पहचान / सुशांत सुप्रिय

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प्रशांत श्रीवास्तव उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ शहर के चिरैया कोट इलाक़े का रहने वाला था। बारहवीं की परीक्षा वहीं से पास करने के बाद वह दिल्ली आ गया। यहाँ उसे रामजस कॉलेज में बी. ए. (अंग्रेज़ी) ऑनर्स में दाख़िला मिल गया। यहीं उसकी मुलाक़ात मणिपुर की मैतेई कन्या लीला सिंह से हुई. लीला बी. ए. में उसकी सहपाठी थी। कुछ था जिसने दोनों को एक-दूसरे की ओर आकर्षित किया। बी. ए. के बाद एम. ए. (अंग्रेज़ी) में भी वे दोनों सहपाठी बने रहे। अब वे दोनों दिल्ली वि। वि। के अंग्रेज़ी विभाग में पढ़ रहे थे। दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी जो न जाने कब प्रेम में बदल गई. विभाग से ही अंग्रेज़ी में एम. फ़िल्। करने के बाद दोनों अलग-अलग कॉलेजों में व्याख्याता पद पर नियुक्त हो गए. लीला सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका बन गई जबकि प्रशांत हिंदू कॉलेज में अंग्रेज़ी प्राध्यापक नियुक्त हो गया।

नौकरी पक्की हो जाने के बाद दोनों ने ही ब्याह कर लेने का निर्णय लिया। दोनों के बीच भाषा-बोली, संस्कृति और प्रांतों का अंतर था, पर प्रेम इन्हें बाधाएँ कहाँ मानता है। घर वालों के शुरुआती विरोध के बावजूद दोनों ने कुछ मित्रो की उपस्थिति में 'कोर्ट-मैरेज' कर ली। दोनों के बीच का प्रेम विवाह के बंधन के बाद और प्रगाढ़ हो गया। कुछ समय के अंतराल के बाद दोनों को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई. उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने अपने बेटे का नाम मणिपुर के मशहूर हॉकी खिलाड़ी थोइबा सिंह के नाम पर 'थोइबा श्रीवास्तव' रखा।

वर्ष बीतते गए. माँ-पिता की स्नेहिल छाँव तले थोइबा बड़ा होने लगा। पिता उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश की संस्कृति से परिचित करवाते थे जबकि माँ उसे मणिपुर की संस्कृति के बारे में बताती थी। वह दो संस्कृतियों के अभूतपूर्व संगम के रूप में बड़ा हो रहा था।

थोइबा की माँ लीला के माता-पिता और रिश्तेदारों ने अपने मणिपुर समाज से बाहर, उत्तर प्रदेश के व्यक्ति से शादी कर लेने की वजह से उससे सारे सम्बंध तोड़ लिए थे। इस के कारण कभी-कभी लीला दुखी हो जाती थी। उसे मणिपुर और वहाँ बिताया अपना बचपन और अपनी किशोरावस्था शिद्दत से याद आती। तब अक्सर वह एक मणिपुरी लोक-गीत गुनगुनाती और बेटे थोइबा को भी गा कर सुनाती—

" चिंग्डा टबा वाको ना

टामडा टागे महाई रे

टामडा टाबा वाको ना

चिंग्डा टागे महाई रे ... "

(घाटी के बाँस-वृक्ष

पहाड़ पर जाना चाहते हैं,

पहाड़ के बाँस-वृक्ष

घाटी में जाना चाहते हैं ...)

थोइबा अब दिल्ली के अंग्रेज़ी माध्यम के एक नामी स्कूल में पढ़ता था। लेकिन वहाँ उसका जीवन आसान नहीं था। उसके सहपाठी और अन्य बच्चे उत्तर-पूर्व के लोगों जैसी उसकी शक्ल-सूरत की वजह से उसे 'चिंकी' कह कर छेड़ते थे। वे उसके नाम 'थोइबा' को भी अजीब मानकर उसके नाम का मज़ाक़ उड़ाते थे। इन्हीं वजहों से बालक थोइबा पीड़ित रहने लगा था। पता नहीं कब उसके मन में यह धारणा बैठ गई कि उसकी मुसीबत की वजह उसकी मणिपुरी माँ थी जिसकी वजह से उसकी शक्ल-सूरत ऐसी थी और उसका नाम मज़ाक़ का केंद्र बन गया था।

