पलकों पर ख्वाब / देवी नांगरानी
धुआँ बढता गया और साथ साथ मेरे बोझिल कदम भी. सफर लँबा है, तन्हा भी और मैं सफर की पथिक. डगर मेरा चुनाव है, मेरा पात्र ही सफर में मेरे साथ है, पर मँजिल! वह तो सफर, हाँ अनजान सफर का अंत होती है, जिसका गुमान दिल में पालकर, राह को मँजिल समझ कर राही चल पडा है. जहाँ सफर में लँबा पडाव आ जाये, उसको मँजिल तो नहीं माना जा सकता. समझदार समझ कर इतराते हैं, फिरते हैं फितरतों के नगर में, पर जान पहचान खुद से भी नहीं कर पाए हैं, विपरीत सोच, विपरीत चलन, विपरीत दिशाएं, ऐसी हालत में मिलना कैसे हो, असँभव को सँभव मान कर चलना, इसे तो मन की शरारत या छलावा ही कहा जा सकता है.
पर दोष किसका? मन भी तो अपना ही है किसी और का नहीं, जो किसी पराये को अपना मान ले, अपना भी कैसा? मीत जैसा, जो मन के करीब हो, खयालों के आसपास. हाँ मीत ही तो था वह! नाम से, पहचान से, ऐसे ही जाना था उसे, उसी नाम से, वही उसकी पहचान भी थी. बस भीड़ के काफिले में मिल गया एक दिन, उसके बाद आज तक मैं उसी भीड में तन्हा तन्हा हर राह पर, हर मोड़ पर खोजती रहती हूँ उसे. सच्चाइयों से नावाकिफ, बस परछाइयों से खुद को बहलाती रही हूँ.
ज्यादा नहीं, सिर्फ दो महीने की ही तो बात थी, जब मैं अपने अस्तित्व के साथ घर की चारदिवारी में एकाग्रचित बसर किया करती थी...अरे मैं भी कहाँ बहाव में बहे जा रही हूँ....बसर अब भी कर रही हूँ और यह सिलसिला चलता रहेगा जब तक जान में जान है. याद आया वो कहा करता था " मेरी जान हो मेरा ईमान हो" और इस पागलपन में जाने क्या महसूस किया जो अपनी जान, अपना ईमान दाव पर लगा दिया. सौदेबाजी की इस नगरी में लेन देन लाज़मी है, दिल दो दिल लो, दिल दो दर्द लो, फिर ता उम्र दवा की तलाश में भटकते रहो, फिर एक नई खोज की नई शुरूवात.
यही खोज ठोकर से पहले नहीं कर पाते, शायद पत्ता ही नहीं रहता है कि पाना क्या है, खोना क्या है. हाँ ये और बात है कि चाँद की परछाई को पाने की तमन्ना में अपने अँदर की रौशनाइयों के दीप बुझाते रहते हैं, और यादों के झिलमिलाते जुगनु जलाये रखते हैं. दिल की दहलीज पर हर दस्तक पर आह निकलती है, एक शींरीं जलन का अहसास, एक तिश्नगी का जुनून जो सोच की सइरा के उस पार ही शायद मिले.
उसी मीत से मिलन हूआ उस भीड के काफिले में, पहली बार आँख ने देखा, और रास्ता बनाता हूआ दिल की गहराइयों में बस गया.किराए के मकान को अपना समझकर बस गया, याद में आबाद होता रहा, पर उसके साथ में जो मिला वो दर्द दिल में समा नहीं सका. कुछ अरसे तक तो सर्द होकर जम सा गया, पर अब रुस्वाइयों की तपिश से पिघल कर बह चला है और साथ साथ उस धारा में बह गया यह जीवन जो एक तिनके की तरह है हर दिशा में विचरना चाहता है. हवा का रुख जो बेरुखी से बदला है, यहाँ पीठ देकर चलना तो किसी भी हालत में मुमकिन नहीं है. आशा के दीप जहां जलते हैं, तो बुझने पर निराशा का आगाज़ तो होना ही है.
आशा निराशा के बीच में झूझती हुई उसी आशा की बात हो रही है, हाँ जिस पात्र को लेकर ये कलम चल रही है, उसका नाम "आशा" है, जो मीत को मिली थी, उसकी आशा बनकर, उसकी जिँदगी बनकर. अगर आशा जिँदगी है तो फिर निराशा मौत ही हुई. इसी सोच में सिमटी आशा अपनी अनजान डगर पर, उस लँबे और तन्हा सफर के दौरान यह आग का दरिया पार करना चाहती है. घर की चारदिवारी, उसकी दहलीज एक मरियादा का चिन्ह होती है, और चौखट के बाहर हज़ार दिये जलाने से भी घर रौशन नहीं होता, हाँ मन के बसी वह ज्वाला, उस अनबुझी प्यास की छटपटाहट, घर का अमन चैन जलाकर राख कर सकती है, बिखेर सकती है.
पर अब क्या? अब तो देर हो चुकी है, आग लगी है, घर जला है, अस्तित्व बिखरा है. समेटना है सब कुछ, पर कहां से शुरू करे? इन्हीं उलझे उलझे सवालों के साथ सफर जारी है आशा का, पर जवाब में निराशा मुँह चिढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर पा रही हैं.
"नहीं मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती मीत, तुम समझ क्यों नहीं रहे हो? मेरे इस एक कदम से जिँदगी बिखर सकती है, मैं टूट सकती हूं."
"अरे ऐसा कुछ नहीं होगा, भरोसा रखो खुद पर, मुझपर और नियति पर. मेरा सच्च तुम्हारे सामने है और सच को आईने की ज़रूरत नहीं होती आशा."
दूर कहीं ध्वनी सुनाई पड़ी तुम आशा विश्वास हमारे
तुम धरती आकाश हमारे जिँदगी भी क्या गज़ब ढाती है, कभी हसाती है कभी रुलाती है, कभी इन्तहाए धूप में शबनमी अहसास से सहलाती है, और ये पागल मन, परछाई को सच समझने की, मानने की कोशिश में जुटा रहता है. कदम आगे बढ़ रहे हैं, सोच का कोहरा गहरा है...
और रुक गई वह, पल दो पल के लिये उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वह अपने घर की दहलीज़ के इस पार खड़ी है, बीच राह में जहाँ कई कदमों का फासला बना आई है वह, और सामने था मीत, जो एक नया पढाव बनकर उसकी जिंदगी में आया है.
"चलें आशा" कहकर उसका हाथ थामने की कोशिश की मीत ने पर यह क्या? उसके हाथ से वो हाथ पकडने के पहले ही यूँ फिसलता रहा जैसे मुट्ठी से रेशम की रेत.
"चलती हूँ...." का धीमा स्वर उसके कान में पड़ा और बेहोशी में होश आया जब देखा आशा अपने मुकाम की ओर जा रही थी, वह जिसका चेहरा तक नहीं देख पाया था वह, एक स्वप्न जो आँखों में तराशा था, वही पलकों पर टूटता बिखरता रहा, वह कुछ भी न कर पा रहा था. बेसदा चीखें वहाँ कौन सुनता, गूँगे बहरों की इस नगरी में छलावा ही सच लगता है, सच छलावा!!!
साडी का आँचल लहरा रहा था, हवा मे फड़फड़ा रहा था जैसे अपनी आज़ादी का जशन मना रहा था. क्या कोई हवा को कैद कर पाया है? वह तो सबकी जरूरत है.
हाँ वही आशा, एक हवा का झोंका
लेके आँचल उडी हवा जैसे
सैर को निकली हो सबा जैसे.