पलायन / गोवर्धन यादव
सूरज के उगते ही माहौल गरमाने लगता और दोपहर होते-होते आसमान से आग के गोले बरसने लगते। सड़कें सूनी हो जातीं। लोग-बाग अपने-अपने घरों में दुबक जाते। पशु किसी पेड़ की छाया में जाकर छिपने की नाकाम कोशिश करते नज़र आते। लू के थपेड़े किसी छुट्टॆ सांड की तरह सिर उठाये गली-चौराहों पर धमाचौकड़ी मचाते हुए सरपट दौड़ लगाने लगते। कभी किसी के दरवाजे पर अपने नुकिले सिंग घुसेड़ कर उखाड़ डालने का प्रयास करते। लोग घरों में दुबक जाते और कूलर का सहारा लेने पर मजबूर हो जाते, लेकिन इस-इस बार की पड़ने वाली भीषण गर्मी ने अच्छे-अच्छे कूलरों की औकात ही बता दी थी। वे सब नाकारा सिद्ध होने लगे थे। जिन घरों में कूलर नहीं होते, वे बांस का बना पंखा झलते हुए कुछ राहत पाने की कोशिश करते अथवा अंगोछे को हिला-हिला कर शरीर पर बहते पसीने को सूखाने का असफ़ल प्रयास करते। बड़े घर के लोग खिड़की-दरवाजों को बंद कर मोटा पर्दा डाल देते और एसी. चलाकर शीतल हवा का आनन्द लूटते।
अब ऎसी कठिन परिस्थिति में निर्मल करे भी तो क्या करे? वह जिस होस्टल में रहकर पढ़ाई करने के लिए अपना गाँव छोड़कर, आया है, का बुरा हाल है। उसके दड़बेनुमा कमरे में दो मित्र और रहते हैं। उसमें कूलर लगा तो है लेकिन पानी की समस्या के चलते किसी काम का नहीं हैं। वार्डन की भी अपनी विवशता है। वह पानी की व्यवस्था करे भी-भी तो कहाँ से? कैम्पस में लगा हैण्डपंप पानी की जगह हवा उगलता है। नल में दिन में एक बार पानी आता है, वह भी नाम मात्र को। क्या नहाये और क्या निचोड़े वाली कहावत यहाँ चरितार्थ हो रही थी। कमरे में हवा आने के लिए एकमात्र खिड़की ही बचती है। उसे खुला रखे तो भी गर्म हवा के झोंके अन्दर प्रवेश कर जाते हैं और न खोले तो उमस के मारे और भी बुरा हाल होने लगता है। बिजली भी अपनी मर्जी की मालिक है। आयी तो आयी, नहीं आयी तो नहीं आयी। किसी तरह राम-राम रटते हुए दिन काटना होता है। इसके सिवाय और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचता उसके पास।
कई बार उसने हास्टल बदलने का मन भी मनाया लेकिन उसे मन-मसोस कर रह जाना पड़ा था। शहर में कई नामी-गिरामी हास्टल तो हैं, जिनमें एसी. वगैरह की उत्तम व्यवस्था है, लेकिन उनका ख़र्च उठा पाना, उसके बूते की बाहर की बात थी। पिताजी की आर्थिक स्थिति इतनी मज़बूत नहीं थी कि वे उसे एक निश्चित रक़म से ज़्यादा कि पूर्ति कर सके. राम-राम रटते हुए पहाड़ जैसा दिन तो कट जाता और दिन ढलते ही वह पास वाले बागीचे की शरण में चला जाता है। उसकी बगल में कुछ पुस्तकें, नोटबुक, पेन-पेंसिलें आदि दबी होतीं। सघन पेड़ों के ठीक नीचे वाली बेंच उसकी शरण-स्थली बनी हुई थी। बेंच के एक कोने में पुस्तक-कापी रखने के बाद, बाक़ी के बचे हुए स्थान पर एक चादर को तह करके बिछा देने के बाद ही वह उस पर बैठ पाता है। दिन भर धूप में तपती सिमेन्ट की बेंच पर बैठ पाना कोई आसान काम थोड़े ही है।
