पहला– पहला फाग ससुराल का / निर्देश निधि
बचपन में मेरा होली का उत्साह बहुत ज़ोरों पर रहता था। पिचकारी में अपना मनपसंद रंग भरा और सबसे पहले पिता के सफेद बुर्राक कुर्ते-पाजामे पर डाल दिया। यहीं से आरंभ होती थी मेरी होली। मेरे पिता हमेशा सफ़ेद कुर्ता पाजामा ही पहनते, जैसे दूसरों के द्वारा डाले गए रंगों का मान रख रहे हों। हरेक का डाला रंग अलग ही दिखाई दे, वरना काले-पीले कपड़ों में तो क्या ही दिखाई दे किसी का रंग। पिता के ऊपर मेरा रंग सबसे पहले डलकर सबसे ज़्यादा मान ले लेता। माता-पिता, बड़े बहन-भाइयों के लाड़-प्यार में होली के रंग खूब चमकीले और लुभावने लगते। जिनसे खेलते-खेलते मन कभी भरता ही ना था। गुनगुने होते फागुन मास की पूर्णिमा की रात वाला वह दिन, सामान्य दिनों की अपेक्षा कुछ तीव्रता से भागता हुआ लगता था। बहन–भाइयों और आस–पड़ोस के बच्चों के साथ खेल–खेल में कब दोपहर होकर दिन ढलने लगता, पता ही ना चलता। माँ सब बच्चों और बड़ों के लिए नायन ताई जी से पानी गरम करवा देतीं और एक–एक कर सबको नल की चबूतरी पर बेसन और सरसों के तेल से टेसू से बना रंग और गुलाल अपने हाथ–पैरों, गर्दन और चेहरे से छुड़ा लेने के लिए बोलतीं। हम बच्चे बस अभी थोड़ी देर में, कहते और बाहर भाग जाते। पकड़कर लाए जाते और बैठा दिये जाते नल की चबूतरी पर। बस बहुत खेल लिये हो अब और नहीं, बाकी अगले बरस खेलना। जैसे अगला बरस न हुआ, अगला घंटा हो गया। माँ जब अपनी पर आ जातीं, तो मजाल थी किसी की, जो उनकी, बात टाल सकता। आखिर तो हमें नहाना ही पड़ता जब मैं कक्षा ग्यारह में आई, तो पिता नहीं रहे और नहीं रहा वह सफेद बुर्राक कुर्ता-पाजामा भी, जिस पर रंग डालकर मैं अपनी होली का आरंभ करती और खुद से पहले उस पर किसी और को भी रंग न डालने देती। माँ भी नहीं रहीं। मन उदास हो गया। सभी होलियाँ रंगहीन हो गईं और जीवन जैसे वीरान और अर्थहीन हो गया। किशोरावस्था में प्रेम की पींगें बढ़ाने की उम्र माता-पिता की स्मृतियों की उदास धुनों को गाते हुए बीती। उदासी में ही सही पर एक–एक कर त्यौहार और बरस बीतने लगे।
ब्याह होकर ससुराल आई, तो घर ननद–देवरों से भरा था। डॉक्टर साहब यानी मेरे पति भी होली खेलने के खूब शौकीन। अपनी पसंद की लड़की से ब्याह कर उनकी खुशी भी सातवें आसमान पर थी। एक ब्राह्मण लड़के के द्वारा जाट खेमे से बाकायदा ज़िद करके ब्याह कर लाई गई थी मैं। यह एक हिम्मत का काम था ब्राह्मण लड़के के परिवार का। मुझे पाने के लिए बेचारे ने खूब अनशन किए थे। ऐसी अन्तर्मन तक छाई, रग–रग में प्रेम रस बनकर घुली पत्नी के साथ पहली होली खेलने का उत्साह उनके निश्चल, युवा ताँबई चेहरे पर खूब छलक रहा था। वैसे भी उनका मन इतना निश्छल था कि अपनी किसी भावना को छिपा पाना उनके लिए नामुमकिन था। जब छिपाने का प्रयास करते, तो भीतर की उथल–पुथल और भी मुखर होकर फूट पड़ती। अगर खुश होते, तो बच्चों—सी निर्मल मुस्कान उनके पौरुष भरे चेहरे पर तैर जाती। जब नाराज़ होते, तो उसी