पलायन / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वे जा रहे है।वह परिसर से बाहर खड़ा, उन्हें दूर जाते देख रहा है।जब वे नज़रों से ओझल हो गए तो वह लौट आया है।उनके कमरे में अपने को ढीला छोड़ते हुए वह एक राहत की साँस लेता है।परन्तु उनकी आवाजें कर्कस, मृदु, तीखी, धीमी, तेज सभी कुछ उड़ती हुई उसके ऊपर मंडराने लगती है।उस फ्लैट के हर कोने से आती हुई आवाजे उसकी धड़कन तेज करती है और उसका सर चकराने लगता है।

ए-15 के फ्लेट नंबर-4 में अपने विषय में सोचने समझने, आत्मवलोकन करने, अपनी चेतना परखने का आज मौका मिला है।परन्तु ऐसा कुछ हो नहीं पाता है।अंतस में घुसने के लिए खुद और वातावरण का शांत होना ज़रूरी है, जो नहीं है।

शब्द, वाक्य, चेहरों की भाति-भाति की मुद्राएँ और अभिव्यक्ति करने की अन्य चेष्टाएँ उसे बेतुकी ढंग से त्रस्त करने लगीं।-

-जिम्मी, अभी तक दूध नहीं लायें? ...–'मामाजी, हमें स्कूल छोड़ कर आईये ना? आज बस छूट गयी है...' मामा यार, आप भी बौड़म है, इतना भी नहीं समझते... 'अरे भाई, जिग्नेश से कह दो ना वह ला देंगा...तुम भी मेरे पीछे पड़ी रहती हो...' साले साहेब करते क्या रहते है दिन भर? कुछ घर का काम ही कर लिया करें... 'जिम्मी, मेरा हाथ बटा ले आज काम वाली नहीं आई है...' चलिए तेरे जीजा जी के आने से पहले कुछ स्पेशल बना लेते है...सरप्राइज देते है... 'अभी इतने ढेर सारे पैसे दिए थे जिग्नेश को, पूछो-ख़तम हो गए क्या? ... सिगरेट आदि में फूक दिए होंगे? ...' डिअर पैसे पेड़ में नहीं उगते...हाथ सम्हाल कर खर्च किया करो...'जिम्मी पार्टी में जा रहे है घर का ख्याल रखना...घर छोड़कर जाना नहीं, आजकल चोरी चाकरी बहुत हो रही हैं..."जिग्नेश, जल्दी सो मत जाना...ग्यारह बारह तो बज ही जायेंगे... ओह...हो... साले साहेब अभी तक सो रहे है...? ...' मम्मी, होम-वर्क आप करवाइए मामा जी ठीक से नहीं करवाते? ...मामा, मेरे साथ क्रिकेट खेलिए ना...? ...'इनका तो भगवान मालिक है...' जिम्मी...जल्दी से भागकर ये सामान ले आओ ...वरना तेरे जीजाजी बिना नास्ता किये चले जायेंगे..." ...और अभी कुछ दिनों से दीदी को मोर्निंग वाक पर ले जाने की जिम्मेदारी।दीदी का सुगर लेवल बढ़ गया है।उसने सोचा।

निरंतर आ रहे शब्दों वाक्यों और संवादों ने उसमे एक अजीब तरह की व्याकुलता भर दी थी।इनसे निजात पाने का बेहतर तरीका यही है कि कही बाहर चला जाए, उसने सोचा।कहाँ? ज़्यादा दूर जा नहीं सकते फ्लैट की रखवाली भी तो करनी है।देखते है?

एक युवक जिसकी उम्र अड़तीस को पार कर चुकी है अपने घर से निकल कर इस मखमली घास पर लेटा हुआ है, आज उसका कोई तलबगार नहीं है।वह जीवित है।साँस चल रही है।वह पड़ा है, स्थिर, निश्चल, गतिहीन।कभी आँख खोलकर निहारता अभी अन्तःस्थल में विचरता।

वह लेटा हुआ है और आँखें बंद है। परन्तु पिछले महीनों वर्षों की अतल अथाह गहराइयों में भटकता हुआ वह कानपुर पहुँच जाता है।कानपुर की अँधेरी, सकरी और पेचदार गलियों में उसकी छाया डोलती जा रही है।मकानों दुकानों आदमियों से टकराता भिड़ता भागता आया था और अचानक ठिठक गया था कानपुर की जेल की नरकीय यातनाकाल में...पंद्रह साल पुरानी एक अजीब अनहोनी घटना अचानक कौध उठी।

एक भीगी रात को जब वह साथियों को लाल सलाम करके घर पहुंचा था तो अचानक उसके गद्लायें, भूखे चेहरे पर पिता की तीखी, गुस्सैल असुर नफ़रत भरी आवाज चिपक गयी, "इस घर में रहते हुए तुम क्रांति का ढोल नहीं पीट सकते।व्यवस्था को उखाड़ फेकना है तो यह घर छोड़ना पड़ेगा। क्योकि यह घर भी व्यवस्था का हिस्सा है...जब क्रांति करने का नशा उतर जाएँ तो वापस लौट आना।तुम्हारा सदैव स्वागत रहेगा।" ।उसने एक नज़र पिता पर डाली और माँ को विलखता छोड़ कर, उलटे पाँव लौट चला था।देश की व्यवस्था में आमूल-चूक परिवर्तन करने का फौलादी इरादा लेकर...