किताब खोलने के पहले वह मुनिसिपल कार्पोरेशन को धन्यवाद देना नहीं भूलता। बेंच के नज़दीक ही लैम्प-पोस्ट है जिस पर नियान लाईट सफ़ेद-झक रोशनी फ़ेंकते हुए बागीचे की शान को बढ़ा रहा होता है। इसकी रोशनी में उसकी पढ़ाई होती है। बागीचे में आने वाला वह एकमात्र सदस्य नहीं है, बल्कि गर्मी से त्रस्त शहर की कई नामी-गिरामी हस्तियाँ भी यहाँ आकर बागीचे की शान में बढ़ौतरी करते हैं। जाहिर है कि उनके बीच बातचीत का दौर भी चलता हैं। हर किसी के पास अपने-अपने किस्से हैं, अपने-अपने दुख-दर्द हैं, जिन्हें वे आपस में बांटकर हलका होने का सायास प्रयास करते हैं। ऎसा भी नहीं है कि आने वाले सभी बौडम क़िस्म के लोग हैं। उसे पढ़ता देख, लोग दूरी बनाकर बैठने लगे हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी वज़ह से उसका कैरियर खराब हो जाए. दिन भर का गर्माया माहौल अब धीरे-धीरे सामान्य होने लगता है और ठंडी हवा के झोंके चलने लगते हैं, जो जलते बदन को राहत देने के लिए काफ़ी होते हैं। किसी सिद्ध योगी की तरह वह अपना ध्यान केन्द्रीत करते हुए पढ़ाई में तल्लीन हो जाता है। देर रात तक पढ़ने के बाद ही वह हास्टल वापिस लौटता है।
कमरा अब भी गर्मा रहा होता है। वह बाथरुम में जा घुसता है और शावर आन कर देता है। कुनकुने पानी के छींटे शरीर पर पड़ते ही कुछ राहत मिलती है। देर तक शावर के नीचे खड़े रहने के बाद वह बिस्तर पर पसर जाता है। निद्रा देवी की उस पर बड़ी कृपा है। बिस्तर पर पसरते ही वह गहरी नींद के आगोश में चला जाता है।
चौथे पहर उठ बैठता है निर्मल। इस समय उसके रुम-पार्टनर गहरे खुर्राटे भर रहे होते हैं। नित्य क्रिया-कर्म से फ़ुर्सद पाकर वह कुछ निश्चित किताबों का बण्डल उठाकर बागीचे में जा पहुँचता है। उसकी वह बेंच उसका इन्तजार करती-सी लगती है। इस समय बागीचे में उसके सिवाय कोई नहीं होता। एक गहरा सन्नाटा पसरा रहता है चारों तरफ़। जैसे ही दिन निकलने को होता है, हवाखोरों की चहल-पहल बढ़ने लगती है। कोई तेज चाल में चलता हुआ अपने फ़ेंफ़ड़ों में अधिक से अधिक आक्सीजन भरने का उपक्रम करता है, तो कोई हाथों को सीने से चिपकाये पंजे के बल दौड़ लगाते हुए बागीचे का चक्कर लगता है। जिन लोगों को जीवन में कभी ठहाके मारकर हंसने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, उन्होंने लाफ़िंग-क्लब ज्वाईन कर रखा है और एक निश्चित समय पर वे यहाँ आकर हंसने-हंसाने का सायास प्रयास करते हैं। शेष दिन में वे कितना हंस पाते हैं, कोई नहीं जान पाता। वह तो केवल इतना भर जान पाया है कि लाफ़िंग-कल्ब वाले उससे एक लंबी दूरी बना कर हंसते-हंसाते है। उसे डिस्टर्ब नहीं करते हैं। निर्मल इन सभी महानुभावों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने का मौका हाथ से नहीं जाने देता।
एक सुबह। किताबों का बण्डल उठाए वह बागीचे में जा पहुँचा। इतनी रात गए उसके अलावा कोई यहाँ आता-जाता नहीं है। बागीचे में चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था। हाँ, कभी-कभार किसी पखेरु के पंख फ़ड़फ़ड़ाने की आवाज़ सुनाई दे जाती अथवा झिंगुर की टिर्र-टिर्र। बाक़ी का माहौल एकदम शांत बना रहता। बेफ़िक्री से चलता हुआ वह अपने निर्धारित स्थान की ओर बढ़ता है एक अपरिचित-अनजान खूबसूरत युवती को पास वाली बेंच पर बैठा देखकर ठगा-सा रह जाता है। युवती के शारीरिक शौष्ठव को देखकर उसने सहज ही अनुमान लगा लिया कि उसकी उम्र कोई बीस-बाईस के बीच रही होगी। इससे पहले उसने उस युवती को यहाँ आते-जाते कभी नहीं देखा था। निश्चित