पवित्र नगर / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी
(अनुवाद :सुकेश साहनी)
मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नगर के सब निवासियों के केवल एक हाथ और एक आँख थी। मैंने मन ही मन में कहा, 'पवित्र नगर के नागरिक...एक हाथ और एक आँख वाले?'
मैंने देखा, वे भी आश्चर्य में डूबे हुए थे और मेरे दो हाथ, दो आँखों को किसी अजूबे की तरह देखे जा रहे थे। जब वे मेरे बारे में आपस में बातचीत कर रहे थे तो मैंने पूछा, "क्या यह वही पवित्र नगर है जहाँ के निवासी धर्म ग्रन्थों का अक्षरशः पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं?"
उन्होंने कहा, "हाँ, यह वही शहर है।"
मैंने पूछा, "तुम लोगों की यह दशा कैसे हुई? तुम लोगों के दाहिने हाथ और दाहिनी आँख को क्या हुआ?"
वे सब एक दिशा में बढ़ते हुए बोले, "आओ...खुद ही देख लो।"
वे मुझे नगर के बीचों-बीच स्थित मंदिर में ले गए, जहाँ हाथों और आँखों का ढेर लगा हुआ था। वे कटे हुए अंग निस्तेज और सूखे हुए थे।
मैंने कहा, "किस निर्दय ने तुम लेागों के साथ ऐसा सलूक किया है?"
सुनकर वे सब आपस में फुसफुसाने लगे और उनमें से एक बूढ़े आदमी ने आगे बढ़कर कहा, "यह हमने खुद ही किया है। ईश्वर के आदेश पर ही हमने अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पाई है।"
वह मुझे एक ऊँचे स्थान पर ले गया। बाकी लोग भी पीछे हो लिए. वहाँ एक शिलालेख गड़ा हुआ था, मैंने पढ़ा-
"अगर तुम्हारी दाहिनी आॅंख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको, क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए. यदि तुम्हारा दाहिनी हाथ अपराध करे तो उसे तत्काल काट फेंको क्योंकि इससे पूरा शरीर तो नरक में नहीं जाएगा।"
मैं सब कुछ समझ गया। मैंने उनसे पूछा, "क्या तुम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं जिसके दो हाथ और दो आंखें हों?"
वे बोले, "कोई नहीं। केवल कुछ बच्चे हैं जो अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ नहीं सकते हैं।"
जब हम उस मंदिर से बाहर आए तो मैं तुरन्त ही उस पवित्र नगर से निकल भागा क्योंकि मैं कोई बच्चा नहीं था और उस शिलालेख को अच्छी तरह पढ़ सकता था।