और अचानक वह हँसने लगा था।क्या क्रांति? क्या परिवर्तन? क्या स्वतंत्रता? उसने तो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी खो दी है।

...उसने दरवाजा खटखटाया।वह इस समय सो रहे होंगे? नहीं कामरेड कभी सोते नहीं।और कप्तान तो निश्चय ही नहीं।

वह बाहर अँधेरे में खड़ा है।दरवाजा खटखटा रहा है।दरवाजे के बाद सीढियाँ उपर जाती हैं।इस दरवाजे में कोई सांकल आदि नहीं है यदि है भी तो काम नहीं करती होंगी।जरा से धक्का देने से दरवाजा खुल सकता है।परन्तु ऐसा करना ठीक नहीं है।बिना उनकी अनुमति के उपर तक जाना उचित नहीं है।यह उनकी निजी ज़िन्दगी में हस्तक्षेप होगा।हाँलाकि बहुत आकस्मिता है, फिर भी। घर में प्रवेश के लिए ऊपर बहुत ही मजबूत किवाड़ है जो सदैव बंद ही रहता है और अन्तरंग, आत्मीय और चिन्हित के लिए ही खुलता है।

उसने कोई जल्दी नहीं दिखाई थी।वह जानता था इस वक़्त उसे यही ठिकाना मिल सकता है।आखिर वह उसके रेड ब्रिग्रेड के कप्तान हैं।वह इंतज़ार करता रहता है और लगातार खटखटाता है। इस बीच उसने अपने को व्यवस्थित किया और चेहरे पर छाई लाचारी की जगह दृढ़ता भर ली। गीले ऊँचें पायांचे नीचे किये और अपने छितराए बाल समेट लिए.जब वह दरवाजा खोलेगें तो अपने सामने उस कामरेड को पाएंगे जो ना केवल जहीन है बल्कि दृढ़ और सख्त जान है।

दरवाजा बहुत देर बाद बड़ी मुश्किल से चिरर्चिराती और खड़खड़ाती हुई आवाज के साथ खुला।कप्तान ने देखा वह दरवाजे पर खड़ा उलझन और बेबसी के आलम में था।कप्तान उसे बेहद अलसायी और क्रोधित नज़रों से घूर रहा था।उसकी आँखें सुर्ख थीं जिन पर प्रश्न टंगे थे।

"इस समय कैसे? ...बगैर आर्डर के, कप्तान के घर...?"

वह खिसियाना-सा मुस्कराहट को दबा रहा था।

"कामरेड, कुछ बोलोगे" उसकी आँखे उसे रौद रही थी।उसकी आँखों से बचता हुआ उसने कहा,

"कप्तान साहेब! छत की तलाश में आपके पास चला आया।पिताजी ने घर से निकाल दिया।" अपने पैरों पर खड़े होकर क्रांति करो, जाओ."

कप्तान ने उलझन, बेचैनी और बेबसी से उसे देखा और भीतर आने का इशारा किया।

भीतर आते ही उसने देखा कि मकान का भीतरी हिस्सा काफी अमीर है, जबकि बाहरी हिस्सा गरीबी का चीख-चीख कर बयान दर्ज करवा रहा था।वह अश्र्चकित-सा उस वैभव को आँखों से घटाघट पी रहा था।

वे उसे लेकर लाबी पार करते हुए पीछे दूर स्थित एक कमरे के किवाड़ को टक-टक करके जगाया।

भोलू जग गया था।उसने मिचमिचाती आँखों से पहले कप्तान साहेब फिर उसे देखा।वह नीद में डोल रहा था।

"आज की रात यह तुम्हारे साथ रहेंगे।कल चले जायेंगे।" यह कहकर कप्तान साहेब चले गए बिना उन सब की तरफ देखे।

उसकी आँखें उस पर जम गयी।उसने एक उबासी ले और हलके से मुस्कराया।जैसे कोई अपना भाई बंधु हो?

उसकी आँखों और मुस्कराहट से बचता हुआ, उसे हलके से धकेलता हुआ वह भीतर कमरे में धस आया कि कही भोलू भी अपना दरवाजा बंद ना कर ले और उसकी अंतिम आशा धुलधुसरित हो जाएँ।भीतर आकर वह पूरी तरह आश्वस्त हो गया की भोलू साहेब का घरेलु नौकर ही है और यह कमरा सर्वेंट रूम है।

-कितने दिन रहोगे? ...

-नए नौकर हो...? ...

-क्या यहाँ अब दो नौकरी करेंगे? ...

-या...मुझे हटाया जायेंगा...?

वह बहुत उद्दिग्न और चिंतित लगा। उसने उसकी बात को कोई उत्तर नहीं दिया।वह कमरे के निरीक्षण में ब्यस्त था, एक फोल्डिंग (गुदड़ बिस्तेर के साथ) , एक स्टूल, एक तिपाई और पानी से भरी ढकी एक बाल्टी, मग।

वह अजीब स्थिति में खड़ा खिसिया रहा था।उसने उसका हाथ पकड़कर कर उसे झकझोरा।वह अपने उत्तर की प्रतीक्षा में उतावला हो रहा था।उसने एक क्षण उसे देखा।

"कल सुबह मैं निश्चय ही चला जाऊंगा।" उसने उसे आश्वस्त किया।

वह मुक्त है।आज सारी दुनिया उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रही है।पंद्रह नंबर भी नहीं। वह प्रतीक्षा करता है, शुकून आने की।असफल रहा।

पूरी दोपहर बीत चली थी।शनैः शनैः प्रकाश मध्यम पड़ने लगा था।चारों तरफ से घिरे घास के खूबसूरत मैदान में, छोटे-छोटे पेड़ों की मनभावन छाव से घिरा। वह दोपहर से ही लेटा हुआ दींन दुनिया से बेखबर, मानसिक उद्देलन से पीड़ित था।परन्तु उसके बेचैन मन को कोई राहत नहीं मिल पा रही थी। किन्तु यहाँ वह जान-लेवा आवाजें पीछा नहीं कर रही थीं।

वह जानता था अभी शीघ्र मैदान के चारों तरफ संतरी की तरह निगाह रखे विशाल बहुमंजिला टावरों की जगमग करती रोशनी और मैदान में स्थित लाइट जल जाएगी तब उसे अपने होने का अहसास होगा। काफी देर हो चुकी है।उसे फ्लेट की चिंता सताने लगी कही...कुछ हो ना गया हो...वापस चलना चाहिए...?

