पलाश वन के घुँघरू / मुक्ता

Gadya Kosh से
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खूँटी पर अंगौछा टाँगते हुए पं भोलाराम मिश्र ने पत्नी से पूछा, “लक्ष्मी, बंसी नहीं आया ?”

हाथों से आंटे की पर्त छुड़ाते हुए लक्ष्मी ने उत्तर दिया, “नहीं, बंसी तो नहीं आया, मजिस्ट्रेट साहब का चपरासी जरूर आया था आपको बुलाने। मैंने कह दिया बीमार हैं, ठीक हो जाने पर जाएंगे। “

“ऐसा क्यों कह दिया, लक्ष्मी, जाना तो पड़ेगा ही। अभी पिछले महीने की फीस भी कहाँ दी है उन्होने ?”भोलाराम ने लाचारी से कहा। 
“देखिये, मैं अब आपको नाचने न दूँगी। डाक्टर ने भी कहा है आंतों में जख्म बढ़ता जा रहा है, कभी भी आँतें फट सकती हैं। आप मानते नहीं हैं, सुबह से लेकर रात तक ट्यूशन करते रहते हैं। आपको कुछ हो गया तो हम लोगों का क्या होगा ?”लक्ष्मी की आँखों में आँसू छलक आये। 
“लक्ष्मी, कुछ दिन और, बस विद्या की शादी हो जाये, फिर घर पर ही बैठूँगा। बंसी का काम अब अच्छा जमता जा रहा है, फिर कोई फिक्र न होगी। बंसी की बहू आकर तुम्हारा चूल्हा - चौका संभाल लेगी, तुम्हें भी आराम हो जायेगा। ”आशा की कई किरणे चमक उठीं भोलाराम के चेहरे पर। हल्की – सी किरणों की परछाई लक्ष्मी की आँखों में भी तैरी लेकिन बुलबुले जैसी ही कोरों में धँस गयीं। 
“हाँ, पहले रामकिशन, फिर शशिकांत और अब बंसीधर – कितने सपने दिखायेंगे आप ?”
“उम्मीद पर तो दुनियाँ टिकी है, लक्ष्मी। रामकिशन और शशिकांत मेरे शिष्य थे लेकिन बंसी तो मेरे फुफेरे भाई का बेटा है, बचपन से इसे पाला है। ‘ कत्थे महाराज ‘ के चरणों में रहकर जो कुछ सीखा था, सब बंसी को सीखा दिया। अब उसी का सहारा है, लक्ष्मी। परसों ही आने वाला था बंसी, अभी तक नहीं आया। “चिंतित स्वर में पं भोलाराम ने कहा। उनका एक हाथ अभी तक कान पर ही था। बचपन की सधी हुई आदत ‘ कत्थे महाराज ‘ का नाम लेते ही दोनों हाथ अपने आप चुंबक की तरह कान पर पहुँच जाते हैं। 
“अब कब तक बंसी को अगोरेंगे। दिन ढलने को आ गया। विद्या भी स्कूल से आती होगी, आकर खाना खा लीजिये। “

थाली के चारों ओर जल छिड़क कर अन्न देवता को प्रणाम करके भोलाराम ने कौर उठाया ही था कि स्कूल से झोला उठाये, नीला कुर्ता और सफेद सलवार पहने दरवाजे से विद्या आती दिखाई दी। “लक्ष्मी, विद्या की भी थाली परोस दो। हम दोनों साथ ही खाएँगे। ”भोलाराम की बात अनसुनी करके लक्ष्मी ने कहा, “उसकी आदत मत बिगाड़िये, वह मेरे साथ खा लेगी। थोड़ा धैर्य सीखे रहेगी तो आगे ससुराल में काम आएगा। “

माँ – बाप की बातों से बेखबर विद्या ने आते ही भोलाराम के गले में बाहें डाल दीं, “मैं तो बाबूजी की थाली में ही खाऊँगी, अम्मा। “

“आ, मेरे बगल में बैठ जा, बिटिया। लक्ष्मी, बिटिया का खाना भी। ”पत्नी के तेवर से भयभीत भोलाराम ने बात बदल दी, “मेरी थाली के बगल में लगा दो। “

लक्ष्मी कुढ़ती हुई दूसरी थाली भी परोस लायी। लक्ष्मी का हाथ पकड़ते हुए अनुनय भरे स्वर में विद्या बोली, “अम्मा, तुम भी अपनी थाली यहीं ले आओ। हम सब लोग साथ ही खाएँगे। “

हमेशा पति को पहले खिलाकर फिर अपनी थाली परोसने वाली लक्ष्मी को यह बात अखर गयी, “सोलहवाँ पूरा करने जा रही है यह लड़की, न जाने कब अक्ल आयेगी। न गाँठ में पैसा, न हाथ में हुनर, ऊपर से शील संकोच भी नहीं, कौन ब्याहेगा इस करमजली को। ऐसी पैदा हुई कि मुझे निपूता ही बना गयी, ऊपर से यह लच्छन। “

“क्यों शाप दे रही हो लक्ष्मी, साल – दो साल में यह बेचारी भी चली जायेगी। फिर तो हमें अकेले ही रहना है। यह भी कौन रोज – रोज आयेगी माँ – बाप के पास। ”लक्ष्मी को भोलाराम ने बीच में ही टोक दिया। 

अम्मा की बड़ी - बड़ी बातें विद्या को नहीं समझ में आतीं। लेकिन ससुराल का डर उसके दिमाग में इतनी गहराई से बैठा है कि अपनी गुड़िया की शादी तो उसने पड़ोस की मुन्नी के गुड्डे से कर दी है लेकिन विदाई की तारीख रोज टाल रही है और मुन्नी ने आज उसे धमकी भी दी है कि अगर उसने गुड़िया की विदाई आज शाम तक न कर दी तो उसका बिरादरी से बहिष्कार कर दिया जायेगा। अपने हमजोलियों की अवहेलना के साथ – साथ उसका आम, इमली और बड़हल में मिलने वाला बराबरी का हिस्सा भी खत्म कर दिया जायेगा।