लीला अपने बेटे थोइबा पर जान छिड़कती थी। वह उसकी आँखों का तारा था। माँ-बाप ने स्कूल में शरारती बच्चों के विरुद्ध प्रिंसिपल साहब से शिकायत की ताकि वे बच्चे थोइबा को छेड़ना और सताना बंद कर दें। उन्होंने थोइबा को भी समझाया कि वह ऐसे बच्चों की बकवास की परवाह न करे। किंतु थोइबा बेहद संवेदनशील बालक था। उसके मन में अपनी माँ तथा मणिपुर के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न हो गया था। धीरे-धीरे उसने अपनी मणिपुरी पहचान, संस्कृति और विरासत से ख़ुद को अलग करना शुरू कर दिया।

दसवीं कक्षा की परीक्षा से पहले थोइबा ने अपना आधिकारिक रेकॉर्ड में अपना नाम बदल कर 'थावरचंद' रख लिया। घर में इस बात को लेकर बहुत बवाल हुआ, पर वह टस-से-मस न हुआ। धीरे-धीरे माँ लीला से उसकी भावनात्मक दूरी बढ़ती चली गई. अब माँ का मणिपुरी लोक-गीत गाना थावर को अच्छा नहीं लगता। वह अपने पिता जैसा दिखना और बनना चाहता था। उसने अपने पिता के हेयर-स्टाइल को अपना लिया और अच्छी तरह से हिन्दी सीखने लगा ताकि उत्तर भारत में लोग उसे 'यहीं का' मान कर स्वीकार करें। कॉलेज में उसकी दोस्ती एक पंजाबी लड़की सिमरन से हो गई जो बाद में उसकी गर्लफ़्रेंड बन गई.

थावर की माँ लीला वाटर-कलर्स से बहुत बढ़िया पेंटिंग्स बनाती थी जिन में मणिपुरी जीवन के विविध रूप झलकते थे। बचपन में थावर उर्फ़ थोइबा को ये पेंटिंग्स बहुत अच्छी लगती थीं। माँ उसे ये पेंटिंग्स गिफ़्ट में दे देती थी जिन्हें थोइबा बहुत सँभाल कर रखता था। पर बड़े हो जाने पर जब माँ से उसकी दूरी बढ़ गई तो थावर ने ये सारी पेंटिंग्स इकट्ठी करके कबाड़ रखने वाले कमरे में डाल दीं। वह अपनी मणिपुरी पहचान को भुला देना चाहता था। एक ही घर में रहने के बावजूद अब उसके जीवन में उसकी माँ लीला एक दूरस्थ उपस्थिति बन कर रह गई थी। वह लीला से ज़्यादा बात नहीं करता था। यहाँ तक कि वह उससे मिलने से भी कतराता था।

लीला ने अपनी पीड़ा को प्रशांत से साँझा किया। वह अपने बेटे के इस अजीब व्यवहार के कारण बेहद दुखी रहती थी। कभी-कभी वह अपने पति प्रशांत के कंधे पर सिर रख कर रो लेती थी। प्रशांत ने थावर को बहुत समझाया पर उसे तो जैसे अपनी मणिपुरी पृष्ठभूमि से ही चिढ़ हो गई थी।

थावर अब विश्वविद्यालय में क़ानून की पढाई पढ़ रहा था। एक सप्ताहांत प्रशांत और लीला अपनी एस.यू.वी. गाड़ी में जयपुर की यात्रा पर निकले। लेकिन वहाँ से दिल्ली वापस लौटते समय उनकी एस.यू.वी. की एक ट्रक से सीधी टक्कर हो गई. इस भयानक हादसे में घटना-स्थल पर ही लीला की मृत्यु हो गई जबकि प्रशांत घायल हो गया।

लेकिन इस हादसे ने जैसे थावर का जीवन ही बदल दिया। माँ की असमय मृत्यु ने उसे भीतर तक हिला दिया। उसे शिद्दत से माँ की याद सताने लगी। जब वह अपने प्रति माँ के स्नेह को याद करता तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते। वह माँ की बनाई पेंटिंग्स को घंटों देखता रहता। उसे अपना बचपन याद आता। माँ की किताबों में ही उसे अपने नाम लिखी माँ की एक चिट्ठी भी मिली जिसमें लीला ने लिखा था—