तौर पर तो वह यह नहीं कह सकता कि युवती इसी इलाके की रहने वाली है या किसी अन्य इलाके की है। बेफ़िक्री के आलम में डूबी युवती ने बेंच की बेक से सिर टिकाते हुए अपनी आँखे बंद कर रखी थी, संभव है वह प्राणायाम की मुद्रा में बैठी थी अथवा किसी गहरे सोच में डूबी हुई थी, यह तो वह नहीं जान पाया। हाँ, केवल इतना जान पाया था कि एक सर्वथा अनजान-अपरिचित युवती के पास बैठना और वह भी सुनसान जगह में, कितना अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है। यह भी हो सकता है कि वह किसी मुर्गे को फ़ांसने के लिए जाल बिछाये बैठी हो और मुर्गे के फ़ंसते ही चीख-चिल्लाकर एक नया वितण्डा खड़ा कर देगी। उसके मन में पता नहीं क्या भरा पड़ा है, यह तो वह नहीं जानता। हाँ, इतना ज़रूर जानता है कि इस तरह की असामान्य घटनाएँ शहरों में अक्सर घटते ही रहती हैं।
उहापोह की स्थिति से निकलकर उसने निर्णय लिया कि समय खराब न करते हुए उसे अपना अभ्यास प्रारंभ कर देना चाहिए. देर-सबेर जब वह अपनी आँखे खोलेगी तो उसे पास बैठा पाकर, बातें करेगी। अपना परिचय देगी। तभी उसके बारे में कुछ जाना जा सकता है। फिर उसके मन में कोई खोट-कपट नहीं है और न ही तृष्णा। फिर डरने जैसी कोई बात नहीं है। यह सोचते हुए वह अपनी निर्धारित बेंच पर बैठ गया और किताब में डूबने का प्रयास करने लगा।
उसका शरीर बेंच से तो चिपका था लेकिन मन साथ नहीं दे रहा था। उसकी नजरें बार-बार उस युवती के नूरानी चेहरे पर जाकर ठहर जाती और वह उसे जी भर के निहारने लगता। तभी उसे अपनी भूल का अहसास होता। नजरें पीछे हट जाती। बंद किताब फिर खुल जाती और वह अक्षरों के चक्रव्यूह में उलझने लगता। लेकिन मन था कि बार-बार उचककर उस युवती के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगता।
बागीचे में उन दो के अलावा तीसरा और कोई नहीं था। उसने एक बार फिर ग़ौर से उसके शरीर पर नजरें केन्द्रीत करते हुए मुआयना करना शुरु किया। वह अब भी निश्छल मुद्रा में आँखें बंद किए हुए बैठी हुई थी। उसे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि स्त्री जात, अपने आस-पास किसी अजनबी की उपस्थिति जानकर / पाकर अथवा उसकी छाया मात्र को देखते ही भांप जाती हैं कि सामने वाले के मन के कोई खोट तो नहीं है। ईश्वर ने वरदान स्वरुप स्त्री जात को एक अतिरिक्त छटी इंद्रीय दे रखी है कि वे पराये पुरुष को देखते ही उसके मन की बातों को सहजता से जान जाती हैं और सतर्क हो जाती हैं। शायद कुछ अनोखे क़िस्म की युवती थी वह जो पास में बैठे युवक की उपस्थिति से बिलकुल ही अनजान बनी हुई थी।
रात की कालिमा का धुधंलका धीरे-धीरे छंटने लगा था। सहसा उसके मन में विचार कौंधा कि उसे जगा देना चाहिए. वह अपने स्थान से उठकर खड़ा हुआ ही था कि युवती के पर्स में रखा मोबाइल घनघना उठा। उसके उठते क़दम वहीं रुक गए. मोबाइल की घंटी लगातार बजती रही थी। उसे पक्का यक़ीन हो गया था कि फ़ोन की घंटी की आवाज़ सुनकर वह ख़ुद जाग जाएगी। लेकिन उसके शरीर में किसी भी प्रकार की कोई हरकत नहीं हुई. यह देखकर वह सोचने पर मजबूर हो गया था कि कहीं वह नाटक तो नहीं कर रही है? कपट-जाल बिछाकर किसी को फ़ांसने के लिए षड़यंत्र तो नहीं रचा होगा इसने? । समाचार पत्रों में इस तरह की अनेकानेक घटनाऒं के बारे में वह पहले भी पढ़ चुका था। दूसरा मन कहता कि देखने-परखने में वह उठाईगिर तो बिल्कुल भी नहीं लगती। फिर उसने जो कपड़े पहन रखे हैं, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि वह किसी सभ्य घराने से ताल्लुक रखती है
