पश्चाताप / सुदर्शन रत्नाकर
जब से नीरा को फ़ोन आया है कि उसे यहाँ कुछ काम है और वह बच्चों को साथ लेकर कुछ दिनों के लिए आ रही है। उसकी आँखों की नींद उड़ गई है। नीरजा उसकी बचपन की सहेली कुमुद की बहू है। उसे मना भी नहीं कर सकती लेकिन घर में अकेले रहते-रहते घर में भीड़ भरे वातावरण में रहना उसे अच्छा नहीं लगेगा। उसकी दिनचर्या चरमरा जायेगी। ऐसा भी नहीं भाई-बहन कभी-कभी उसके पास रहने आते हैं पर उनकी बात और होती है।
उसने स्वयं को इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया था। निश्चित दिन नीरजा अपने तीन बच्चों के साथ। वहाँ पहुँच गई। उसने उनका खुले दिल से उनका स्वागत किया जबकि मन में डर बैठा हुआ था।
नीरजा की दोनों लड़कियाँ जुड़वा थी और उनकी दोनों की शक्ल हुबहू मिलती थी। उन्हें लेकर वह कई बार कन्फयूज हो जाती। पर वह दोनों ठहरी हुई थीं जबकि छोटा लड़का उनसे विपरीत था। वह दिन भर शरारतें करता। इधर से उधर भागता। बहनें बड़ी थी फिर भी उन्हें तंग करता। खाना खिलाने के लिए नीरजा उसके पीछे-पीछे चलती तब जाकर वह खाना खाता।
बच्चे दिन भर चहकते रहते। खेलते, लड़ाई करते, रूठते-मनाते और फिर थक कर सो जाते। नीरजा की दिनचर्या ही बदल गई। नीरजा का काम समाप्त हो गया था उसने उसे सूचित कर दिया था कि वह एक दिन और रह कर लौट जायेगी। उसने चैन की साँस ली।
नीरजा बच्चों को साथ लेकर वापस चली गई। उसने वह दिन घर को समेटने में लगा दिया पर साँझ होते ही उसे लगा कोई काम ही नहीं। घर के हर कोने से। बच्चों के चहकने, भागने शोर करने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वह उदास हो गई। गृहस्थी, घर परिवार बच्चों का सुख क्या होता है उसने चंद दिनों के संग में ही जान लिया था। ढलती साँझ की तरह उसकी उम्र भी ढल रही थी। उसे पहली बार अपने विवाह न करने और अकेले रहने के निर्णय पर अफ़सोस हो रहा था।