कई वर्षों से उसकी दुनिया जैपुरिया टावर के भीतर और उसके आसपास सिमट कर रह गयी थी।जब कभी उसे ए-15 से मुक्ति मिलती, वह इसी लॉन में आकर अपने सुकून की तलाश किया करता और खो जाता स्मृतियों के आइने में।अतीत के बेरहम, झुलसे, सक्रीय-अक्रिय बेतरतीब घटनाओं के भंवर में।उसे वह पल बड़े ही करुण और दारुण लगते थे जब वह माँ पिताजी याद से सराबोर होते।उसकी आँख तुरंत ही भर जाती थी और एक धार निकल कर गालों में बिखर जाती।

आज सबके गए दूसरा दिन है।सुबह से शाम बीत चुकी है और पीड़ित करती आवाजें कम हैं।जिम्मी, जिग्नेश और मामा की आवाजें क्रोध, गुस्से, प्रेम, अनुरोध और आदेश भरी करीब-करीब रिक्त हैं।कभी उसे अपना नाम काफी असरदार, प्यारा और आकर्षक लगा करता था।परन्तु आज यह सिर्फ़ एक अजीब निरर्थक शब्द है।जो अपना अर्थ खो चुका है।इस शब्द के मायने बदल गए है और अब यह एक विक्षिप्त, हतास निराश, उदासीन और बौखलाए व्यक्ति की पहचान बन चुका है।

जब भी दीदी जीजाजी और बच्चे एक साथ जाते थे वे कामवाली को उतने दिन की छुट्टी दे दिया करते। उसे अपने लिए सब कुछ अकेले ही करना पड़ता था।घर खर्च के लिए इतने नपे तुले पैसे दे जाते थे कि उसके लिए बाहर कुछ खाना पीना संभव नहीं हो पाता था।अब भी ऐसा ही था।आखिर अपने लिए कुछ करने की इच्छा कहाँ होती है? अधबना-अधपका, कभी बनाया कभी नहीं, कभी खाया कभी नहीं।सफाई करें या न करें।कौन देखने वाला है? छोड़ते हैं।

एक बार उसने ऐसे ही कमलेश की शिकायत की थी।उनकी अनुपस्थिति में काम पर ना आने की तो दीदी ने कहा, "मैंने ही मना कर रखा है।"

"क्यों?" उसे आश्चर्य हुआ।

"जिम्मी, यह ठीक नहीं है।एक जवान विधवा काम वाली और जवान अविवाहित युवक, निपट अकेले कुछ घंटें साथ-साथ रहें। कुछ भी हो सकता है?"

"दीदी आपको अपने भाई पर भरोसा नहीं है? जबकि मैंने बहुत पहले शादी के लिए मना कर रखा था माँ बाप के ज़माने से।आप जानती है कि मैंने लाल ब्रिग्रेड से शादी कर रखी है।"

' तब में अब में बहुत फर्क आ गया है।तुमने लाल ब्रिग्रेड छोड़ रखी है...या छूट गयी है...या समाप्त हो गयी है।"फिर कुछ पल सोचने के बाद बोली," जिम्मी, तुम्हारी बात नहीं है...परन्तु इन काम-वालिओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता।"

वह चुपचाप दीदी की तरफ अविश्वसनीय नज़रों से देखता है।उसकी आँखों में क्या था?

"ये लोग झूठा इल्जाम लगा सकती है।बिना बात का बतंगड़ बन सकता है।फिर थाना अदालत हर्जा खर्चा कौन देगां? ...यह भी हो सकता है कि विवाह करने के लिए मजबूर करें? इसका दावा ठोक दें?" यह कहते हुए वह एक पल भी ना रुकी।वह हतप्रभ दीदी को देखता रहा।वह इतना लम्बा कैसे सोच लेती है? दीदी उससे पाच साल बड़ी थीं परन्तु बचपन से वह उसी की बात मानती आई थी।यहाँ तक शादी के बाद भी जब भी घर आती, उसी से विचार विमर्श...जिम्मी ऐसा है...वैसा है...क्या करें...? क्या ना करें...? कुछ बताओगे...? कुछ सुझाव दोंगे...?

"दीदी जब हम छोटे थे।जब तुम्हारी शादी नहीं हुई थी और मैं घर से भागा नहीं था।तब हम कुछ नहीं जानते थे, उस समय भी तुम मुझ पर कितना यकीन किया करती थी।आज तुम सोचती हो कि मैं पहले से भिन्न हूँ। मैं जैसा पहले था वैसा अब भी हूँ।जैसे पहले नहीं डरती थी वैसे ही अब भी..." वह एक पल चुप रही कुछ शायद पीछे चली गयी होंगी? या शायद कुछ बोलना नहीं चाहती होंगी?

" दीदी, तुम इतने समझदार कब से हो गयी? बुजुर्ग हो गयी हो? कैसे कब से ऐसी हो गयी हो? ' वह खीजकर इतना ही कह पाया था, कि दीदी ने पलटकर उसे झिड़क दिया।

`"जिम्मी, जब से तुम लड़ झगड़ कर घर से भागे थें...बेहद गैर-जिम्मेदार कार्य किया था।माँ बाप को-को मरने के लिए छोड़ दिया।तुमने ना केवल अपने को बर्बाद किया बल्कि उन्हें भी बर्बाद कर दिया था।और सच मानो तुम्हारे कारण ही वह इतनी जल्दी मर गए वरना अभी तक जिन्दा होते?" उन्होंने इतने दिनों का इकठ्ठा कलुष उस पर उड़ेल कर खाली कर दिया...दीदी रोने लगी थीं।

उसका मुंह सफ़ेद पड़ गया अप्रतिम अपमान से उसके होंठ कांपने लगे।उसे अपनो द्वारा लगाया इल्जाम भीतर से रक्त खींच रहा था। वह लड़खड़ा कर पास पड़ी कुर्सी पर ढेर हो गया।

अगले दिन उसने वहाँ से जाने का निर्णय ले लिया।मगर जीजा जी अड़ गए.उन्होंने संरक्षक की तरह उसको समझाया।बच्चे पीछे पड़ गए.दीदी अलग रूठी बैठी थीं।वह मनाने नहीं आई.