आखिरकार उसने निर्णय कर लिया था कि उसे अब जगा देना चाहिए. अपनी हथेली को आहिस्था से बढ़ाते हुए उसने उसके कंधे पर रखा और हलके से झझकोरा। स्पर्ष मात्र से ही उसका शरीर एक तरफ़ लुढ़क कर नीचे गिरने को हुआ। गिरने से बचाने के लिए सहज रूप से उसका बाय़ां हाथ आगे बढ़ा और दांया हाथ उसकी पीठ पर चला गया। पीठ पर हाथ पहुँचते ही उसने गीलापन महसूस किया। अपनी हथेली को परे हटाते हुए उसने देखा कि उसकी हथेली खून से लथपथ हो गई है। अपनी हथेली को खून से सनी पाकर उसके होश उड़ गए. सोचने–समझने की बुद्धि कुंठित होने लगी। शरीर बुरी तरह से थरथर कांपने लगा और आँखों के सामने अंधकार ताण्डव करने लगा। उसने किसी तरह अपने को संभाला और तत्काल उसे उसी स्थिति में बेंच की बेक से टिका दिया।
उसका अस्थिर मन घड़ी के पेन्डुलम की तरह फिर दोलायमान होने लगा था। कभी इधर तो कभी उधर। एक विचार मन में आया कि उसे चुपचाप यहाँ से खिसक जाना चाहिए. देर-सबेर पुलिस को पता तो चल जाएगा कि बागीचे में किसी महिला का लाश पड़ी हुई है। वह तफ़्तीश करेगी और अपराधी को ढूँढ निकालेगी। फिर मन में एक विचार कौंधा कि एक पढ़े-लिखे और जागरुक नागरिक का कर्तव्य है कि अपराध की जानकारी रहते उसे पुलिस को सूचित करना चाहिए. लेकिन पुलिस हमेशा से ही सूचना देने वाले को अपने शक के घेरे में लपेट लेती है और उसी से उलटे-सीधे जवाब करती है, जबकि अपराधी कोई और होता है। यदि उसे अपराधी मान लिया गया तो तत्काल ही उसे जेल में डाल दिया जाएगा। मुकदमा भी चलाया जाएगा, जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता कि अपराध उसने नहीं बल्कि और किसी ने किया है, तब तक उसे जेल में सड़ना होगा। सच को सच साबित करने में दिन-दो दिन नहीं, बल्कि सालों भी लग सकते हैं। यदि ऎसा हुआ तो उसका कैरियर ही समाप्त हो जाएगा। वह कहीं का नहीं रहेगा। उचित होगा कि उसे यहाँ से खिसक ही जाना चाहिए. ऎसा सोचते हुए उसने अपनी किताबों को समेटा और वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
बागीचे के गेट के पास पहुँचते ही उसके पैरों में जैसे ब्रेक ही लग आए थे। उसने अपनी किताबों के बण्डल की बारीकी से जाँच की। सारी किताबों को तो वह बटोर सका था लेकिन घबराहट में डायरी वहीं छूट गई थी। एक पेड़ की आड़ में खड़ा होकर वह सोचने लगा था–"भले ही मैं वहाँ से भाग निकला, लेकिन मेरी डायरी तो इस बात की गवाही देगी कि मैं वहाँ उपस्थित था। फिर डायरी में मेरा नाम-पता, फ़ोन नम्बर आदि सभी कुछ तो नोट है। संभव है कि डायरी पर खून से सनी हथेली के निशान न पड़ गए हों? । हाल-फ़िलहाल वह पुलिस के चंगुल से बच तो जाएगा लेकिन सबूतों के आधार पर उसे जल्दी ही गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। बाद में पता नहीं उसकी कैसे गत बनेगी?" । दुर्गति की कल्पना मात्र से वह सिहर उठा था।
