पश्चात के आंसू / दीनदयाल शर्मा
रोजाना की भांति आज भी पप्पू और कालू दोनों भाई अपने गुरुजी के घर गए। गुरुजी सामने वाले कमरे में कुर्सी पर बैठे एक किताब पढ़ रहे थे।
'नमस्कार गुरुजी।' वे दोनों एक साथ बोले।
'नमस्कार... नमस्कार... आ गये दोनों भाई ... आओ बैठो।' गुरुजी ने चारपाई की ओर इशारा करते हुए कहा। दोनों भाई बैठ गए।
'गुरुजी, पढऩे के लिए कोई कहानी की किताब दे दो जी।' पप्पू बोला।
'कहानी की किताब भी देंगे। पहले यह बताओ कि चाय पीने की इच्छा है क्या ?' गुरुजी ने पूछा।
'नहीं जी, चाय तो अभी पीकर आये हैं गुरुजी।' पप्पू बोला।
'क्यों कालू, चाय पीकर आये हो ?' गुरुजी ने पूछा।
'हां जी।' कालू ने हामी भरी।
'अरे भई, पीकर आये हो तो क्या है, थोड़ी सी ओर पी लेना। चाय का क्या है, ये तो सारा दिन चलती ही रहती है।' गुरुजी ने कुर्सी से खड़े होते हुए कहा।
'नहीं गुरुजी, हम चाय नहीं पीयेंगे जी।' पप्पू ने कहा।
'कोई बात नहीं, तू मत पीना, कालू पी लेगा। क्यों कालू ?' गुरुजी ने प्यार से पूछा।
'हां जी।' कालू ने पप्पू की ओर देखते हुए हामी भर दी।
'गुरु जी, मेरे लिए मत बनाना जी।' पप्पू ने गंभीरता से कहा।
कालू बोला, 'गुरुजी, जब चाय बन जाएगी, तब यह पी लेगा जी।'
'अच्छा, तो मेरे लिए आधा कप ही बनाना जी।' पप्पू ने नजरें झुकाते हुए कहा।
'अब बनी है बात।' गुरुजी चुटकी बजाते हुए बोले। फिर अलमारी में से दो छोटी-छोटी किताबें निकाल कर पप्पू को देते हुए बोले, 'ऐसा है दोनों भाई एक-एक किताब पढ़ लेना। तब तक मैं चाय बना लाता हूं।' इतना कहकर गुरुजी रसोई में चल गए।
'ये ले कालू, एक किताब तू ले ले।' पप्पू ने कहा।
'नहीं, मुझे तो नहीं पढऩी।' कालू बोला।
'गुरुजी को कहूं क्या?'
'कह दे, नहीं पढ़ता जा।'
पप्पू ने एक किताब गुरुजी की मेज पर रख दी और दूसरी किताब को पढऩे में खो गया। कालू काफी देर तक कमरे में लगी बच्चों की तस्वीरों को देखता रहा। फिर वह मेज पर पड़े रेडियो को छेडऩे गा।
'रेडियो क्यों छेड़ता है, गुरुजी को कहूं क्या ?'
'ये ले नहीं छेड़ता, बस।'
अचानक कालू की नजर मेज पर रखे एक रुपए के सिक्के पर पड़ी तो उसका मन ललचाया। उसने सोचा, गुरुजी तो रसोई में चाय बना रहे हैं और पप्पू किताब पढ़ रहा है। दोनों को पता ही नहीं चलेगा। उसने एक बार तसल्ली के लिए इधर-उधर देखा। वह मन ही मन खुश हो रहा था। उसने धीरे से एक रुपए का वह सिक्का उठा कर ज्योंही जेब में डाला, गुरुजी कमरे में चाय लेकर आ गए। उन्होंने कालू को खड़े देखा तो बोले, 'क्यों कालू, क्या कर रहा है खड़ा-खड़ा ?'
'कुछ नहीं गुरुजी।'
'गुरुजी, आप चाय बना रहे थे तब इसने कहानी वाली किताब तो पढ़ी नहीं, यह रेडियो छेड़ रहा था जी।'
'अच्छा ये बात है। क्यों कालू, रेडियो छेड़ा था तूने ?'
'नहीं गुरुजी, मैंने तो थोड़ा-सा हाथ लगाया था।'
'कहानी वाली किताब नहीं पढ़ी ?'