' देखों! जिग्नेश दीदी को तुम्हारी ज़रूरत है। मेरी ड्यूटी ऐसी है कि मैं कई-कई दिन तक घर नहीं आ पाता हूँ।अकेले विभा और दोनों बच्चे कैसे वह सम्हाल पायेगी? तुम अपनी दीदी से कितना प्यार करते हो? तुम अपनी दीदी को ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकते हो? फिर विभा तुम्हे बेइंतहा प्यार करती है।यह तुम अच्छी तरह जानते हो।हर समय तुम्हारी ही चिंता किया करती है...फिर भाई बहन में तो लड़ाई-झगड़ा हुआ ही करता है।कोई घर छोड़ कर क्या जाता है? "

वह रुक गया अपनी दीदी और बच्चो के खातिर।

वह नितांत विरक्त भाव से लेटा हुआ था।दीदी आ गयी।निर्निमेष दृष्टि उस पर डाल कर वह मुस्करायी।

"अब तक नाराज है मेरा बड़ा बेटा!" एक स्निग्ध मोहक हंसी.यह सुनते ही वह विस्मित होकर ताकने लगा।उसकी म्लान पड़ा चेहरा खिल उठा।वह उसके पास तक आ गयी थी और बड़े प्रेम से उसकी ओर निहार रही थी।जैसे कि वह अपने कहे हुए पर माफ़ी मांग रही हो।

"ठीक है बाबा, अब से कमलेश को कोई छुट्टी नहीं।उसे अगर छुट्टी चाहिए भी तो मेरे रहते ही मिलेगी।अब तो खुस?" यह कहते हुए उन्होंने स्नेह से उसे गले लगा लिया...एक बात कहूँ जिम्मी अकेले का काम होता ही कितना है? फिर एक आध दिन से ज़्यादा तो मैं जाती भी नहीं हूँ...मै जानती हूँ कि अकेले तुम सक्षम हो।बड़ी आसानी से तुम निपटा लेते हो" यह कहकर वह एक बार फिर हंसी और स्नेह से उसके बालों पर अंगुलियाँ फिरा कर वह चलती बनी।

उसके भीतर का भारीपन प्यार स्नेह के स्पर्श से पिघलने लगे...शिकायत का पहाड़ अदृश्य हो गया।

लाल सलाम दिनों में वह दीदी से मिलने आया था।वह दिल्ली आया था।वह लाल ब्रिग्रेड से बचकर आया था।उसने अपने कामरेडों को नहीं बताया था कि वह कहाँ जा रहा है? घर को छोड़े एक अरसा बीत चुका था।उसे अच्छी तरह पता था कि दीदी को माँ पिता जी के विषय में ताजी जानकारी होगी।वह जानना चाहता था वे कैसे है?

उसके फ्लैट की कॉल बेल बजाते हुए वह शर्म और हिचक से बेइंतहा परेशान था।एक अपराधबोध उस पर हावी था।

दरवाजा खुला।दीदी ने देखा।वह खड़ा हुआ बिना मतलब के मुस्करा रहा था।वह कुछ नहीं बोली।सिर्फ आश्चर्यचकित उसे देखती रह गयी।उनकी आँखें विष्मय से भरी और डबडबा रही थीं।

"इतने दिन कहाँ रहे?" उसके जेहन में सैकड़ो प्रश्न थें।

वह झेपता हुआ मुस्करा रहा था।आदमी के दिमाग में यदि उत्तर नहीं है और यदि है भी, वह उन्हें देने से बचना चाहता है तो मुस्कराना बहुत बेहतर हथियार होता है।

"जीजाजी कहाँ है?" उसने उसके प्रश्न को अलग जाने दिया।

" कही बाहर गए हुए है...देर से आयेंगे।

अब तक वह भीतर आ चुका था और सोफे में विराजमान हो गया था।वह उसे छोड़ कर कुछ उसके खाने पीने के लिए लाने चली।उसने उसका हाथ पकड़ कर रोका।

' अभी कुछ नहीं।" वह हाथ पकड़े-पकड़े बड़े सोफे में बैठ लिया।

"तुम्हे क्या हो गया है?"

"कुछ भी तो नहीं।"

"फिर यह भटकन की ज़िन्दगी क्यों?"

"नहीं।भटकन नहीं।एक उद्देश्य के लिए.बराबरी के लिए.समानता के लिए.लाल क्रांति ही ला सकती है यह सब।"

"बकवास मत करो।यह सब रहने दो।बहुत हो गया।"

"दीदी! आप यह नहीं समझती?"

"मेरी तरफ देखो।!" उसने बड़ी लालसा भरी नज़रों से उसकी तरफ ताका।

"मेरी कसम खाओ."

वह उसकी तरफ बड़े निर्विकार भाव से देखता रहा।हांलाकि जिज्ञाषा काफी थी।

' तुम वापस घर लौट जाओ."यह कहते हुए उसकी आवाज चोक हो गयी।वह बहुत कुछ कहना चाहती थी...आँसुओ का आगमन हो गया था।वह फिर सम्हली।गा्ल में बिखर गए आंसुओं को पोछा।कुछ पल ही बीतें होगे कि उसने कहा," माँ के अक्सर फ़ोन आते रहते है तुम्हारे विषय में कि तुम कहाँ हो? जब से घर से निकले हो कोई खोज खबर नहीं है।पूंछ रही थी तेरे पास तो नहीं आया कभी? ...कैसा है? ...कहाँ है? ...कोई ऐसा करता है अपने माँ बाप के साथ?