घबराहट में फिर कोई बड़ी भूल न हो जाए, यह सोचते हुए उसने किताबों का बण्डल एक पेड़ की कोटर में जतन से रख दिया और सरपट दौड़ते हुए वह उसी स्थान पर जा पहुँचा। युवती का शरीर उसे उसी स्थिति में मिला, जैसा कि वह छॊड़ आया था। बेंच के ठीक पास डायरी पड़ी हुई थी। बिना देर लगाये उसने डायरी उठाई और भाग खड़ा हुआ। वह तब तक भागता रहा था, जब तक गेट नहीं आ गया। उसने फ़ौरन पेड़ की कोटर से किताबें निकाली और बागीचे के बाहर आ गया। उसे इस बात पर पूरी आश्वस्ति हो रही थी कि किसी ने, न तो उसे अन्दर जाते देखा था और न ही बाहर निकलते देखा था। उसे इस बात पर भी संतोष हुआ कि संयोग से उस समय चौकीदार भी वहाँ उपस्थित नहीं था।
तेज कदमों से चलते हुए वह अपने हास्टल पहुँचा। उसके रूम-पार्टनर अब तक सोए पड़े थे। यह एक अच्छा संयोग था उसके लिए. बाथरूम में घुसते हुए उसने डायरी पर खून के पड़े निशानों को करीने से साफ़ किया। कपड़े पहिने ही पहिने उसने शावर आन कर दिया था ताकि खून के निशान यदि कहीं पड़ भी गए हों तो वे भी धुल जाएँ। देर तक शावर के नीच खड़े रहने के बाद वह कुछ नार्मल हो पाया था, बावजूद इसके, दिमाक अब भी बिजली के मीटर के तरह तेजी से घूम रहा था।
बाथरूम से निकलकर वह किसी कटे हुए लठ्ठे की तरह आकर बिस्तर गिर पड़ा था। मन था कि स्थिर ही नहीं हो पा रहा था। पल भर को एक विचार कौंधता तो दूसरा तत्काल उपस्थित हो जाता। वह गम्भीरता से सोचने लगा था कि एक मृत शरीर चलकर बागीचे तक तो आ नहीं सकता? । फिर उसका डील-डौल देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसका वज़न चालीस-पैतालिस किलो से किसी भी प्रकार कम नहीं होगा। फिर एक मृत शरीर को उठाकर लाना एक आदमी के बस की बात नहीं है। निश्चित ही इस काम को चार-पांच लोगों ने मिलकर अंजाम दिया होगा। दूसरा सवाल यह उठता है कि आख़िर उस युवती की हत्या क्यों की गई? । इसका सीधा-सा उत्तर है कि युवती किसी काम से घर से निकली होगी और मनचलों ने उसे अगवा कर लिया होगा और सूनी जगह पाकर उसके साथ बारी-बारी से बलात्कार किया होगा। चुंगल से छूट कर युवती पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत न कर दे, इस डर के चलते उन्होंने उसका मुँह बंद कर देना ही उचित समझा होगा और उसका मर्डर कर दिया। फिर शव को बागीचे में लाकर पटक दिया।
बागीचे में आने वाले लोग अक्सर शाम के समय आते हैं, कुछ देर रुकते है और रात के गहराने के साथ ही अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। नौ-दस बजते ही बागीचा सुनसान हो जाता है और चौकीदार गेट पर ताला जड़कर आराम से सो जाता है। इसी का फ़ायदा उठाते हुए दरिन्दों ने बागीचे की नीची दीवर को फ़ांदा होगा और उसके शरीर को बेंच के हवाले करते हुए भाग खड़े हुए होंगे।
मन के आंगन में उठ खड़ा हुआ तूफ़ान अभी तक शांत नहीं हो पाया था। एक विचार आता, उसे अशांत कर जाता। फिर दूसरा उठ खड़ा होता। विचारों के शृंखला थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसने गहरी सांसे लीं। भटकते हुए मन को किसी तरह शांत किया और अब वह गंभीरता से सोचने लगा था-"पता नहीं, इस देश में आख़िर इस तरह की घटिया मानसिकता अमरबेल की तरह क्यों फ़ल-फ़ूल रही है? युवती तो युवती, प्रौढ़ स्त्रियों सहित नाबालिक बच्चियों के साथ भी रेप किया जा रहा है और