'कहानी की किताबें अच्छी नहीं लगती गुरुजी।'
'ये किताबें भी पढऩी चाहिए भई, खाली कोर्स की किताब पढऩे से ही कुछ नहीं होता। पप्पू को हसी देख, पहली से चौथी कक्षा तक स्कूल में हमेशा फस्र्ट आया है। यह कोर्स की किताबें भी पढ़ता है और कहानियों की भी।'
'फस्र्ट तो मैं भी आता हूं गुरुजी। इस बार तीसरी कक्षा में भी मैं फस्र्ट आऊंगा जी।'
'अच्छा, तू अभी नहीं समझेगा। चल बैठ। चाय ठंडी हो रही है। चाय पी ले पप्पू।' चाय का कप पप्पू की तरफ रखते हुए गुरुजी ने कहा।
'थोड़ी ठंडी होने दो गुरुजी।' पप्पू किताब पढ़ते हुए बोला।
कुछ देर बाद तीनों जने चाय पीने लगे। चाय पीते पीते गुरुजी की नजर मेज पर पड़ी तो उन्होंने देखा कि थोड़ी देर पहले जो एक रुपए का सिक्का वहां रखा था, वह गायब है। उन्होंने सोचा कि जब मैं कमरे में चाय ला रहा था, तब कालू मेज के पास खड़ा था और उसने अपना हाथ जेब की तरफ भी किया था। पप्पू तो उस वक्त किताब पढ़ रहा था, हो न हो यह सिक्का कालू ने ही उठाया है क्योंकि इस बीच कमरे में और कोई नहीं आया था।
'मैंने तो चाय पी ली गुरुजी।' कालू ने खाली कप स्टूल पर रखे हुए कहा।
'अरे। इतनी जल्दी पी गया। चाय तो काफी गर्म थी। गुरुजी ने कहा और धीरे-धीरे चाय की चुस्कियां लेने लगे। पप्पू किताब पढ़ते-पढ़ते ही चाय पी रहा था।
'मुझे काम है गुरुजी, मैं घर जाऊंगा।' कहते हुए कालू जाने लगा।
'अरे। अभी आया और अभी चल दिया। इतनी क्या जल्दी है कालू।' कह कर गुरुजी ने प्यार से कालू का हाथ पकड़ लिया।
'मेरा हाथ छोड़ दो गुरुजी, मैं बाद में आ जाऊंगा।' कालू ने हाथ छुड़ाते हुए कहा।
'बैठ जा बेटे, अच्छे बच्चे जिद नहीं करते।' गुरुजी ने प्यार से कहा। तो कालू बैठ गया।
'कालू, यह शर्ट किससे बनवाई थी बेटे?'
'एक दर्जी से बनवाई थी गुरुजी।'
'अच्छा। दर्जी से बनवाई थी। मैं तो सोच रहा था कि किसी नाई से बनवाई होगी।' गुरुजी हंसतेा हुए बोले। गुरुजी की बात सुनकर कालू और पप्पू दोनों हंस पड़े।
'अरे। इसकी जेब तो बहुत बड़ी बनाई है।' गुरुजी ने कालू की जेब के हाथ लगाते हुए कहा। उन्होंने महसूस किया कि एक रुपए का वह सिक्का कालू की जेब में है।
कालू का चेहरा उतर गया। वह चारपाई से उठकर नीचे खड़ा हो गया। उसने सोचा कि गुरुजी को पता चल गया तो वे पिटाई करेंगे। 'शाम को आऊंगा गुरुजी।' कालू ने जल्दी से इतना कहा और तेज गति से बाहर चला गया।
'कालू। रूक जा यहीं पर, कहां जा रहा है ?' गुरुजी ने गुस्से से कहा।
कालू के कदम वहीं रूक गए। पप्पू ने गुरुजी को गुस्से में देखा तो उसने कहानी की किताब एक तरफ रख दी। अब कालू कातर दृष्टिï से गुरुजी की ओर देख रहा था।
'इधर आ मेरे पास।' गुरुजी ने कालू से कहा।
कालू धीरे-धीरे कदमों से गुरुजी के पास आया।
'तेरी जेब में क्या है ?' गुरुजी ने थोड़ा गुस्से से पूछा।
कालू को लगा कि गुरुजी को उसकी चोरी का पता चल गया है। अत: झट से उसने जेब में हाथ डाला और एक रुपए का वह सिक्का निकाल कर मेज पर रख दिया। पप्पू हक्का बक्का रह गया। वह कभी कालू की तरफ देख रहा था तो कभी गुरुजी की ओर।
'यह क्या किया तूने?' गुरुजी के इतना कहते ही कालू उनके पैरों में गिर कर जोर-जोर से रोने लगा।
गुरुजी कालू को पुचकारते हुए बोले, 'रो मत बेटे, कोई बात नहीं।' लेकिन कालू था कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। गुरुजी ने कालू को अपनी गोद में उठा लिया और उसकी आंखें पोंछते हुए बोले, 'कालू मैं तुझे बहुत अच्छा लड़का समझता हूं बेटा कि तूने अपनी गलती स्वीकार कर ली और अब पश्चाताप कर रहा है।'
'आइन्दा ऐसा काम कभी नहीं करूंगा गुरुजी... कभी नहीं करूंगा।' कालू ने रोते-रोते ही कहा।
'बहुत अच्छा बेटे, मुझे तुम से यही उम्मीद थी।' यह कह कर गुरुजी ने कालू को गोद से उतार दिया और मेज पर पड़े उस सिक्के को उठा कर कालू को देते हुए बोले, 'अच्छा, ये लो मेरी तरपऊ से यह सिक्का ले लो।'
'मैं पैसे नहीं लूंगा गुरुजी, आइन्दा चोरी नहीं करूंगा... मैं चोरी नहीं करूंगा जी।' और वह फफक कर रो पड़ा। गुरुजी ने कालू को अपने गले से लगा लिया। भाई द्वारा की गई चोरी के कारण पप्पू भी शर्र्मिदा हुआ। वह भी रोने गा तो गुरुजी ने उसे भी अपने गले से लगाया और वे भर्राये गले से दोनों को चुप कराने लगे।