"उन्होंने ही निकाला था घर से।"

"एक ही शहर में रहते हो...पता नहीं कहाँ? ...मुद्दत हो गयी है तुमने अपनी शक्ल नहीं दिखाई है उन्हें...क्या यह उचित है? ...यह ठीक नहीं है।"

" उसके लिए कुछ बोल पाना असंभव होता जा रहा था। वह द्रवित होने के बाबजूद, मजबूत था।फिर उसके लिए वहाँ ज़्यादा देर रुकना मुश्किल था।वह दीदी से नजरें बचा के निकल आया।वह किसी और से मिल नहीं पाया था।

वे चमन गंज इलाके में थे।एक ऐसे मकान में जो वर्षों से वीरान पड़ा था।उसे एक ना एक दिन या शायद जल्दी ही खँडहर में तब्दील हो जाना था।वह कामरेड युसुफ़ के दादा परदादा का मकान था।चमनगंज की टेढ़ी मेढ़ी सकरी गलिओं की भूलभुलैया में स्थित था।वह मकान ऐसी जगह पर स्थित था कि उस तक पहुचने और निकलने के कई रास्ते थे। कुछ रास्ते ऐसे तंग और सकरे थे की केवल एक व्यक्ति ही आसानी से आ जा सकता था।इन गलिओं में आकाश दिखाई पड़ना मुश्किल होता था।वे गलियाँ बदबूदार और गन्दी थी। उन मकानों में सर्विस लैटेरिन थी, जिनका निकास नीचे गलिओं में था।उस जगह की हवा भी बदबूदार, गन्दी, बोझिल और ठहरी हुआ करती थी।उन मकानों में रहना क्या गुजरना भी बिमारिओं को खुले आम दावत देना था।इस मकान के छत से एल्गिन मिल की चिमनियाँ दिखाई पड़ती थी जहाँ उसके कामरेड साथी काम करते थे।वह प्रेरणा का श्रोत्र था।

उस मकान में रेड ब्रिग्रेड का कार्यालय था।लाल साहित्य से अटा-पटा।उसके देखरेख और रहन सहन का जिम्मा युसूफ के पास था।अक्सर रात में भी वह वही रुक जाता था। उसमे हर समय करीब-करीब दो चार कामरेड अवश्य मिलते थे।वहाँ दैनिक, साप्ताहिक और मासिक मीटिंग हुआ करती थी।वहाँ लालक्रांति के मंसूबे बांधे जाते थे और कुछ ना कुछ, कभी-कभी कार्यरूप में परिणित करने की कार्यवाही भी संचालित की जाती थी।यह बहुत ही गुप्त अड्डा था।पूर्णतया सुरक्षित।व्यवस्था की नज़रों से दूर।

इसी जगह कप्तान साहेब ने उसे रहने को निर्देशित किया था।उसका यहाँ स्थायी निवास बन जाने के कारण अब युसूफ रात को अपने अब्बू के पोश कोलोनी में स्थित घर में चला जाता था। कभी-कभी वह यहाँ निपट अकेला ही रह जाता था, रात या दिन।कभी कभी अस्थायी रूप से कोई साथी दो चार दिनों के लिए रात में भी उसका साथी बन जाता था।

उसने बहुत जल्दी वहाँ की व्यवस्था सम्हाल ली।वह उस मकान और रास्तों का पूर्णरूप से अभ्यस्त हो गया।उसे कभी दुबारा रास्ता टटोलना नहीं पड़ा था।इस मामले में उसे कभी युसूफ की सहायता की ज़रूरत नहीं पड़ी थी।एक तरह से वह इस कार्यालय का इन्चार्जे हो गया था।इस जगह बीस पच्चीस बेरोजगार युवकों का आना जाना रहता था।सभी लाल बिग्रेड के कार्यकर्ता थे कुछ नए कुछ पुराने।सबका मकसद एक ही था लाल सलाम।मीटिंग में कप्तान साहेब अवश्य होते थे दिशा निर्देश देते, पालन और अनुपालन करवाते थे।

रात के ग्यारह बज रहे थे।उस समय अड्डे में तीन थे।जोसेफ अभी-अभी निकला था।युसूफ और हरनाम निकलने वाले थे अपने घर जाने के लिए.सिर्फ उसे अकेले रह जाना था।

अचानक बड़ी जोर की दस्तक और दरवाजा बुरी तरह पीटे जाने की आवाज सुनाई पड़ी। वे समझ गए के पुलिस का छापा पड़ गया है।वे डरे नहीं।वे तीनों अनिश्चित की मुद्रा में खड़े रहे।उन्होंने दरवाजा नहीं खोला।पुलिस दरवाजा तोड़ती उसके पहले ही वह तीनों पीछे के दरवाजे से भागे।दरवाजा मजबूत नहीं था जल्दी ही टूट गया।वे भाग रहे थे और पुलिस उनके पीछे थी।तीनों अलग-अलग गलियों में भागे और उनका पीछा करते एक दो एक पुलिस।उसके पीछे एक नौजवान सिपाही था।वह पकड़ा गया।हरनाम और युसूफ हाथ नहीं आये।

वह उसे जकड़े हुए वापस उसी मकान की तरफ चला।तभी वे इंस्पेक्टर, सिपाही और हवलदार आते दिखाई दिए.वे हरनाम और युसूफ को पकड़ने में असमर्थ रहे थे, कम से कम कोई तो पकड़ा गया, यह जान कर वह प्रसन्न थे और उस नौजवान सिपाही को प्रसंसा भरी निगाहों से देख रहे थे।वे उसके पास ही आ रहे थे।उस सिपाही ने उसकी कलाई इतनी जोर से दबा रखी थी कि उससे चीख निकलने ही वाली थी कि उसका ध्यान अपनी पेंट की जेब में गया।उसने झटके से उसे बाहर निकाला।एक खटके से वह खुली और सिपाही की अंतड़ियों के भेदती चली गयी।वह नौजवान सिपाही गिर और वह अंधाधुंध भाग निकला।