खाना खाने के बाद अलसाये हुए पं भोलाराम बाँसखटे पर ऊंघ रहे थे। अम्मा ने नजर बचाती विद्या अपनी गुड़िया का बक्सा लिये भोलाराम के पैताने बैठ गयी। “बाबूजी, क्या ब्याह करना जरूरी है ?”भोलाराम ने चौंककर विद्या का प्रश्न सुना। “नहीं – नहीं, बिटिया, ऐसा तो कुछ भी जरूरी नहीं है। ”स्मृति में लक्ष्मी का अनुशासित, खिंचा हुआ चेहरा कौंधा। भोलाराम का मस्तिष्क सतर्क हो गया, “ब्याह करना तो जरूरी है बिटिया, सभी करते हैं। जाओ, खेलो। मुझे सोने दो। ”कहते हुए भोलाराम ने जम्हाई ली।

“नहीं, बाबूजी, पहले बताइये। आप कहते हैं ब्याह जरूरी है तो लड़की ही क्यों जाती है ससुराल ?”

भोलाराम प्रगाढ़ निद्रा में मग्न थे। उनके खर्राटे से पूरा कमरा गूँज रहा था। रसोईघर में बर्तन खनकने की आवाज की आवाज दब गई थी लेकिन झाड़ू से फर्श धोने की ध्वनि स्पष्ट आ रही थी। चारपाई पर चुपचाप मुँह लटकाये विद्या बैठी थी। उसका प्रश्न अधूरा रह गया था।

“उठिए, चाय पी लीजिये, “शाम को चाय का प्याला पकड़ाते हुए लक्ष्मी ने बात बढ़ाई, “मैं जरा मिट्टी का तेल लेने जा रही हूँ, राशन की दुकान पर, आपको कहीं जाना तो नहीं है ?”
“तुम आ जाओ, तभी जाऊँगा। ”भोलाराम ने उत्तर दिया। दरवाजे उढ़काने के स्वर से यह स्पष्ट हो गया कि लक्ष्मी जा चुकी है। उन्होने उठकर किवाड़ की सांकल लगाई और आकर बंसखटे पर लेट गये। बगल की चारपाई पर विद्या बेसुध सो रही थी। उसने गुड़िया को कसकर चिपका रखा था। भोले गहरे साँवले चेहरे पर घुँघराले बालों की लटें बिखरी हुई थीं। उसका प्रश्न अभी भी भोलाराम के दिमाग में गूँज रहा था। “बाबूजी, क्या ब्याह करना जरूरी है ?”क्या जवाब दें भोलाराम, वे खुद भी तो ब्याह नहीं करना चाहते थे। लखनऊ की मशहूर तवायफ चाँद बानो की बेटी गौहर जान का चेहरा उनकी आँखों में घूम गया। गोल चेहरे, कटीली भौहों और सुरमई आँखों वाली गौहर जान। 

दुलहीपुर गाँव से लेकर गौहर जान की हवेली तक, एक लंबा सफर तय किया है भोलाराम मिश्र ने। जीभ की चटखार और रसिकमिजाजी उन्हें गाँव से शहर घसीट ले गयी थी। बाजरे की रोटी और पनीली दाल बचपन से ही उनके गले के नीचे नहीं उतरती थी। गरीब विधवा माँ की औकात इससे ज्यादा की नहीं थी। सारा दिन दूसरों के खेत में कड़ी मजदूरी करके किसी तरह वह बेटे को पाल रही थी। विधवा माँ अपने बेटे के निराले लक्षण देख अक्सर ही अपनी किस्मत को कोसा करती थी। जब गाँव के सारे बच्चे गुल्ली – डंडा खेल रहे होते, भोलाराम किसी मसान जगाने वाले साधू की चिलम भर रहे होते या फिर संकठा रामायणी जी के घर मानस की चौपाई का सस्वर पाठ करते होते। हाँ, कथकों में उनका मन खूब रमता था। लगन ब्याह में अक्सर ही जमावड़ा जमता था। अपने जमाने के बड़े प्रसिद्ध थे ‘ कत्थे महाराज ‘। कई – कई तिहाई वाली घुमावदार परण ऐसे लगते थे जैसे हवा से बातें कर रहे हों और क्या मजाल कि सम चूक जाये। ऐसा भी कहा जाता है कि अपने नाच के बूते पर उन्होने एक पागल हाथी को वश में कर लिया था। बड़ी धाक थी ‘ कत्थे महाराज ‘ की लखनऊ शहर में। रहन – सहन बिल्कुल रईसों जैसा। भोलाराम के बगल के गाँव में किसी जमींदार के लड़के की बारात में न्योते पर आये थे ‘ कत्थे महाराज ‘। पाँच हजार रुपये तो उन्होने केवल बयाने में लिये थे। ‘ कत्थे महाराज ‘ की पारखी नजरें एक कोने में बैठे हर बार ठीक ‘ सम ‘ पर ताली देते बालक भोलाराम पर ठहर गयीं।

“नाच सीखोगे ?”ऐसे प्रश्न की उम्मीद कत्थे महाराज से न थी भोलाराम को। विस्फारित नेत्रों से वह उनके पाँच फुटे कसे बदन को देखता ही रह गया। हाँ या ना – कुछ भी नहीं निकला, केवल गर्दन स्वीकृति में हिला दी। 

माँ की कथरी में घुसे भोलाराम ने बड़ी कुशलता से माँ को फुसलाया, “माई, देख तोहार हाथ कइसन घिस गइल हौs। ई उमिर तोहरे आराम करे का हौs, अउर तू आन के खेते मा खटत हऊS। अब हम तोहें काम न करे देब। “

माँ का सरल हृदय द्रवित हो गया। देवता अनुकूल हैं जो बेटे को ऐसी सद्बुद्धि आयी है, जानकर उसने बेटे का मन टटोला, “ऐ बेटवा, अब तू संभाल लs, तब न हम आराम करींs। बिनेसरी ठाकुर पूछत रहलन तोहके, कल से तू चला जा, गेहूँ कs कटाई चलत हौs। ऐ बार कुछ जोड़ – बटोर के मड़इयो छवाय के हौs। जगह – जगह से मड़इयो चूवत हौs, ई बरखा कइसे कटीs, राम जाने। ”विधवा नें ठंडी साँस भरी।

“माई, तू मड़ई की चिंता मत करs, अब हम शहर जात हई, नौकरी करब, ढ़ेर कs पईसा कमाइब और पक्का घर बनवाइब। “

विधवा माँ चौंकी, “तू शहर जइबा, अपने पुरखन कs गाँव छोड़ केss ?”

