पसीने और परफ्यूम की जंग / जयप्रकाश चौकसे
पसीने और परफ्यूम की जंग
प्रकाशन तिथि : 10 अगस्त 2012
शेखर कपूर ने अमरदीप बनर्जी को दिए साक्षात्कार में बताया कि उनकी निर्देशित पहली फिल्म ‘मासूम’ में शुक्रवार से बुधवार तक बहुत कम दर्शक आए थे और आज अगर किसी फिल्म के साथ ऐसा होतो गुरुवार उसका आखिरी दिन हो। उस दौर में वितरक और प्रदर्शक के पास बहुत धर्य होता था, परंतु आज का व्यवसाय हृदयहीन है तथापहले तीन दिन की आय अत्यंत महत्वपूर्ण होगई है और आंकड़ों का अजीबोगरीब खेल शुरूहो चुका है।
शेखर कपूर का कहना है कि‘मासूम’ में दर्शकों ने दूसरे सप्ताह में आना शुरू किया और फिल्म हिट हो गई। उसकी सफलता के कारण हीउन्हें ‘मि. इंडिया’, ‘बैंडिटक्वीन’, ‘एलिजाबेथ इत्यादि बनाने का अवसर मिला। हर व्यक्ति के जीवन में कुछ महत्वपूर्ण क्षण होते हैं, जो आगेजाकर निर्णायक सिद्ध होते हैं। इसका संदेश यह हैकि किसी भी लम्हे को मामूली नहीं माना जासकता।
मुंह से निकला हर शब्द शताब्दियों तक कहींन कहीं मौजूद रहता है।आज का सिनेव्यवसाय फिल्म की गुणवत्ता या उसके सामाजिक महत्व को गौण मानता है और प्रथमदिन की आय ही उस फिल्म का भाग्य तयकरती है। इसी कारण लोग छुट्टियों से भरे सप्ताह में फिल्म प्रदर्शित करना चाहते हैं। आज किसी को अपने काम पर विश्वास नहीं। हर व्यक्ति एक लहर के साथ चलना चाहता है।अब धारा के विपरीत बहने को मूर्खता माना जाता है। अच्छा दिखना अच्छे होने से जरूरी हो गया है।आर्थिक उदारवाद के बाद सामाजिक जीवन के रंग-ढंग भी बदल गए हैं।
अब व्यक्ति के केंद्र में उसका अपना सुख मात्र रह गया है।सप्ताहांत को मौज-मस्ती का समय मान लियागया है और सोमवार से ही यह सोच-विचारशुरू हो जाता है कि शनिवार और इतवार को क्या करना है। इस दौर में एक छोटा-सा समुदाय ऐसा हो गया है कि उसका दोपहर केखाने के बाद एकमात्र विचार शाम के भोजन केबारे में होता है और दूसरी तरफ बड़ा वर्ग ऐसाहै कि उसे एक वक्त का खाना नसीब नहींहोता। गोयाकि अधिक खाने वाला वर्ग है और एक भूखा वर्ग है। रोटियां छीनकर खाने की बात नहीं है, परंतु हम जिस ओर जा रहे हैं,वहां रोटियां छीनी जाएंगी। गोयाकि हम एकहिंसक भविष्य का निर्माण कर रहे हैं।
आज भारत की कुछ धनाढ्य कंपनियां विदेशों में हजारों एकड़ जमीन खरीद रही हैंऔर हमारे देश में फैलते हुए शहर आसपास कीखेती की जमीन हड़पने में लगे हैं। भारत मेंअनेक प्रगति करते शहर हैं, जिनकी बाहरीसीमा पर जमीन तीन करोड़ से तीस करोड़रुपया प्रति एकड़ तक बिक रही है और इसतरह की जमीन केमालिकों के रूप में एक नव-धनाढ्य वर्गका उदय हो रहा है,जो अपनी ताजा और अकल्पित अनायासमिली कमाई को शहरों की मौज-मस्ती में खर्च करते हुएसांस्कृतिक माहौलबिगाड़ रहा है। वेअपनी दौलत से उसशहर को बिगाड़ रहे हैं, जिसके अपने फैलाव के कारण उन्हें इतना धन मिला है।
दक्षिण अफ्रीका में बेंगलुरु की कंपनी ने हजारों एकड़ जमीन खरीदी है, जिस पर वहां के लोगों से मजदूरीकराकर धनाढ्य लोगों की पसंद की गैरजरूरीचीजों को उगाएंगे। एक जमाना ऐसा था, जबजमीन पर काम करने के लिए भारत से मजदूर बुलाए जाते थे। अब उन देशों में नए किस्म का उपनिवेशवाद भारत पैदा करेगा। सारा खेल बदल चुका है। अनेक भारतीय लोगों और कंपनियों के विदेशों में जायज खाते हैं। जो कभी शिकार था, अब शिकारी हो गया है।अनाज के बदले गुलाब उगाने के लिए जमीनें खरीदी जा रही हैं, गोयाकि पेट खाली हो, परंतु बदन पर खुशबू लगी होनी चाहिए। मेहनतकश व्यक्ति के शरीर की गंध अनेक लोगों को बर्दाश्त नहीं है। दुनिया सचमुच बहुत तेजी से बदल रही है।