पलकों पे जुगनू सजा रखे हैं / ममता व्यास
मेरे घर के सामने एक गरीब परिवार रहता है कल मेरा वहाँ जाना हुआ, उनका पूरा घर धुएं से भरा हुआ था। गृहस्वामिनी की दोनों आंखों से आंसू बहे जा रहे थे और रोने जैसी हालत थी। मैंने पूछा इतना धुआं क्यों? बोली क्या करे दीदी, गीली लकड़ी जलती है तो धुआं देती है ना पूरी तरह से जलती ही है ना बुझती ही है सामने अधजली लकडिय़ों से असहनीय धुआं लगातार उठा जा रहा था।
मैं घर आकर सोचने लगी की, कितनी सही बात है अधजली लकड़ी, गीली लकड़ी धुआं देती है और अधूरे रिश्ते? वो भी तो जीवन भर धुआं देते हैं-ना वो जलकर भस्म ही हो पाते हैं और न उनकी राख ही सहेजी जा सकती है वो तो आँखों में धुएं की तरह जीवन भर चुभते ही रहते हैं दुख देते रहते हैं दर्द देते रहते हैं।
क्यों बनते हैं ऐसे रिश्ते? और क्यों जलाते है ये तिल-तिल सुलगते रहते हैं मन ही मन, आंसुओं से नम रिश्ते पलकों पर जलते रिश्ते।
जिस तरह आंसुओं का पलकों से पुराना रिश्ता है ठीक उसी तरह धुएं का भी पलकों से पुराना इश्क है तभी तो जरा आप अकेले हुए नहीं की पलकों पर ये धुआँ अपना डेरा जमा लेता है किसी ने कहा है ना। आँखों में जल रहा है क्यों? बुझता नहीं धुआं, उठता तो घटा सा है बरसता नहीं धुआं।
कितनी गहरी बात और कितनी पीड़ा, कितना दर्द है उस क्षण में जब आप अपनी दो छोटी आँखों में ज़माने भर का दर्द समेट लेते हैं। अनोखी बात तो ये है कि जिन आँखों से गंगा जमुना बहती है उन पर कुछ जलता कैसे होगा ये बात सिर्फ वही समझ सकते हैं जिन्होंने दर्द के धुएं को सहेजा होगा, पाला होगा, ये वो गीली अधजली लकडिय़ां है जो जली ही नहीं ये धुआँ वो अभिशप्त रिश्तों का है जो कभी मुकम्मल नहीं हुए, ये धुआं उन अव्यक्त भावनाओं का है जिन्हें कभी शब्द नहीं मिले।
कभी तो ये दर्द धुआं बन स्याह कर देता है हमारे वजूद को, तो कभी यही दर्द सूनी तनहा खामोश रातों में जुगनू बन जाता है और टिमटिमाने लगता है। अब कभी स्याह रातों में कोई जुगनू देखो तो समझ लेना कि किसी की पलकों पर कोई रिश्ता, कोई ख्वाब जल रहा है और जो पलकों पे जलता है वो आपको सोने नहीं देता, जीने नहीं देता और रोने भी नहीं देता। वो पलकों पे जुगनू की तरह सजता है और रोशनी करता है।