पसन्द / सुदर्शन रत्नाकर
दुर्गा ने दिनेश का चेहरा देख कर ही समझ लिया कि बात नहीं बनी। हर बार की तरह इस बार भी उनके हाथ निराशा लगी थी। उन्हें पानी का गिलास देकर वह पास ही बैठ गई। पिछले दो वर्ष से वे सुनीति के लिये वर की तलाश कर रहे हैं। समाचार पत्र में विवाह का विज्ञापन भी दिया था। बहुत सारे पत्र आये थे, कुछ का चुनाव करके पत्र व्यवहार किया। सुनीति को लड़कों और परिवार वालों से भी मिलवाया,
दो ने सुनीति को पसंद भी कर लिया लेकिन बात लेन देन पर आकर समाप्त हो गई।
सुनीति इन सब बातों से तंग आ चुकी थी। उसने माँ से अपने और प्रवेश के सम्बंधों के बारे में धीरे से बता भी दिया था। लेकिन उन्होंने उसे डाँट कर चुप करा दिया था। "तुम सोच भी कैसे सकती हो। जानती नहीं वह दूसरी जाति, दूसरे धर्म का है। तुम्हारे पापा को पता चलेगा तो घर में तूफ़ान आ जायेगा।" सुनीति ने उसके बाद कुछ नहीं कहा। उसने पापा के डर से यह बात वहीं ख़त्म कर दी। प्रवेश को भी समझा दिया था। पर दुर्गा ने दिवेश को बातों-बातों में बता ही दिया। उस दिन सचमुच तूफ़ान आ गया था और उसके लिये वर की खोज और तेज़ हो गई।
दिवेश एक मित्र के सुझाये लड़के से मिलने तीन दिन से मुम्बई गये हए थे। उन्होंने आवभगत तो बहुत की। लड़की को बिना देखे ही बात पक्की करना चाहते थे। लेकिन दहेज के नाम पर उन्होंने जो लिस्ट रखी वह लम्बी थी और उनकी पहुँच से बहुत दूर थी।
दिवेश ने पानी पिया और दुर्गा की ओर देखते हुए बोले, "सुनीति से कहो वह कल अपनी पसंद के लड़के से मुझे मिलवाये।"
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