बाद में उनकी निर्मम हत्या कर दी जाती है। यदि युवती इन मनचलों का विरोध करती है तो उन पर एसिड फ़ेंककर उनका चेहरा विकृत कर दिया जाता हैं। कभी दहेज के नाम पर उनका शोषण होता है तो गर्भ में ही उन्हें मार डाला जाता है। महिलाओं को अपने सगे-सम्बंधियो पर पूरा भरोसा रहता है और वे उनके संरक्षण में अपने आपको सर्वथा सुरक्षित महसूस करती हैं। उन्हें पूरा विश्वास रहता है कि वह उसके साथ कोई ग़लत हरकत नहीं करेगा और इसी भरोसे की आड़ में वे शिकार हो जाती हैं।" भरोसा" शब्द भी अब विकृत मानसिकता कि श्रेणी में गिना जाने लगा है। उसका अपना तर्क है कि इन्टरनेट और एनड्राईड फ़ोनों के फ़ैलते मकड़जाल भी सेक्स परोसने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। बस एक क्लिक करने भर की ज़रूरत है कि सारे अश्लील दृष्य़ देखे जा सकते है। इस सहज और सुलभ माध्यम का फ़ायदा उठाकर ये शैतान किसी युवती को फ़ंसाने के लिए व्हीडियो बनाकर अपलोड करते है और एक चेहरे पर उस युवती का चेहरा चस्पा करके उसे सार्वजिक कर देने की धमकी देकर उनका शोषण करते है। समाज में बदनामी न हो इस भय के चलते वे इस दलदल में उतरने के लिए राजी हो जाती हैं।
पता नहीं क्या हो गया है इस देश के लोगों को, इनकी सोच को, जो समाज में विकृति फ़ैलाने में आमादा हो गए है? वह जानता है कि भारत ही विश्व का एक मात्र ऎसा देश है जो अनादि काल से नारियों का सम्मान करता आया है। कभी काली के रूप में तो कभी दुर्गा के रूप में नारियों को पूजा गया है... उन्हें सम्मान दिया गया है।
नारियों को सम्मान देने, उन्हें देवी का दर्जा देकर पूजने वाले इस देश की सोच अचानक कैसे बदल गई? । यह एक विचारनीय प्रश्न है और इस पर हम सभी को गम्भीरता से सोचने-विचारने की ज़रूरत है। केन्द्र की सरकार हो या फिर राज्य की, सभी इस बिमारी की रोकथाम के लिए कड़े से कड़े रूख अपना रही है। उन्हें फ़ांसी पर चढ़ाया जा रहा है, जेलों की सलाखों के पीछे डाला जा रहा है, बावजूद इसके, रेपिस्ट बेखौफ़ होकर इस कुकृत्य को अंजाम दे रहे हैं।
उसने कभी इसे व्यथा-कथा को लेकर चंद लाईनें लिखी थीं, याद हो आयीं-"सड़कों पर परिरंभन हो और चौराहों पर हो चीर हरण, शैशव के तेरे ये दिन है तो भरी जवानी में क्या होगा? । यह सच है कि देश अभी-अभी अपना शैशवकाल छॊड़ कर जवानी में क़दम रखने जा रहा है। अभी पूरा जवान भी नहीं हुआ है। यदि शैशल काल में ही ऎसे बुरे खौफ़नाक मंज़र देखने पड़ रहे हैं, तो उस समय क्या होगा जब वह पूरा जवान हो उठेगा?" ।
दिल और दीमाक में उठा चक्रवात अब धीरे-धीरे शांत होने लगा था। सोचने-समझने की बुद्धि वापिस लौट आयी थी। अब वह अपने आपको एकदम तरोताजा-सा महसूस करने लगा था। बिस्तर से उठकर वह कमरे की उस खिड़की पर जा खड़ा हुआ जो पूरब की तरफ़ खुलती थी। उसने उगले हुए सूरज को प्रणाम किया और मन ही मन निर्णय लिया कि वह किसी अज्ञात डर के चलते पलायन नहीं करेगा और पुलिस स्टेशन जाकर इस घटना कि जानकारी देगा और रिपोर्ट दर्ज कराएगा। निर्णय लेने के साथ ही वह अपने कमरे के बाहर निकला। उसके साथी अब भी खुर्राटे भरते हुए गहरी नींद के आगोश में सो रहे थे।
अब उसके क़दम तेजी से पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ चले थे।