बेतहाशा भागता हुआ वह घर की चौखट पर बेदम था।उसे घर से ज़्यादा सुरक्षित पनाहगाह कोई और नज़र नहीं आई थी।माता पिता सदैव की भाति प्रतीक्षारत थे।उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा।जैसा था जिस हाल में था उसे स्वीकार किया।उसने भी कुछ बताने की ज़रूरत नहीं समझी।उनके लिए यह काफी था जिम्मी वापस आया है।

एक बहुत ही ठंडा आतंक सांप की कुंडली की तरह उसके दिल दिमाग में बैठ गया था।मुश्किल से एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि वह गिरफ्तार हो गया।तब जाकर उन्हें पता चला कि जिम्मी जिग्नेश वापस क्यों आया था? उनके लिए यह स्तब्ध कर देने वाला अहसास था।वे उसे बहुत ही दब्बू कमजोर और पढ़ाकू समझते रहे थे।

पुलिस अभिरक्षा में उस पर सब कुछ कबुलवानें के लिए यातना वह जबर दौर चला कि वह टूट गया।कई जगह से उसके अंग भंग हो गए.उसे देखकर माँ पिताजी बेउम्मीद टूट गए.उन्होंने उसके लिए सब कुछ होम दिया।वकीलों, कोर्ट, कचेहरी और न्यायालय की परिक्रमा करते हुए वे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से तबाह, बर्बाद हो गए.

देवयोग से वह नौजवान सिपाही बच गया।उसे सजा भी कम हो गयी...सिर्फ दस वर्ष की जेल।इन दस सालों में उसके माँ पिता अपने दुःख, गम, वियोग और कोसते हुए अकाल मृत्यु की चपेट में आ गए. उसे माँ बाप के क्रियाक्रम के लिए भी जमानत ना मिली।अंतिम कार्य जीजाजी और दीदी ने संपन्न किये।उसी समय दीदी और जीजाजी ने उसे छूटने के बाद अपने साथ रहने का प्रस्ताव दिया था।जिसे उसने मूक बधिर के तरह अपने में समेट लिया था।

वह हंस रहा था।यह आश्चर्य नहीं था।उसे अपने ऊपर हंसी आ रही थी...-'वह क्या से क्या बन गया है? ...एक जन्मजात विद्रोही आज एक पालतू नौकर में तब्दील हो गया है...नहीं...मै अपनों के बीच हूँ।अब यही सब मेरे है...नौकर तो नहीं परिवार का सहायक हूँ।दीदी और मेरे में एक खून है।दीदी के अलावा और कौन है? अगर कुछ करता हूँ तो दीदी का ही काम होता है ना? जैसे शादी के पहले किया करता था...तो फिर आज क्या? ...तुम भी कमाल करते हो...?' उसकी आँखों में एक घना अभेध्द आश्चर्य घिर जाता है कि वह क्या से क्या सोचने लगा है?

उसके जीजा जी रेलवे इंजीनियर है।कभी कभी रोज आ जाते तो कभी कई दिनों बाद।जब दुसरे शहरों में पोस्टिंग होती तो हफ्ते-हफ्ते के अंतराल पर घर आ पाते थे। ऐसा भी हुआ है महीनों बाद ही कुछ दिनों के लिए आ पायें है।वह उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति में घर के बाहर का सारा कार्य किया करता था।उसने सोचा कि वह माँ बाप को तो कोई सुख नहीं दे पाया कम से कम दीदी को ही उसकी वजह से कुछ सुविधा हो जाये।इसलिए ही वह जेल-प्रवास के बाद यहाँ आकर टिक गया था।

कभी-कभी उसे लगता कि उसका यहाँ रहने-खाने का कोई औचित्य नहीं है।उसे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे जोंक की तरह चिपटा है? उसका मान गौरव है नहीं...वह एक सजा-याफ्ता कैदी है...जमीन जायजाद माँ बाप कब के बिक, लुट गएँ...वह एक बदनुमा दाग है। बाप दादा की विरासत के नाम पर है क्या? ...सिर्फ विभा...दीदी...! दीदी को देखकर पता नहीं क्यों उसे माँ याद आ जाया करती और इस जगह छोड़कर जाने के कई बार उपजी इच्छा को दरकिनार कर दिया करता...क्या वह नकारा है...? काहिल है, आलसी, सुस्त और बेकार है? ...नहीं ऐसा नहीं है...बेरोजगार है? हाँ, निश्चय ही वह बेरोजगार है।बेरोजगार से याद आया...जब वह यहाँ आया-आया ही था तो एक बार दीदी ने उसके लिए जीजा जी से नौकरी के लिए कहा था,

" कौन देगा एक कतली, सजायाफ्ता कैदी को नौकरी? ' वह सहमी किन्तु फिर धीमे से कहा।

"अपने रेलवे में कही इसका भी जुगाड़ करवा दो।अस्थायी ही सही बाद में शायद पक्का हो जाये?"

"नहीं...! मेरी भी नौकरी दांव पर लगाने का इरादा है?"

"फिर कोई धंधा रोजगार?" दीदी उसके लिए कोई ना कोई रास्ता टटोल रही थी।

"हाँ भाई, हाँ क्यों नहीं? इसकी तो कोई इज्जत है नहीं अपनी भी गवां दू।लोग क्या कहेगें?" दीदी डर गयीं।वह बस सिर्फ़ मायूसी से देखती रह गयीं थीं। "फिर साले साहेब कितने दिन टिकेगें कोई भरोसा है? जो व्यक्ति अपने माँ बाप को छोड़ सकता है बेफिजूल की बातों के लिए.उसका मैं तो इत्मिनान नहीं कर सकता" उन्होंने आखरी में ब्रम्हास्त्र का प्रयोग कर दिया।

' अच्छा नहीं लगता जवान जहान लड़का खाली बैठे।" दीदी ने फिर दुस्साहस किया।

' यहाँ क्या दिक्कत है? खाने-पीने रहने-पहनने में कोई कमी है क्या? हमसे कमतर स्थिति में है क्या? कुछ भेदभाव करती हो क्या? मैं तो पिंकी, यश और उसमे कोई फर्क नहीं करता हूँ।करता हूँ तो बताओ? " दीदी निरुत्तर थी परन्तु संतुष्ट नहीं थीं।