“ऐ माई, देखs ई मेहनत – मजूरी तs हमारे बस का ना हौs। एगो सेठ शहर से आइल हऊवन। अब हम उन्हीं के साथ लखनऊ जाइब और हर महिना तोहके पईसा भेजत रहब। “भोलाराम ने झूठा आश्वासन दिया। बेटे की जिद के आगे माँ को झुकना ही पड़ा। विधवा माँ रोते – रोते सो गई और भोलाराम रात भर बड़ के पेड़वाले “बाबा थान “को मनाते रहे कि कहीं ‘ कत्थे महाराज ‘ पलट न जायें। 

तड़के भोर जगने पर माँ ने कलेवे के लिए जौ की रोटी और प्याज की पोटली भोलाराम के हाथ में थमा दी। भोलाराम ने माँ के पैर छूए तो मन अंदर से काँपा। एक हुड़क उठी, माँ से लिपट गये, पोटली हाथ से छूट गयी। तुरन्त ही घुंघुरुओं का सम्मोहन उन्हें खींचने लगा। ठीक छः बजे कत्थे महाराज की रवानगी है, ऐसा सोचकर झटके से पलट कर जो दौड़ना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

दूसरे दिन भोलाराम ने जब ‘ कत्थे महाराज ‘ के साथ उनकी लखनऊ के हजरतगंज मुहल्ले में बनी शानदार हवेली में प्रवेश किया तो अम्मा की स्नेहमयी आँखों ने उनका स्वागत किया, “बड़ा प्यारा बच्चा है। ”सुनकर उनके दोनों गाल लाल हो गये।

हवेली के विशाल फाटक के दाहिने ओर ‘कत्थे महाराज ‘ का रहने वाला कमरा था। इस कमरे के बीच से हवा चलती तो खुली घाटियों की ठंडी बयार का भ्रम होता। कुछ तो इस ठंडी बयार का मोह और कुछ ‘ रहस ‘ वाले कमरे की रहस्यमयता बालक भोलाराम को उसी कमरे के आस – पास मँडराने को बाध्य करती।

एक दिन गुरु – भाई किशनमोहन ने हाथ पकड़कर उन्हें ‘ कत्थे महाराज ‘ की अदालत में खड़ा कर दिया। ‘ सटाक – सटाक ‘ गुलाबो के लचकते बदन ने भोलाराम के गोरे बदन पर अपने लहराते चुम्बन जड़ दिये। रूआँसे भोलाराम को किशनमोहन ने बड़े प्रेम से समझाया, “किस्मतवाले हो जो ‘ सितब्बो ‘ के सितम से बच गये, वह तो बिना लहू पिये नहीं छोड़ती। “अपनी डींग मारते हुए किशनमोहन ने बेंत से बनी गुलब्बो और बबुल की कंटीली टहनी से निर्मित सितब्बो के जन्म की कथा भी बड़े चाव से सुनाई।

गंडा बंध जाने के बाद भोलाराम ने ‘ तालवृंद ‘ के दर्शन किये। अंगरखा, कलंगीदार टोपी और चूड़ीदार पाजामे में सजे ‘ कत्थे महाराज ‘ ने एक – एक वाद्य का विस्तृत विवरण अपने नवीन शिष्य को दिया। ‘ बजरंग पखावज ‘, सुहागिन सारंगी, बड़े तबलों की जोड़ी के बगल में सजी नन्हें ‘ थिरकवा ‘ की जोड़ी और किसी कारण से बहिष्कृत कोने में रखी ‘ अपशकुनी ‘ घुंघुरुओं की जोड़ी से भोलाराम का यह प्रथम परिचय था।

सुबह चार बजे ही नन्हें भोलाराम के छोटे – छोटे पैरों में घुंघुरु बंध जाते तो शाम को चार बजे ही उतरते। दृष्टि और गर्दन को ‘ त्राटक ‘ की मुद्रा में रखे – रखे उसकी आँखों के आँसुओं का खारापन उसके मुँह को भी कसैला कर देता और पसीने में मिलकर फर्श पर आड़ी – तिरछी नाली बना देता। इन नालियों की गिनती में उसे अजीब –सा सुख मिलता और पसीने में भीगा अपना कुर्ता निचोड़कर वह फिर ततकार में मशगूल हो जाता।

‘ कत्थे महाराज ‘ कभी – कभी पुचकारकर एक – दो ‘ बाँट ‘ सिखा देते। रात को माँ की याद आती तो भोलाराम चटाई को मोड़कर सिर घुटनों में छिपाकर देर तक हिचकियाँ लेता रहता।

गुरूभाई किशनमोहन, भोलाराम को ‘ रोबिनहुड ‘ जैसा दुस्साहसी लगता था। न उसे कत्थे महाराज की आर – पार छेद जानेवाली आँखों से डर लगता था, न गुलब्बो और सितब्बो का लरजता खाल के अंदर की कई परतों को उधेड़ने वाला विष ही सहमाता था। घावों पर रेत का मरहम लगाकर, वह अपने प्रिय कामों – जैसे भांग पीसना और ‘ कत्थे महाराज ‘ का हुक्का – भरना – में मस्त हो जाता था। कत्थे महाराज को ताव आ जाता तो दोनों शिष्यों की ‘ जुगलबंदी ‘ करा देते थे। दो घण्टे की ‘ ततकार ‘ में ही किशनमोहन की साँस फूल जाती थी।

