें / हम दोस्त तुम्हारे / फेंको कुल्हाड़े। -मधु वर्मा

मूक हैं पेड़ / पर बधिर नहीं / सुनें साजिश। -ज्योत्स्ना प्रदीप

पेड़ लगाओ / प्रकृति का संगीत / सुनो-सुनाओ। -सदा शिव कौतुक

पेड़ लगाओ / आने वाली पीढ़ी को / साँस दे जाओ। -पवन कुमार जैन

मनमौजी है / जंगल को गाने दो / अपना गीत। -डॉ.सुधा गुप्ता

वृक्ष उगाओ / बैठें नई पीढ़ियाँ / ठण्डी छाँव। -साधुशरण वर्मा 'सरन'

पेड़ कटते / हम नहीं रोकते / खड़े देखते। -सत्य राम वर्मा सत्येन्दु

अरे मानव / तू क्यों बना दानव / काटता वृक्ष। -रणजीत प्रतापसिंह

है अनमोल / मीठे इमली-आम / पीपल छाँव। -रमेश कुमार सोनी

काटों जंगल / रोको वर्षा-पवन / सूखेगा तन। -वृन्दावन वर्मा

तरु उजड़े / हरे-भरे चमन / वीरान पड़े। -डॉ.राजकुमारी पाठक

कटते हुए / वृक्ष नहीं बताते / हत्या कि पीड़ा। -श्याम खरे

काट ही बैठे / हाथ-पैर अपने / पेड़ काटके। -अशोक कुँगवानी

पापी मानव / काटता स्वयं हाथों / निज भविष्य। -नरेन्द्र प्रसाद नवीन

होगा विनाश / वृक्षों को मत काट / होश में आ जा। -डॉ.मिर्जा हसन नासिर

इस प्रकार अनेक हाइकुकारों ने वृक्षों के विनाश पर अपनी आपत्ति, दुःख और चेतावनी हिन्दी हाइकु संसार में दर्ज कराई है, सीधे-सीधे अभिधा प्रधान हाइकु के साथ-साथ कुछ अत्यंत मनोरम कल्पनाएँ और सुंदर 'भावना' मय हाइकु भी उपलब्ध होते हैं। प्रख्यात हाइकुकार श्री कमलेश भट्ट 'कमल' की पीड़ा हृदय को मथती हैः-

पुरखों-से थे / दरवाजे के पेड़ / कटवा दिए।

डॉ.मनोज सोनकर प्रकृति और मनुष्य के आज के स्वार्थी सम्बंधों पर तीखी टिप्पणी करते हैंः

ठूँठ है खड़ा / सम्बंधी दगाबाज़ / बताते अड़ा।

वृक्ष कटने के फल स्वरूप पक्षि-जगत / कीट जगत को होने वाली कठिनाइयाँ हिन्दी हाइकुकारों को गहरे से आन्दोलित करती हैं, वृक्षों के / हरियाली के दिन पर दिन बढ़ते अभाव ने पशु-पक्षि-कीट जगत पर अत्याचार किया है जिससे उनके आश्रय स्थल छिनते जा रहे हैं।