उसे सब सुनाई पड़ रहा था।वह जानबूझकर ऊँची आवाज में बोल रहे थे या गुस्से में, अंदाजा लगाना मुश्किल था।उन्हें दीदी की नौकरी की सिफारिश बेतुकी लग रही थी।

वह क्षुब्ध हो उठा।कुछ समझ में नहीं आ रहा था तो वह बाहर निकल गया, निरुद्देश्य।

आज बहुत दिनों के बाद वह आदमकद सीसे के सामने खड़ा है।वह अपने को पेहचान नहीं पा रहा है।क्या यह वही जिग्नेश है, जिसे अपने रूप, बल, यौवन और अपने लाल विचारों का बड़ा घमंड था...बिना स्वाभिमान के वह कैसे जी रहा है? ..."छी: तुम्हे शर्म नहीं आती? ...अपनी तरफ देखो...! बेकार में दुसरे के दर पर अपनी इज्जत की एड़ियाँ घिस-घिस कर अपने को लघु से लघुतर बनाये चले जा रहे हो..." वह अपने को पीये जा रहा था।आवेश में उसका चेहरा विकृत हो गया।

"दोस्त क्या तुमने कभी संजदगी से अपने चेहरे को देखा है? यह अड़तीस साल का युवक है या अधेड़?" बीते वर्षो के अनगिनत क्षणों, अकस्मात जानी अनजानी कठोर वास्तविकताओं और घटनाओं के विचित्र गर्भ से जन्मी है यह काया...क्या वह उस दुनिया को छू पायेगा, जो अरसा पहले छूट गयी थी।पहले का तो जाने कब का मर चुका है?

वह फिर पीछे लौट चला था...ऐसी ही किसी रात यहाँ जब बच्चे सो गएँ थे, वह भी सोने की तरफ उन्मुख था।उसने फुसफुसाहट भरी आवाज सुनी जो निश्चय ही दीदी और जीजाजी के बेडरूम से आ रही थी,

"सुनिए! अपने साले साहेब के विवाह के विषय में सोचा है कभी?" कितनी बार वह दीदी के मुंह से यह बात सुन चुका है और हर बार वह मना करता रहा है परन्तु दीदी अपनी यह रट छोड़ती नहीं है।और हर बार मन नए सिरे से यह सुनने को उत्सुक हो उठता है।लगता है जाने अनजाने यह इच्छा उसके भीतर जागृत हो उठती है।

"क्यों? क्या ज़रूरत है? अभी उनका बोझ नाकाफी है कि उसकी वाइफ और फिर बच्चों की परवरिस, पढाई-लिखाई का खर्चा उठाने की जहमत उठाई जाएँ?" दीदी डर गयी होंगी और शायद बेबसी में अपने नाख़ून कुतर रही होंगी।

"नहीं...मै समझती थी यह ज़्यादा ठीक रहता? अपने घर में जवान विधवा कामवाली आती है और जिम्मी का उससे लगाव देखती हूँ।डर लगता है कि कही उंच नीच हो गया तो, कही मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।" दीदी ने कांपते स्वर में जवाब दिया था।उसे लगा दीदी का यह तर्क है या बहाना।

' ऐसा करो इस काम वाली को निकाल दो और किसी बूढी ठुढी को रख लो।समस्या हल! "

'ऐसी अच्छा काम करने वाली मिलती कहाँ है?' उनकी मनुहार सुनाइ पड़ी।

"पगला गयी हो क्या? बेकार बेतुकी बातें लेकर बैठ जाती हो इस समय? मुझे नींद आ रही है सोने दो!" यह कहकर जीजाजी ने दीदी को दुत्कार दिया।

दीदी एक बार उसके कमरे तक आई और उसे सोया जानकार एक महीन म्लान, स्निग्ध मुस्कराहट जो अफ़सोस से भरी थी डाली और वापस लौट गयी।

यह रात एक अरसे के बाद एक अधमिटी, अधूरी स्मृति के अन्धकार में उसे खीचे लिए जा रही थी...जेल से छूटने के बाद ऐसा लगता था कि किसी अनजान शहर में आ गया है।पिछले जीवन के तमाम अर्थहीन शोर के बीच अहंकारपूर्ण, कृतिम, आत्मकेंद्रित कठिन और अत्याचारी समय में उसकी नैतिक और राजनीतिक मानवीय सरोकारों की प्रतिबध्यता धूलधुसरित हो चुकी थी।उसकी जीवन दृष्टि में अब विनम्र अभिलाषाएँ थी कोई बर्बर मह्त्वकाक्षाएँ नहीं थी।उसके मानसिक अवचेतन में यथार्थ से पलायन नहीं परन्तु जीवन शक्ति ग्रहण करने की जिजीविषा मरी नहीं थी।

अपना शहर कितना अजनबी हो गया था।उसे कोई नहीं पहचानता।न वह किसी को पहचान पा रहा है।पहले अपना घर देखते है।उससे मिलते है।घर ज़रूर अपने को पहचान जायेगा? वह अपने घर पहुँच गया है।अपने घर ने भी उसे नहीं पहचाना।इस बीच घर वाले बदल गए थे।अपनाघर अपना रहा नहीं था।उसके मालिक बदल गए है।एक दबा मोह जाग उठता है।इच्छा होती है यही रुक जाऊ। माँ बाप की आत्मा अभी भी यहाँ होगी।बिन्नू दीदी की गंध रची बसी होगी? किन्तु एक हलकी-सी हिचक उभर आती है और वह उसके तले दब जाता है।मालिक बदल गए है।