मासूम चेहरे से क्रोध फूटता हुआ दिखता। खैर उन्होंने अपने छोटे भाई से मिलकर रंग-सहित भंग भी तैयार कर होली खेलने की सारी योजना बना ली। रंग-अबीर तो आए ही, साथ ही भाँग की बर्फी और ठंडाई भी तैयार करा ली गई। मुझे भाँग खिलाना संभवतः शेड्यूल में न भी रहा हो। घर के लड़कों ने भंग की ठंडाई और बर्फी का आनंद उठाया। डॉक्टर साहब ने कभी कोई नशा नहीं किया था; अतः वह भाँग उन्हें जल्दी ही चढ़ी और चढ़ी भी खूब। सबके साथ मिलकर उन्होंने भी खूब गाने गाए, खूब लाउड म्यूज़िक चलाया गया और खूब डांस भी किया। मुख्य रूप से अभिताभ बच्चन और रेखा पर फिल्माया गया सिलसिला फिल्म का गीत, 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' फिर–फिर बजाया गया। डांस करते–करते यों तो सब थक चुके थे; पर रुकने को कोई तैयार नहीं था। मेरी सासू माँ ने कहा-अब सब चुप बैठ जाओ मौसी आ रही हैं। मौसी यानी सासू माँ की बड़ी बहन, वे हमारे साथ ही रहती थीं। उनके रौब–दाब और क्रोध से सभी खौफ खाते थे। मौसी का नाम सुनते ही सबके सब चुपचाप यूँ ही बैठ गए। बैठे तो डॉक्टर साहब भी, पर भाँग के नशे में सीधे बैठने का जो उपक्रम वे कर रहे थे, उसे देखकर हँसते–हँसते बिना भाँग खाने वालों का भी बुरा हाल हो रहा था। वे सीधा बैठने के प्रयास में दोनों हाथ बाँधकर बैठ रहे थे। पर उन्हें शायद यह लग रहा था कि उनके दोनों कंधे एक सीध में नहीं आ रहे। वे अपने दोनों कंधे एक सीध में करने के चक्कर में एक कंधा ऊँचा और एक नीचा करके बैठ रहे थे। हम सब हँसी के मारे दौहरे हुए जा रहे थे। वे बार–बार हम सबको दिखा रहे थे-देखो मैं कितना सीधा बैठा हूँ। तुम भी सीधे बैठो। मम्मी कह रही हैं कि मौसी आने वाली हैं। मैं तो सीधा बैठा हूँ भैया, मुझे देखेंगी, तो समझ जाएँगी कि बस मैंने ही भाँग नहीं खाई है, बाकी सबने खा ली आज तो। तुम सभी पकड़े जाओगे और मौसी तुम सबकी डाँट लगाएँगी। वे बोलते–बोलते चुप ही नहीं हो रहे थे। मौसी आ गईं। उनका बोलना तब भी जारी रहा। फिर बोले-सुनो–सुनो मैं सबको एक बात बताता हूँ, जो सिर्फ मुझे और निर्देश को पता है, हम दोनों को और सिर्फ हम दोनों को पता है। मैं तो खौफ ही खा गई, पता नहीं क्या बताने लग जाएँ, होश तो है नहीं। पति-पत्नी की हज़ार बातें हैं, ना जाने क्या बता डालें और मैं शर्मिंदा होती फिरूँ। वे बार–बार दौहरा रहे थे, बस मेरी और निर्देश की बात है; इसीलिए हम दोनों को ही पता है। सुनो बताता हूँ। हम पति–पत्नी के बीच की बात वे यों सरेआम बताने ही जा रहे थे कि उनके मुँह पर हाथ रखकर ही रोकना पड़ा। मौसी ने कहा, चुप बैठा रह, हमें नहीं सुननी तेरी और निर्देश की बात। मौसी के डाँटते ही वे चुप हो गए और एक कंधा ऊपर और एक नीचे ढलकाकर अपने अनुसार सीधे बैठने का उपक्रम करने लगे।