" प्रिय थोइबा, मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। जब तुम छोटे बच्चे थे तब हम दोनों एक-दूसरे के कितने क़रीब थे। तब तुम भी मुझसे बहुत प्यार करते थे। पर जैसे-जैसे तुम बड़े हुए, हमारे प्यार को न जाने किसकी नज़र लग गई. हमारे बीच दूरियाँ बढ़ती चली गईं।

" बेटा थोइबा, तुम अब भी मुझे बहुत प्रिय हो। माँ अपने बेटे से हमेशा प्यार करती है। पर अपने प्रति तुम्हारा अजीब व्यवहार देखकर मेरा दिल रोता है। मैं पहले ही अपने माता-पिता और रिश्तेदारों को खो चुकी हूँ। अब तुम्हें भी खो कर मैं नहीं जी पाऊँगी।

" बेटा, मैं केवल तुम्हारे कल्याण की कामना करती हूँ। तुम मुझसे इतनी दूरी क्यों बनाए रखते हो? तुम्हारे प्यार में तड़पती,

तुम्हारी माँ। "

यह पत्र पढ़कर थावर भीतर तक काँप गया। वह अपने पिता के पास गया। शाम का समय था जब दिन की अंतिम रोशनी रात के पहले अँधेरे से मिलती है। पिता बिना बत्ती जलाए अँधेरे कमरे में बैठे थे। कमरे की बत्ती जला कर थावर बोला—"पापा, मैंने माँ के जीवन में बहुत दुख घोला। शायद इसीलिए ऊपर वाले ने माँ को मुझसे हमेशा के लिए दूर कर दिया। लेकिन मैं अपनी माँ की आत्मा को शांति देना चाहता हूँ। यही मेरा पश्चात्ताप होगा ।" उस दिन बाप-बेटा गले लग कर बहुत देर तक रोते रहे।

थावर ने सबसे पहला काम यह किया कि आधिकारिक रूप से अपना नया नाम बदल कर वापस अपने माता-पिता का दिया हुआ पुराना नाम 'थोइबा श्रीवास्तव' रख लिया। अब वह शहर का एक नामी वकील बन चुका था। उसने अपनी स्वर्गीय माँ लीला की बनाई वाटर कलर्स की पेंटिंग्स की शहर में एक प्रदर्शनी आयोजित की जहाँ लोगों ने उन पेंटिंग्स को ख़ूब सराहा। थोइबा ने अपनी मणिपुरी पहचान और संस्कृति को वापस अपनाना शुरू कर दिया। उसने अपने पुराने मणिपुरी मित्रो से पुन: सम्पर्क किया। उनकी सहायता से वह मणिपुरी भाषा और लिपि सीखने लगा। वह शहर की मणिपुरी एसोसिएशन का सदस्य भी बन गया और उनके आयोजनों में शामिल होने लगा और तो और, थोइबा ने मणिपुर में जा कर अपने नाना-नानी को ढूँढ़ निकाला और उनसे सम्पर्क बनाया। यह सब देखकर उसके पिता प्रशांत बहुत ख़ुश हुए.

माँ लीला की मृत्यु की पहली बरसी पर वह अपने पिता के साथ अपने नाना-नानी और माँ की तरफ़ के अन्य रिश्तेदारों से मिलने मणिपुर गया। वहाँ बारिश का मौसम था। चारों ओर हरियाली छाई थी। थोइबा ने सबको बताया कि अब उसने मणिपुरी भाषा और लिपि अच्छी तरह सीख ली है। इस अवसर पर उसने मणिपुरी भाषा और लिपि में लिखी अपनी पहली प्रकाशित किताब भी सबको उपहार में दी। उस किताब का शीर्षक था: "मेरी मणिपुरी पहचान"।

यह सब देखकर थोइबा के पिता प्रशांत की आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक आए. आख़िर थोइबा ने अपनी मणिपुरी पहचान और विरासत को स्वीकार कर लिया था। प्रशांत को लगा कि उसकी पत्नी लीला भी स्वर्ग में से अपने बेटे का अपनी मणिपुरी पहचान को स्वीकार कर लेना देखकर बेहद प्रसन्न हो रही होगी।