उस दिन वह उसकी शर्म हिचक पर दिल की आरजू भारी पड़ जाती है।वह उनसे कुछ दिन घर में रहने को कहता है, वह मान जाते है।परन्तु वह ज़्यादा दिन घर में रुक नहीं पाता है।घर का हर कोना उसे धिक्कारता है।माँ पिता के अतृप्त आत्मा दुखी कराहती होकर सामने आती रहती है। अवसाद, विषाद और कचोटती मन मस्तिष्क से उसका रुकना मुश्किल होता जाता।सब मिलकर उसे वहाँ से खदेड़ते रहते। वह घर में कम रुकता।कानपुर में वह तलाशता था, अपने विखरे लोगों को।जो सिरे से नदारत थे।चमनगंज, नवाबगंज, रेलबजार सब बदल गए थे।सिर्फ नाम बचे थे ना वह वैसे थे ना वहाँ के बाशिंदे।वे तो बिलकुल नहीं थे जिन्हें जेल जाने के पूर्व जानता था।यहाँ पर किसकी प्रतीक्षा में था? कोई नहीं था या कोई नहीं बचा था क्या पता? किसकी वजह से रुका था? सब कुछ अस्पष्ट था। एक दिशाहीन बेतुकी चाहत और अप्रत्याशित कारणों से ओत-पोत वह खोज में था।शहर में बदहवास घुमता रहता।खोजता रहता।

उसका अपने साथ निरंतर संवाद कायम था।वह हताश था अपने ग्रुप के सीमित समय के सीमित उद्देश्यों को लेकर।जब उसे अपने भीतर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होने लगी तो उसे दीदी जीजा का आमंत्रण खीचने लगा।अपनो की आत्मीयता की भूख, उत्कट होकर डंसने लगी। ऐसे में उसे दीदी के पास आना मुफीद लग रहा था।

दीदी के पास उसे भावात्मक अर्थ में संतुष्टि मिलेगी इस बारे में उसे तनिक भी संदेह नहीं था।अपनो से आ गयी दुरियों और परायापन कम हो इसलिए वह दीदी और जीजाजी और बच्चों के पास आ गया था।परन्तु उनके पास साथ रहकर दूरियाँ और परायापन बढ़ता जा रहा था।

वह हताश और निराश था अपनों के काईयाँ स्वार्थों और बेगानापन से। उसके जीवन में अंतर्निहित तनावों, तमाम गहन अर्थ संकतों और अनुभवों को निहायत दुखान्तिक विडम्बनाओं को जन्म दे रही थी।बेहद आक्रामक और निर्मम होते समय में वह अपनी पहचान और वैचारिक स्वाधीनता और सृजनशीलता को बचाए रखने में असमर्थ पा रहा था।समय के जटिल यथार्थ में अन्तर्निहित सच और तनावों में अपने को खोजना नितांत असम्भव होता जा रहा था।

सात दिन बीत चुके थे।जाते हुए न जाने क्यों? उन लोगों ने उसकी तरफ एक बार भी नहीं देखा, जैसे के उसकी कोई अहमियत ही नहीं हो।जैसे उसका यहाँ रहना खुद उसके अस्तित्व से जुड़ा हो।उसे लगा वह सब कुछ खो चुका है।एक लम्बी मुद्दत के बाद यह अहसास घर कर गया कि उसे अपने से कुछ नहीं होगा।उसे अच्छी तरह याद है जब वह रेड ब्रिग्रेड से जुड़ा था तब वह उन्नीस का भी नहीं हुआ था।तेईस में जेल के बाद बाकी दिनों की नॉएडा फ़्लैट की जेल।एकांत की गहरी पीड़ा ही, अस्तित्व की विडम्बना बनक, र निर्थकता के चरम बिंदु पर पहुच कर शून्य होती जा रही थी।आत्मिक स्तर पर घोर रिक्तता, शुन्यता और निर्थकता बोध भर गया था।और अपने प्रति मोह भंग के नौबत पूरी तरह परिलक्षित हो उठी थी।

उसका विद्रोही जीवन कब का समाप्त हो चुका था। उसके मानसिक अवचेतन में यथार्थ से पलायन नहीं था परन्तु जीवन जीने की लालसा नहीं बची थी।और अपने प्रति एकांगी दृष्टिकोण हावी होता जा रहा था। केवल सुखी और आसान जीवन जीना काफी नहीं, सार्थक जीना ज़रूरी है।उसके जीवन में ऊब, कुंठा, संत्रास और टूटन है।उसके जीवन का सामाजिक जीवन बोध का संवेदनशील हिस्सा ध्वस्त हो चुका था, बचा था तो सिर्फ़ भावात्मक लगाव जो दीदी के परिवार से बंधा था।जीवन जीने का विभ्रांत विरक्ति और निर्लिप्त क्षण जिसकी अनुभूति है परन्तु वह किसी परिणित को नहीं देख पा रहा था।

कल सुबह उन सभी को आ जाना है।बहुत सोचता हुआ वह निर्णय नहीं कर पा रहा था...वह एक विद्रोही आज पालतू बन गया है। मुक्ति कि उत्कट प्यास जो सब नैतिक मान्यतायों को तोड़ती हुई इन दीवारों से परे दूर कही समूची धरती और आकाश की असीम व्यापकता में विलीन हो रही थी।इस में कुछ भी असाधारण और विशिष्ट नहीं था।सिर्फ ज़िन्दगी के कुछ टुकड़े शेष है जिन्हें वह अभी तक समेटे है।परन्तु कभी भी कोई क्षण उन्हें भी बुहार कर कोई ले जायेगा।सिर्फ रह जाएगी उसकी निशानियाँ। उसकी आँखे ना जाने किस बिन्दु पर टिकी है।आँखे खुली है या बंद।सही सही यह कह पाना भी कठिन होता जा रहा था...उसका अपना अस्तित्व खो गया था।

सुबह को जब वे फ़्लैट में दाखिल हुए तो उन सभी की निगाहे उस पर टिक गयी।सभी के पांव ठिठक गए. अरे! यह क्या? उसकी आत्मा अन्तरिक्ष में और स्पन्दन्हीन शरीर जमीन में था।वह खामोश था।दीदी चीख के साथ बेहोश थी और बाकि सभी सदमे में।