एक दिन बातों – बातों में किशनमोहन ने भोलाराम को चाँद बानो की हवेली दिखा दी। किशनमोहन की ‘ नन्हें खरगोश ‘ सी आँखों इतनी दूर की टोह लेती हैं, यह भोलाराम को नहीं मालूम था। वहाँ की शान – शौकत से उस समय वह बेहद घबराए थे, आगे से उस ओर न देखने की कसम भी खायी थी। कत्थे महाराज की चेतावनी को रात भर जपा था, “मन की लगाम छोड़ी तो नटवरी विद्या पैरों के रास्ते खिसक जाएगी। “

कठिन रियाज के बाद भी सालभर में बात ‘ ततकार ‘ से आगे न बढ़ी। कत्थे महाराज का मानना था कि नटवरी विद्या पोर – पोर में बस जानी चाहिए। नर्तक मंच पर उतरे तो आड़ी – कुआड़ी लय में भी पाँव और जमीन का फासला नहीं दिखना चाहिये। नींव का पुख्ता होना जरूरी है।

किशनमोहन कुछ टुकड़े, परण भी सीख गया था, उससे ही कुछ हासिल हो जाए, इस लालच में भोलाराम गुरु – सेवा के पश्चात घण्टे भर गुरु भाई के भी पैर दबाते। किशनमोहन कत्थे महाराज की ‘ रेंगती बैसाखी ‘ विद्या से ऊब चुका था। एक दिन उसने भोलाराम के आगे बम्बई भाग जाने का प्रस्ताव रख दिया। गुरु में साक्षात भगवान की छवि देखने वाले भोलाराम इस अचूक अवसर को खो बैठे। सुबह किशनमोहन को हवेली में न पाकर कोहराम मच गया। भोलाराम वचनबद्ध थे। ‘ सितब्बो ‘ की मार खाकर भी उन्होने मुँह न खोला। शाम को कत्थे महाराज ने उन्हें ‘ रहस ‘ वाले कमरे में बुलाया, “चोट ज्यादा लग गयी है, भोला ? हल्दी –प्याज बाँधा की नहीं ?”

गुरु की डांट सहने की आदि उनकी आँखें इस पुचकार को न सह सकीं। छलक उठे दो आँसू गालों पर ढुलक गये।

“आ, बैठ, पहले जा बजरंग पखावज उठा ला। ”कत्थे महाराज ने बहुत मुलायमियत से कहा। 

भोलाराम लपककर पखावज उठा लाये। उन्होने कत्थे महाराज को तबला बजाते ही देखा था। ‘ पखावज ‘ पर उनकी उँगलियों की थिरकन देखने की ललक बहुत दिनों से थी।

बहुत देर तक कत्थे महाराज ‘ बजरंग पखावज ‘ को गोद में लेकर मौन बैठे रहे। फिर धीरे से बोले, “अपनी बेटी कुजात में चली जाये तो कैसा लगता होगा रे। कहीं किशनमोहन ‘ अमरबेल ‘ न बन बैठे। लगता है मुझसे ही कहीं चूक हो गई। तुझे कोई कष्ट तो नहीं है यहाँ। मुझसे कहने में संकोच हो तो अपनी ‘ अम्मा ‘ से कह देना। उसी के सत से यह हवेली चल रही है। “बड़ी मुश्किल से रोका हुआ वेग बह निकला। भोलाराम फूट – फूटकर रोने लगे। धरती के कंपन से भोलाराम की यह पहली पहचान थी। ‘ बजरंग पखावज ‘ भी आज उन्हें कत्थे महाराज जैसा ही निरीह लग रहा था।

खट – खट। साँकल खटकने की आवाज से भोलाराम की तंद्रा भंग हुई। उठकर किवाड़ खोला।

पड़ोस की मुन्नी थी –

“चाचा जी। विद्या कहाँ है ? सभी सहेलियाँ उसे बुला रही हैं। ”मुन्नी की आवाज सुनकर कुनमुनाती हुई विद्या उठी। “मैं जाऊँ, बाबूजी ?”अपनी गुड़िया का बक्सा समेटती, बिना अनुमति की प्रतीक्षा किये वह सर्र से बाहर निकाल गयी। 

भोलाराम उसकी भागती परछाईं को पकड़ने की कोशिश करते रहे। उन्हें अपना अनुशाशित बचपन याद आने लगा।

किशनमोहन के जाने के बाद कत्थे महाराज बिल्कुल बदल गये। गुरु द्रोण की तरह अपनी सारी विद्या उन्होने भोलाराम की झोली में डाल दी।

कत्थे महाराज उन्हें मंच पर प्रतिष्ठित करने के लिये व्यग्र थे। इसी बीच चाँद बानो ने अपनी बेटी गौहर जान को ‘ कत्थक नृत्य ‘ सीखने के लिये कत्थे महाराज के पास भेजा। चाँद बानो ठुमरी की ‘ कोकिला ‘ कही जाती थीं। न चाहते हुए भी कत्थे महाराज को चाँद बानो का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। कत्थे महाराज ने गंडा तो बांध दिया, लेकिन शिक्षण का भार भोलाराम पर ही पड़ा। गौहर जान ने भोलाराम को एक बार मंच पर नृत्य करते देखा था। आमद और सलामी टुकड़ा करके, हाथों से मुरली का भाव दिखाते तिरछी चितवन से भोलाराम ने जब ‘ सम ‘ की मुद्रा में सामने देखा तो दर्शकों की अगली पंक्ति में बैठी गौहर जान के मुँह से ‘ आह ‘ निकाल गयी थी।

भोलाराम ठुमरी पर भाव सीखा रहे थे – “बता दो कौन, कौन गली गए श्याम। ”बार – बार भाव सिखाने के बाद भी गौहर जान का चेहरा सपाट बना हुआ था। अंदर में कहीं वह भोलाराम को रिझाने की तरकीब सोंच रही थी। भोलाराम झुँझला उठे, “तुम्हारे बस का नहीं है गौहर जान, पहले कृष्ण की भक्ति जगेगी, तभी इस महाभाव को दर्शा सकोगी। ”गौहर ने भोलाराम की तर्जनी पकड़ ली और इठलाते हुए बोली, “तुम्हीं तो मेरे कृष्ण हो। ”भोलाराम चौंककर हाथ छुड़ाते हुए सीढ़ी की ओर बढ़ने लगे। पीछे से गौहर जान की आवाज आयी, “फिर कब आओगे ?”