मेरे देवर और उसके दोस्तों ने मिलकर एक और मिशन तैयार किया। भाभी को यानी मुझे भी भाँग खिलाई जाए। बर्फी के भीतर रखकर भाँग का खूब बड़ा—सा गोला मुझे और मेरी छोटी ननद को भी खिला दिया गया। थोड़ी देर में उसे भी चढ़ गई, उसने कहना शुरू किया कि मैं मर रही हूँ। चढ़ मुझे भी गई, यह तब पता चला, जब वह कहती कि मैं मर रही हूँ और मुझे खूब ज़ोरों की हँसी आती। इस तरह उसे मरने की और मुझे हँसने की चढ़ गई। डॉक्टर साहब को सीधे बैठने की। मेरे देवर को डाँट पड़ने का डर बैठ गया; इसलिए उसे चुपचाप बैठने की चढ़ी। या कह लें कि सबसे कम उसी को चढ़ी। मेरी ननद मरे जा रही थी और मैं हँसे जा रही थी। मैं थककर चूर हो गई थी। हँस–हँसकर पेट पूरी तरह दुख गया था। पर हँसी थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। मेरी स्थिति सामान्य होती, तो भी और बात थी; पर मुझे तीन माह की प्रैगनैन्सी थी। मेरी सासू माँ खुद एक डॉक्टर थीं; अतः वे खतरे से वाकिफ थीं और चिंता के मारे उनकी जान सूख रही थी; पर कुछ नहीं किया जा सकता था। किसी को डाँटना-पीटना भी क्या कोई इलाज था तब, जबकि कोई होशो–हवास में था ही नहीं। वे बस मुझे ही कहे जा रही थीं-बेटा हँसी रोकने की कोशिश करो। कहीं नुकसान न हो जाए। मैं उनके कहने के बाद हर बार यही सोचती कि अब नहीं हँसूँगी; परंतु मैं खुद को रोक ही न पा रही थी। तब जाना कि भाँग का नशा किस कदर बेबस कर सकता है इंसान को।
इस तरह बेबस होने के लिए करते हैं लोग नशा? यह जानकर आश्चर्य हुआ। इसी बीच डॉक्टर साहब के जीजा जी, श्री जंगबहादुर जी, जो बुलंदशहर में ही रहते हैं, होली खेलने के लिए आ गए। वे हमेशा से ही होली खेलने आते रहे थे। जीजा जी के आने की खबर सुनकर डॉक्टर साहब और भी 'सीधे' होकर बैठ रहे थे। मेरी ननद और भी गंभीरता से मरे जा रही थी, देवर गुमसुम बैठ गया था, बोला सब चुप हो जाओ जीजा जी आ गए और मैं? मैंने जीजा जी को देखा, तो वे मुझे अपनी आँखों के सामने हवा में तैरते हुए दिखाई दिये, वह भी मात्र चार या पाँच इंच के। उनका कद वैसे तो छोटा ही है; पर उस दिन मेरी नज़र ने तो कमाल ही कर दिया। जैसे ही वे मुझे छोटे-से दिखते, मैं और भी ज़ोरों से हँस पड़ती और अपनी तर्जनी और अँगूठे से बताती-जीजा जी इत्ते से हैं। उस बार तो बेचारे गुजिया और दही बड़े खाकर होली खेले बगैर ही चले गए। मौसी, सासू माँ सहित सब पर बेहद नाराज़ हुईं। बच्चों को इतनी छूट दे रखी है कि भला-बुरा भी ना दिखाई देता तुझे और सासू माँ बिना कोई गलती किए चुपचाप डाँट खाती रहीं। उन्हें किसी ने थोड़े ही बताया था कि हम सब भाँग खाने जा रहे हैं। शायद मेरे देवर को भी भाँग का यह बेसुध कर देने वाला स्वरूप पता नहीं होगा। वरना दस बार सोचता।
मैं प्रभावशालिनी भन्नाटेदार भाँग के नशे में नौ घंटे लगातार हँसती रही। उसके बाद कई दिनों तक सोती रही। जो भी हुआ यह गनीमत रही कि मेरा शिशु सुरक्षित रहा। भाँग से सबने घर में तौबा कर ली। ससुराल का वह पहला फाग मज़ाक–मज़ाक में जी का जंजाल बन गया था। तब तो डर लग रहा था; पर अब जब भी उसके बारे में सोचती हूँ फिर से हँसी आती है। पिता के बाद जो होली खेलना छूटा था, वह ससुराल के इस पहले फाग से खेलना फिर शुरू हुआ। -0-