इन समस्याओं सम्बंधी कुछ हाइकु द्रष्टव्य हैं-

न काटो पेड़ / 'बाबुना' जो आएगी / कहाँ गाएगी। -डॉ.सुधा गुप्ता

बिलखी पिकी / कटी है अमराई / कहाँ गाऊँ मैं। -डॉ.सुधा गुप्ता

रोती तितली / कंक्रीट-जंगल में / फूल कहाँ है। -डॉ.सुधा गुप्ता

पंछी उड़ते / कंक्रीट जंगल में / छाँव खोजते। -राजेन्द्र मो। त्रि।बंधु

उड़ी चिड़िया / नीड़, बनाऊँ नया / ठूँठ ही मिले। -राम नारायण पटेल

टूटती शाखें / कहाँ करें बसेरा / नहीं चिड़ियाँ। -प्रदीप कुमार दाश दीपक

वन्य जीवन / कहाँ जा कर बसे / उजड़े वन। -डॉ.रमाकांत श्रीवास्तव

पाखी उड़ लो / ठूँठ बना है पेड़ / राहें चुन लो। -डॉ.मिथिलेश दीक्षित

वायु प्रदूषण / महानगरीय सभ्यता के विकास जन्य दुष्परिणाम: मृदा प्रदूषण

वनों की अंधाधुंध कटान और बढ़ती मानवीय आबादी के कारण कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन अत्यधिक बढ़ा फलतः वायु मंडल प्रदूषित हुआ। आबादी की सघनता के कारण मल / गंदगी का निष्कासन बढ़ा किंतु उसका निपटारा संभव नहीं हुआ, परिणाम: मृदा प्रदूषण / पृथ्वी ग्रह भयंकर संकट से अवसन्न है। हिन्दी के हाइकुकार इस समस्या से रू-ब-रू हुएः

काट डाले हैं / ऋषि-मुनि से वृक्ष / घोर संकट। -डॉ.सुधा गुप्ता

हरे फेफड़े / धरा के काट डाले / साँस ले कैसे। -डॉ.सुधा गुप्ता

यह शहर / घोल रहा है साँसों में / कैसा जहर। -पवन कुमार जैन

सारा शहर / निगलता ज़हर / आठों पहर। -पवन कुमार जैन

शहर देते / पीने को धूल, धुआँ / खाने को धक्के। -डॉ.नवनीत वार्ष्णेय

दुर्गंध आई / पवन ने बताया / शहर आया। -जवाहर इन्दु

फैला ज़हर / जनता को फिर भी / भाए शहर। -संतोष कुमार सिंह

कलेजे बसा / जले पेड़ों का दुःख / रोगिणी हवा। -डॉ.सुधा गुप्ता

चिड़ियाँ भूलीं / गीत सुरीले, अब / घुटता दम। -डॉ.सुधा गुप्ता

घास जली है / फूल मुरझा गये / धुआँ ही धुआँ। -डॉ.सुधा गुप्ता

छलनी हुआ / मानव कुकृत्यों से / पृथ्वी का सीना। -सुरेश उजाला

पहनी माला / प्रदूषण-मुण्डों की / बन काली माँ। -बिसाम राम साहू

दिल्ली छोड़ती / हर पल केंचुल / फिर भी गंदी। -आदित्य प्रसाद सिंह

प्रदूषण से / दुनिया परेशान / नाचे शैतान। -डॉ.मिथिलेश दीक्षित

ये प्रदूषण / असमय मृत्यु का / है आभूषण। -पवन कुमार जैन

जल प्रदूषण / जल-स्त्रेत सूखते जाने का संकटः

आधुनिक मानव ने अपनी स्वार्थपरता, अज्ञान तथा व्यावसायिक लाभ की लालच में मातृत्व, नदियों को अपविष्ट, कचरा और दुर्गंध की कीच से भर दिया, निरंतर बढ़ते पृथ्वी के तापमान से जल-स्रोत सूखते जा रहे हैं। आसन्न संकट नानाविध रूपों में व्यक्त हुआ हैः

गंगा निर्मल / पाप नाशिनी तो है / खुद विकल। -नरेन्द्र मिश्र धड़कन

सरिता रोई / ये निर्मलता मेरी / किसने खोई। -संतोष कुमार सिंह

बहती नदी / जीती जिल्लत में / उखड़ी साँस। -राम निवास पंथी

लगे नदी में / दाग प्रदूषण के / नदी बेहाल। -राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बंधु

अब नदियाँ / हो गई हैं बीमार / नई सदी में। -राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बंधु

अस्मिता खोई / गर्मी से व्याकुल हो / नदी है रोई। -राजेन्द्र बúसिंह राजन्

बहती नदी / जाने कहाँ खो गई / संचिकाओं में। -डॉ.मिथिलेशकुमारी मिश्र

नदी बहेगी / तो ही जिंदा, रोकोगे / हत्या करोगे। -श्याम खरे

प्यासी नदियाँ / पतझड़ बहारें / सदी की व्यथा। -अशोक 'आनन'