प्रेम के इस अंकुर को पनपने में देर न लगी। अपने रियाज के लिए भी भोलाराम समय न निकाल पाते।

‘ दिल्ली मंच ‘ प्रातिष्ठित मंच माना जाता था। इस मंच का बुलावा नये कलाकारों के भविष्य के द्वार खोल देता था।

कत्थे महाराज के ‘ अर्जुन ‘ भोलाराम शिव ताण्डव परण, नटवरी स्त्रोत्र परण, गणेश परण और अनेक दुर्लभ भावों जैसे दिव्यास्त्रों से सुसज्जित होने के बावजूद इस मंच का निमंत्रण भी न पा सके और न ही कत्थे महाराज जैसे प्रतिष्ठित नाट्य सम्राट को ही इस मंच के संचालन का न्योता मिला। बाद में सुनने में आया कि ‘ किशनमोहन ‘ के नाच की धूम इस मंच पर थी।

यह फाँस कहीं अंदर तक ‘ कत्थे महाराज ‘ के अंदर गड़ी थी। एक दिन जब भोलाराम गौहर जान की हवेली से वापस लौटे तो देखा कि कत्थे महाराज की साँस उखड़ी हुई थी। वे पसीने से लथपथ थे। पाँच वर्ष के पूरन भैया सहमे हुए अम्मा की गोद में बैठे थे। ‘ कत्थे महाराज ‘ ने एक कातर दृष्टि बेटे पर डाली और आँखें शिष्य पर टिक गयीं।

टकटकी लगी आँखें भोलाराम की आँखों में समा गयीं। सपनों और आशाओं के रेशे एक – एक करके टूटने लगे। निष्प्राण वटवृक्ष के नीचे बिरवों के जंगल में भोलाराम अकेले खड़े थे। राजसिंहासन छिटककर उनके हाथ से दूर जा गिरा था। दुलहीपुर की सोंधी मिट्टी में झूठ का एक बिरवा भोलाराम रोप गये थे। उस बिरवे को विधवा माँ ने बहुत जतन से संभाला, लेकिन उम्र और बीमारी की आँच से वह झुलस गया। माँ की मृत्यु के बाद बिरवे को फिर से पानी देने का साहस भोलाराम न जुटा पाये।

दिल्ली राजधानी होने के साथ – साथ कलाकारों और कला – पारखियों का गढ़ थी। ‘ कत्थे महाराज ‘ की दिल्ली मंच पर स्थापित होने की अधूरी इच्छा को भी वे पूरी करना चाहते थे किन्तु पैसे का अभाव और बड़े शहर की दहशत दोनों ने ही उनके पैर रोक लिये। भोलाराम ने अनिश्चय की स्थिति में लखनऊ छोड़ने का निर्णय लिया। उनका निर्णय सुनकर गौहर स्तब्ध रह गयी।

“मेरी भक्ति से तुम संतुष्ट नहीं हो ? मैं जिस कुल में जन्मी हूँ, वहाँ स्त्रियॉं को विवाह का अधिकार नहीं होता। लेकिन तुम इस शहर में रहोगे तो मुझे संतोष रहेगा। तुम्हें देख तो सकूँगी। ”गम्भीर स्वर में गौहर ने कहा। चंचल मुग्धा नायिका गौहर के अंदर एक गम्भीर, आभिजात्य स्त्री जन्म ले चुकी थी। भोलाराम के रंग में रंगकर वह कृष्ण की मीरा बन चुकी थी। भोलाराम दुविधा में पड़ गये। उन्होने गौहर जान को समझाने की चेष्टा की, “कहीं भी रहूँ, मैं तुमसे मिलता रहूँगा। ”अपने जन्मजात संस्कारों से बंधे भोलाराम गौहर जान को विवाह का झूठा आश्वासन न दे सके। आज भी उन्हें अपनी ईमानदारी पर गर्व है। 

गौहर जान को एक नजर देख पाने की उनकी इच्छा हमेशा बनी रही। विरासत में एक सुदृढ़ नींव होते हुए भी पुल की तलाश में कई शहरों में भटकते रहे। एक – दो बार मंच पर कार्यक्रम देने का भी अवसर मिला, परंपरागत शास्त्रीय पद्धति आज के ‘ फिल्मी रसिकों ‘ के गले न उतर पाती। अपने स्तर को जब – जब हल्का करना चाहा, ‘ कत्थे महाराज ‘ के दिये हुए संस्कार उन पर हावी हो गये। ठुमरी और भजन की जगह चालू गजलों पर सस्ते भाव दर्शाने को भोलाराम राजी न हुए और जल्दी ही मंच के दरवाजे उनके लिये बंद हो गये। छोटे – छोटे ट्यूशन करके वह अपनी जीविका खेने लगे। मंच और तालियों की गड़गड़ाहट की जगह उनके हिस्से में आयी एक टूटी साइकिल और पीतल और अल्युमीनियम के कुछ बर्तन।

आज इस बात को कई वर्ष हो गये हैं। अपनी हठधर्मिता का उन्हें कोई दुख नहीं है, अपने अंदर के कलाकार को उन्होने जीवित रखा है। सस्ते बाजारी मूल्यों और ताली की नुमाइशी गड़गड़ाहट के आगे उन्होने खुद को बेचा तो नहीं है। लेकिन उन्हें उम्मीद है कि एक दिन कोई युगपुरुष जन्मेगा और इसी उम्मीद पर उनकी कोशिश जारी है। वह अपनी शिष्य - परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। ‘ कत्थे महाराज ‘ की टकटकी बँधी आँखें उनका पीछा कर रही हैं। एक ‘ अभिमन्यु ‘ तो उन्हें तैयार करना ही है।

शुरू से ही लक्ष्मी के ताने उन्हें विपन्नता का बोध करने का प्रयत्न करते रहे हैं। लेकिन उनके अंदर का ‘ जागरूक कलाकार ‘ पानीली दाल से समझौता करके भी ‘ विपन्नता – बोध ‘ से अछूता है। हाँ, जब से डाक्टरों ने उन्हें अल्सर का मरीज घोषित कर दिया था, ‘ जवान बेटी का बाप ‘ होने की लाचारी उन्हें महसूस होने लगी थी और पैसे के महत्व को न चाहते हुए भी उन्हें स्वीकार करना पड़ रहा है। विद्या का चेहरा उन्हें वर्तमान में घसीट लाया। उन्हें प्यास लगी थी। चारपाई से उठकर भोलाराम पानी लेने सुराही की ओर मुड़े।

“पाय लागी काका। ई अन्धेरिया में काहे बैठल हईs ? काकी कहाँ हइनs ?”टूटे दरवाजे को कील में अंटकाते हुए बंसी ने प्रश्न किया। 

पानी का गिलास खाली करके भोलाराम ने बंसी को आशीर्वाद दिया, “जीयs बंसीs, सबेरे से जोहत रहलीं, कहाँ रहलs ?”

सहसा उनका ध्यान गहराते अंधेरे की ओर गया। कमरे और बरामदे की बत्ती जलाकर उन्होने चिंतित स्वर में पुनः प्रश्न किया, “कुछ काम बनल कि नाहीं ?”

“मुँह मिठा करावs, कक्का। ठाकुर रणविजय के बेटवा कs तिलक हौs। तोहें प्रोग्राम देवे के हौs। अगली सोम के तारीख हौs। ई लेईs बयाना। अढ़ाई सौ बयाना हौs, अढ़ाई सौ प्रोग्राम के बाद तय भइल हौs। ”रुपया बढ़ते हुए, बंसी ने उत्तर दिया। 
“बंसी, प्रोग्राम कहाँ देबे के हौs ? ई लs सौ रुपया, सारंगी मास्टर के एडवांस दे दिहेs। “
“दुलहीपुर में प्रोग्राम हौ कक्का, एही बदे हम अउर ले लिहलीं ई प्रोग्राम। देखs, काकी आय गयलिन। राम – राम काकी। ”बंसी ने चहककर कहा। 
“राम – राम “, लक्ष्मी ने रुखाई से कहा और विद्या को घसीटते हुई भोलाराम के पास ले आयी। 
“तs हम चलीं, कक्का। सारंगी मास्टर जाने कहाँ होईहैं, उनहुं से कहे के हौs। “उठते हुए बंसी ने कहा। 
“ठीक हौ, जा। लेकिन चाय त पियले जाss। “
“मन नाहीं हौ कक्का, आके पियब। “

बंसी के जाते ही लक्ष्मी बिफर पड़ी, “सबेरे से रात तक मैं ही खटूँ, यह लड़की क्या एक वक्त का खाना भी नहीं बना सकती। बाजार से लौटी तो देखा गुप्ता जी के बरामदे में बैठी सहेलियों के साथ खेल रही है। आपके दुलार ने इसे बिगाड़ दिया है। “

भोलाराम ने मुस्कुराकर विद्या से पूछा, “क्यों बिटिया, तुम्हारी गुड़िया ससुराल चली गई ?”

“हाँ, बाबू जी। ”विद्या शर्माकर रसोई में चली गयी। 

भोलाराम जी का मन ‘ दुलहीपुर ‘ के खेतों में भटकने लगा। एक ओर बैठे – बैठे पीठ में दर्द होने लगा था, कोहनी टेककर भोलाराम ने पैर फैला दिये। पैर के नीचे कोई चीज गड़ी तो देखा कागज में लिपटे कुरमुरे चने थे, विद्या छोड़ गयी थी। चने से उचटकर दृष्टि मुड़े – तुड़े कागज के बड़े स्याह अक्षरों पर चली गयी, “लखनऊ घराने के प्रसिद्ध नर्तक स्वर्गीय कत्थे महाराज के शिष्य, किशनमोहन महाराज, ‘ पद्मश्री ‘ से सम्मानित। “मन में उमंग और निराशा एक साथ कौंधी। हड़बड़ी में चारपाई से उठकर रसोई की ओर चल दिये, “देखो लक्ष्मी, किशन, मेरे यार को पद्मश्री मिली है। मैं जाऊँगा बम्बई उसे बधाई देने। देखो, शायद मेरे भी भाग्य फिर जाएँ। “

“विद्या की बरिक्षा रुकी पड़ी है, लड़के वाले जल्दी मचा रहे हैं। गाँठ में एक पैसा भी नहीं है। कमजोरी इतनी है कि चलते हैं तो सारा शरीर काँपने लगता है और आप बम्बई जाएंगे। किशनमोहन ने ही आपकी कौन –सी खबर ली। पाँच – पाँच चिट्ठी तो डाली आपने, कोई उत्तर आया क्या ? “लक्ष्मी का गला भर आया, “ये लो, थोड़ा मट्ठा पी लो और जाकर बाहर घूम आओ। ठंडी बयार लगेगी तो मन हल्का हो जाएगा। “
“पता ही गलत रहा होगा, लक्ष्मी, किशनमोहन तो ऐसा नहीं था। ”कहते हुए मट्ठे का गिलास थामे भोलाराम ने खुद को निराशा के पंजों से मुक्त कर लिया और दुलहीपुर की अमराई में अपने मन को स्वतंत्र छोड़ दिया। 