बची न आस / घुटती ही जा रही / नदी की साँस। -डॉ.सुधा गुप्ता

ताल-तलैया / सूखे, दरार पड़ी / फटा है हिया। -डॉ.सुधा गुप्ता

गंगा का शाप / नहीं धोएगी पाप / करो विलाप। -पवन कुमार जैन

बुझी न प्यास / लील गये पानी / नदी का नाश। -पवन कुमार जैन

बचा लो पानी / वरना पीना होगा / आँखों का पानी। -पवन कुमार जैन

जीना कठिन / पानी बिना जग में / बचाएँ सदा। -आचार्य सूर्य प्रसाद शर्मा 'निशिहर'

रमाकान्त का एक अत्यंत सशक्त हाइकु आज के दिन में नदियों की 'दुर्दशा' का 'नग्न सत्य' उद्घाटित करता हैः-

पास नदी है / सीवर, नाले, मल / नई सदी है।

इसी प्रकार सत्य राम वर्मा 'सत्येन्दु' का एक हाइकु देखेंः-

शहरी मल / गंदा कर रहा है। ये गंगा जल।

डॉ.सतीश राज पुष्करणा आधुनिक भारतवासी को सुझाव देते हैं-

गंगा बचेगी / भगीरथ तो बनो / सब त्याग के।

ध्वनि प्रदूषण एवं आकाशीय प्रदूषण:

इस ओर अभी साहित्यकारों का ध्यान अपेक्षाकृत रूप में कम ही गया है। वैज्ञानिक बराबर ध्वनि प्रदूषण तथा ओजोन परत में बढ़ते छिद्र के संभावित खतरों से सचेत करते रहते हैं। किंतु आम जनता अपने अज्ञान के कारण निरंतर उक्त दोनों प्रदूषण फैलने में दो के स्थान पर चार हाथों से कार्य ले रही है। पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी का तापमान् तेजी से बढ़ा जिसे 'ग्लोबल वार्मिंग' (पृथ्वी का ज्वर) नाम से पुकारा जा रहा है, विश्व भर में दिनांक, 24 अप्रैल को 'पृथ्वी दिवस' के रूप में मनाये जाने की घोषणा कर दी गई है किंतु विचारणीय तो यह है कि मात्र एक दिन 'पृथ्वी दिवस' मनाने से पृथ्वी का क्या हित होने जा रहा है? आज, आधुनिक जगत में फ्रिज, एúसीú, रूम फ्रैशनर आदि सम्पन्नता के प्रतीक बन गये हैं-एक 'स्टेटस सिम्बल' के रूप में ग्रहण किये जा रहे हैं, औद्योगिक / व्यापार जगत् में असंख्य शीत गृह बनाए जा रहे हैं, दोहराना व्यर्थ है कि जिस तेजी से ये बढ़ रहे हैं, इनसे विसर्जित सीúएफúसीú उतनी ही तेजी से आकाशीय प्रदूषण को बढ़ा रहा है। पवन कुमार जैन का एक सार-गर्भित हाइकु इस प्रसंग में द्रष्टव्य है:

प्रदूषण का / धूल, धुआँ, ध्वनि ही / है आभूषण।

सत्यराम वर्मा 'सत्येन्दु' के दो हाइकु हैः

ध्वनि-विस्तार / मन-मस्तिष्क पर / करे प्रहार।

विश्व विज्ञान / ओजोन छिद्रों पर / खोजे निदान।

डॉ.सुधा गुप्ता कि एक लम्बी कविता 'पृथ्वी का ज्वर' (ग्लोबल वार्मिंग) के कुछ हाइकु यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा-