सोमवार के दिन उबले आटे की रोटी और लौकी की सब्जी की पोटली भोलाराम जी के हाथ में पकड़ाते हुए लक्ष्मी की आँखें छलक पड़ीं। “जा तो रहे है आप, लेकिन नाचिएगा मत। बंसी को खड़ा करके आप तबला संभाल लीजिएगा। मैं भी चार अक्षर पढ़ी होती तो.... बंसी, खयाल रखना, तिलक का मामला है, कुछ ऊटपटाँग न खा लें ये। “

“चिंता मत करs काकी, हम त हई नs। ”कहते हुए बंसी ने आगे बढ़कर तबले का झोला थाम लिया। 
“बिटिया, माँ का खयाल रखना। ”विद्या के गालों को थपथपाते, भोलाराम आगे बढ़ गये। 

राबर्ट्सगंज जाने वाली बस से उतरकर पीपल के पेड़ के नीचे कुछ देर भोलाराम सुस्ताने बैठे तो एक इक्का तेजी से आकर उनके सामने रुका, “भोला भैया, लखनऊवाले हई का, बाबू साहब पठवले हईs आपे बदे। चलल जाय। “

आत्मीयता की फुहार से भोलाराम की थकान मिट गयी, टांड़ पकड़कर फुर्ती से इक्के पर जा बैठे, “कौने गाँव के हऊवs, भईया ? इक्केवान से उन्होने पूछा।

“भोला भईया, चीन्हत न हऊवs हमके। हम भगौती पासी केs बेटवा हइs, लालमन। “भगौती, राम अवतार, कलुआ और सुक्खी – सभी भोलाराम के बचपन की ‘ बाल चौकड़ी ‘ के सदस्य। लेकिन जब उनका मन कथकों और मसान जगाने वालों में रमने लगा तो भगौती पासी ने अपना गुट अलग कर लिया था। कछुवे की तरह भोलाराम फिर अपने खोल में घुस गये, मौन। 

कुछ देर केवल घोड़े की टापों की आवाज गूँजती रही। चिंतित स्वर में बंसी ने कहा, “कक्का, सारंगी मास्टर त चले के नाहीं राजी भइलन। अब लहरा के देई ?”

“देखल जाईs “कहकर भोलाराम ने टाल दिया। सहसा लाल बड़े – बड़े फूलों का वन देखकर उन्होने अपनी याददाश्त कुरेदी। याद न आने पर प्रश्न किया, “बंसी, ईs कौन फूल हौs, जौन बंजर धरती मा अंगारे जईसन दहकत हौs ?”
“पलाश हौs कक्का, धरती बंजर नाहीं हौs, देखाs ऊs पक्कल गेहूँ कs बाली। कटाई के मौसम बा नs, एही से माटी ऊसर जईसन लगत हौs। “
“बंसी, अगर पलाश के तने में घुंघुरू बाँध दिहल जाय तs ईs लाल परी जईसन लगी नs “– अपनी ही कल्पना पर मुस्कुराये भोलाराम। पलाश के फूल उन्हें गौहर के मुखड़े की तरह ही सम्मोहित कर रहे थे। काँपते चुम्बन के बीच दिया हुआ आश्वासन उन्हें आज याद आ गया। 
“मैं कहीं भी रहूँ, तुमसे मिलता रहूँगा। “रोज अभी भी गौहर की आँखें सड़क पर बिछ जाती होंगी। नृत्य और संगीत के बीच पनपे प्रेम के उन्मादक क्षण आँखों के आगे तैरने लगे। बोल परण पर अभिसारिका नायिका का भाव गौहर की चाल और भंगिमा से मुखरित हो रहा था – “कारी – कारी – कारी अँधियारी थी रात, एक नार.... एक नार करके शृंगार चली उस पार, जहाँ थे कृष्ण मुरार। छमक – छुम – छुम.... छमक – छुम – छुम.... छमक – छुम – छुम। “

गौहर थिरक रही थी, अंग – अंग मचल रहा था। उसने लय बढ़ाकर चाल तेज की और तिहाई लगाकर घूँघट का भाव दिखाती हुई कुछ इस अदा से सम पर खड़ी हुई कि भोलाराम को लगा, नृत्यकला ‘ प्राणवान ‘ हो उठी है। वे मंत्रमुग्ध – से उठे और उन्होने गौहर को बाहों में समेट लिया।

प्रथम प्रेम की कसक ‘ कत्थे महाराज ‘ की आँखों की तरह ही भोलाराम के जीवन का एक अंग बन गयी है। गौहर की याद आते ही भोलाराम को अपनी बरसों पहले छोड़ी हुई ‘ मड़ई ‘ को देखने की इच्छा तीव्र हो उठी।

“लालमन, पहिले हमैं हमरे दुआरे का दरसन करा दs बच्चा, तब कहीं अऊर चलs। ”बड़ी देर से रोकी हुई बात भोलाराम के मुँह से निकाल गयी। 
“पहिले कुछ खा – पी लs, कक्का, तब निश्चिंत होकेs घूमिहs। ”बंसी के पेट की भूख बोल रही थी। 

ठाकुर रणविजय सिंह के चबूतरे पर पहुँचते ही गाँव वालों ने भोलाराम को घेर लिया। एक वृद्धा आगे बढ़ी, “तोहार नार हमही कटले हईs बेटवा, कईसन निर्मोही निकललाs तू। तोहार माई छटपताय के प्राण दे देहलींs, अब अईलाs हयs तू। ”उस वृद्धा का उलाहना भोलाराम न सह सके, माथा पकड़कर बरामदे में पड़ी आरामकुर्सी पर बैठ गये। एक व्यक्ति ने आगे बढ़कर बुढ़िया को परे ढ़केल दिया। खींसे निपोरते हुए भोलाराम के करीब बैठ गया, “भोला भईया, हमार नाम रामभरोसे है। हम भी ढोलक बजाते हैं, हारमोनियम भी थोड़ा – थोड़ा आता है। फिल्मी गाना भी गाते हैं। ठाकुर साहब के यहाँ अक्सर हमारा प्रोग्राम होता है। हमें भी ले चलिये न अपने साथ शहर। “भोलाराम की गीली पलकों ने उस व्यक्ति की गरम आशाओं को छुआ और एक फीकी मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी। चैतन्य मन से उन्होने साथ लायी पोटली एक ओर खिसकायी और सामने तश्तरी में परोसे गये लड्डुओं का भोग लगाने लगे। लोटा भर राब का रस पीने के बाद बंसी अलसाने लगा।

शाम को आम के पेड़ के नीचे पंडाल में चार – पाँच पेट्रोमैक्स का भी प्रबंध था। अंधेरा गहराते – गहराते ही पंडाल लोगों की भीड़ से भर गया।

तिलक की परम्परागत रस्म – अदायगी के बाद भांग का कार्यक्रम हुआ। भोलाराम ने भी जमकर बूटी छानी। पंगत में पूड़ी और खीर का रस लेने के बाद दुबारा भांग और चिलम का सम्मिलित आयोजन हुआ। ठाकुर साहब के विशेष बैठके में विदेशी शराब का दौर चल रहा था। बंसी वहाँ भी मुँह मार आया था। अच्छी तरह छककर सभी लोग पूर्ण रसिक भाव से घुँघरू की थिरकन का आनंद लेने के इच्छुक हो उठे।

इसी बीच भोलाराम दोबारा बूटी का एक गिलास जमा आये। रामभरोसे ने हारमोनियम पर लहरे का कम संभाला। भोलाराम तबले पर ताल देने लगे। बंसी जल्दी ही उखड़ गया।

ठाकुर साहब के समधी ने फिकरा कसा, “उर्वशी के बिना कैसी इंद्रसभा ?”ठाकुर साहब ने प्रतिवाद किया, “हमारे भोलाराम भी कम नहीं हैं। कत्थे महाराज के चेले हैं। “

“कुछ गुर दिखाएँ तब न हम जानें। “

ठाकुर साहब के समधी की बात सुनकर भोलाराम को ताव आ गया। “घुँघरू हमके दs बंसी, तू तबला संभालs। ”कहकर भोलाराम ने एक हजारी घुंघरुओं की जोड़ी पैरों में बाँध ली। दोनों कानों पर हाथ लगाते ही कत्थे महाराज भोलाराम के अन्दर अवतरित हो गये। ठाठ की मुद्रा में खड़े हुए तो उन्हें लगा ‘ दिल्ली मंच ‘ में सजी सैकड़ों रोशनियों उनके अन्दर उतरती जा रही हैं। देखते – ही देखते उनके पैर हवा से बातें करने लगे। बंसी की दोनों हथेलियाँ पसीने से पसीजती जा रही थीं। तभी कड़ककर भोलाराम बोल उठे, “बन्द करो यह बेसुरा लहरा। ”रामभरोसे डरकर हारमोनियम छोड़कर एक कोने में जा बैठा। बंसी ने धीरे से कहा, “कक्का, आपके पेट कs घाव कहीं फट न जाएँ। “भोलाराम ने बात अनसुनी कराते हुए कहा, “उठावs बंसी, आड़ा – चौताला। “

पलाश वन की सारी आँच भोलाराम के अंगों में समाती जा रही थी। एक – एक अंग ऐसे थिरक रहा था, मानों ‘ सती का शव ‘ थामे साक्षात शिव ताण्डव कर रहे हों। भोलाराम के चारों ओर फुटकर पैसों और तुड़े – मुड़े कागजों के नोट का ढेर लगता जा रहा था। घुँघरू की एकरसता और भांग का नशा जोर मारने लगा था। लोगों ने ऊँघना शुरू कर दिया था। ‘वाह ‘, ‘ क्या बात है !‘, ‘ जरा कस के भोला भईया ‘ का स्वर अब धीमा पड़ता जा रहा था। मंच के चालू हथकंडों से अनभिज्ञ भोलाराम विशुद्ध शास्त्रीय पद्धति से फिल्मी रसिकों को मोहना चाहते थे। ज्यों – ज्यों वह भावों में गहराई पैदा करते, दर्शकों पर नींद उतनी ही हावी होती जा रही थी। रसिक – शिरोमणि, ठाकुर साहब के समधी के खर्राटे से पंडाल गूँजने लगा था। ठाकुर साहब सहित सभी सम्मानित अतिथिगण नशे में धुत्त हो चुके थे। पीछे का पंडाल तो पहले ही खाली हो चुका था। भोलाराम ने अपना अचूक दिव्यास्त्र गणेश परण छोड़ा। सत्ताइस घुमावदार चक्करों के बाद जैसे ही सम पर आने के लिये उन्होने हाथ उठाया, खून का बुलबुला छूटा और वह चकराकर जमीन पर गिर पड़े।

बंसी तबला छोड़कर लपका, भोलाराम के सिर को उसने तबले की गड़ेरी से सहारा दिया। “पाss नी.... “असपष्ट स्वर भोलाराम के मुँह से निकला। रामभरोसे पानी लेने दौड़ा। बंसी ने भोलाराम का सिर सीधा करके अपनी गोद में रख लिया।

भोलाराम की आँखों में मड़ई घूम रही थी। मड़ई जिसमें उनकी माँ की आत्मा बसी थी। फर्लांग भर दूर रहते हुए भी वे जिसके दर्शनों से वंचित रह गये थे। उन्होने कोहनी टेककर उठने का प्रयत्न किया, तो जोरों से खून का फव्वारा छूटा और उनकी आँखें आकाश से जा लगीं।

बंसी ने धीरे – से भोलाराम का निर्जीव शरीर अपनी गोद से अलग किया। पास में पड़े रुपये – पैसे का ढेर बटोरा। एक चौकन्नी दृष्टि आसपास डाली और आश्वस्त होकर पंडाल से बाहर निकल गया।