विषाद डूबी / ज्वर से तप रही / पुण्या माँ धरा।

सदी का सच / ये 'ग्लोबल वार्मिंग' / पृथ्वी का ज्वर।

कार्बन गैस / निरंतर बढ़ रही / मूर्च्छित धरा।

सयत्न गढ़ी / यह मोहक सृष्टि / होगी विलय।

मानव! चेत! / ओजोन परत में / बढ़ता छेद।

याद रख तू / अपनी हिस्सेदारी / धरा को बचा।

हर दिवस / 'पृथ्वी दिवस' हमें / मनाना होगा।

नीम की छैंया / एúसीú को छोड़कर / आना ही होगा।

आज पर्यावरण के प्रसंग में एक अन्य वाक्यांश द्रुत गति से मानव-समाज में ग्राह्य हुआ है-'ईको फ्रैंडली' अर्थात् 'पर्यावरण मित्र' ! वह सब कुछ जो पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन बनाने में सहायक हो, कृषि, नाना उपकरण, संयंत्र, उर्वरक, संगीत, वस्त्र, फर्नीचर-सभी कुछ 'ईको फ्र्र्रैंडली' बनाने की चेष्टा कि जा रही है-जितनी जल्दी मानव अपनी भूलों का प्रतिकार करने में जुट जाए। अपने इस ग्रह पृथ्वी को सुरक्षित करने हेतु जितने प्रयास किए जाएँ, उतना ही अच्छा है।

निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि हिन्दी के हाइकुकार, पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं के प्रति पूर्ण सजग है; पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन बनाने का संकल्प लेकर प्रतिपूर्ति हेतु अपना दायित्व-निर्वाह करने में सक्षम साथ ही तत्पर हैं। निःसंदेह धरती के प्रति उनका प्रेम और समाज के प्रति सजग जिम्मेदारी की भावना प्रशंसनीय है।

सहायक ग्रंथ सूची (हाइकु-संग्रह / संकलन)

1-देखने में छोटे लगैं-डॉ.लक्ष्मण प्रसाद नायक, प्रथम संस्करण 1995

2-इन्द्र धनुष-डॉ.भगवत शरण अग्रवाल, प्रथम संस्करण सन् 2000

3-कदम्ब-राजेन्द्र बहादुर सिंह राजन, प्रथम संस्करण सन् 2001

4-हाइकु-रत्नाकर संपादक-राम बहादुर शर्मा निराश

5-हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु संपादक-रमाकांत, प्रथम संस्करण जुलाई 2002

6-आस्था के दीप-संतोष कुमार सिंह, प्रथम संस्करण सन् 2002

7-बिम्ब-संपादकः शिवा श्रीवास्तव, मधु वर्मा प्र-थम संस्करण सन् 2002

8-अंकुश-श्याम खरे-प्रथम संस्करण सन् 2002

9-संगम-संपादक राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बंधु' , प्रथम संस्करण सन् 2003

10-हाइकु वाटिका, संपादक-प्रदीप कुमार दाश दीपक-प्रथम संस्करण सन् 2004

11-बाबुना जो आएगी-डॉ.सुधा गुप्ता-प्रथम संस्करण सन् 2004

12-बरसता दर्द-श्याम खरे प्रथम संस्करण सन् 2004

13-मोनालिसा कि मुस्कान-नीलमेन्दु सागर-प्रथम संस्करण सन् 2005

14-मुखर मौन-श्याम खरे प्रथम संस्करण सन् 2005

15-ओस की बूँदे-डॉ.राजकुमारी पाठक प्रथम-संस्करण सन् 2005

16-हाइकु सप्तक-संपादक प्रदीप कुमार दाश दीपक-प्रथम संस्करण सन् 2006

17-पाँच-सात-पाँच-पवन कुमार जैन प्रथम संस्करण सन् 2007

18-चिन्दी-चिन्दी ज़िन्दगी संपादक-डॉ.सतीश राज पुष्करणा-प्रथम संस्करण सन् 2008

19-जलेंगे दीप नये-संपादक-डॉ.सतीश राज पुष्करणा-प्रथम संस्करण सन् 2008

20-लखनऊ के हाइकुकार-2008 संपादक-पवन कुमार जैन प्रथम संस्करण सन् 2008

21-कोरी माटी के दीये-डॉ.सुधा गुप्ता प्रथम संस्करण सन् 2009

22-आस्था के स्वर संपादक-डॉ.सतीश राज पुष्करणा प्रथम संस्करण सन् 2009