पहला अध्याय - संज्ञा / कामताप्रसाद गुरू
पहला अध्याय संज्ञा 97. संज्ञा उस विकारी शब्द को कहते हैं जिससे प्रकृत किंवा कल्पित सृष्टि की किसी वस्तु का नाम सूचित हो, जैसे-घर, आकाश, गंगा, देवता, अक्षर, बल, जादू इत्यादि।
(क) इस लक्षण में ‘वस्तु’ शब्द का उपयोग अत्यंत व्यापक अर्थ में किया गया है। वह केवल प्राणी और पदार्थ ही का वाचक नहीं है, किंतु उनके धर्मों का भी वाचक है। साधारण भाषा में ‘वस्तु’ शब्द का उपयोग इस अर्थ में नहीं होता, परंतु शास्त्रीय ग्रंथों में व्यवहृत शब्दों का अर्थ कुछ घटा-बढ़ाकर निश्चित कर लेना चाहिए जिससे उसमें कोई संदेह न रहे।
(टिप्पणी : व्याकरण में दिए हुए सब लक्षण तर्कसम्मत रीति से किए हुए नहीं जान पड़ते; इसलिए यहाँ तर्कसम्मत लक्षणों के विषय में संक्षेपतः कुछ कहने की आवश्यकता है। किसी भी पद का लक्षण कहने में दो बातें बतानी पड़ती हैं-(1) जिस जाति में उस पद का समावेश होता है, वह जाति; और (2) लक्ष्य पद का असाधारण धर्म,अर्थात् लक्ष्य पद के अर्थ को उस जाति की अन्य उपजातियों के अर्थ से अलग करने वाला धर्म। किसी शब्द का अर्थ समझाने के कई उपाय हो सकते हैं, पर उन सबको लक्षण नहीं कह सकते। जिस लक्षण में लक्ष्य पद स्पष्ट अथवा गुप्त रीति से आता है वह शुद्ध लक्षण नहीं है। इसी प्रकार एक शब्द का अर्थ दूसरे शब्द के द्वारा बताना (अर्थात् उसका पर्यायवाची शब्द कहना) भी उस शब्द का लक्षण नहीं। यदि हम संज्ञा का न्यायोक्त लक्षण कहना चाहें तो हमें उसकी जाति और असाधारण धर्म बताना चाहिए। जिस अधिक व्यापक वर्ग में संज्ञा का समावेश होता है, वही उसकी जाति है, और उस जाति की दूसरी उपजातियों से संज्ञा के अर्थ में जो भिन्नता है, वही उसका असाधारण धर्म है। संज्ञा का समावेश विकारी शब्दों में है; इसीलिए ‘विकारी शब्द’ संज्ञा की जाति है और ‘प्रकृत किंवा कल्पित सृष्टि की किसी वस्तु का नाम सूचित करना’ उसका असाधारण धर्म है। जो विकारी शब्द की उपजातियों, अर्थात् सर्वनाम, विशेषण आदि में नहीं पाया जाता। इसलिए ऊपर कही हुई संज्ञा की परिभाषा, न्यायदृष्टि से स्वीकरणीय है। लक्षण में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष न होने चाहिए। जब लक्ष्य पद के असाधारण धर्म के बदले किसी ऐसे धर्म का उल्लेख किया जाता है जो उसकी जाति के सब व्यक्तियों में नहीं पाया जाता, तब लक्षण में अव्याप्ति दोष होता है, जैसे- यदि मनुष्य के लक्षण में यह कहा जाए कि ‘मनुष्य वह विवेकी प्राणी है, जो व्यक्त भाषा बोलता है’ तो इस लक्षण में अव्याप्ति दोष है, क्योंकि व्यक्त भाषा बोलने का धर्म गूँगे मनुष्यों में नहीं पाया जाता। इसके विरुद्ध, जब लक्ष्य पद का धर्म उसकी जाति से भिन्न जातियों के व्यक्तियों में भी घटित होता है, तब लक्षण में अतिव्याप्ति दोष होता है; जैसे- वन का लक्षण करने में यह कहना अतिव्याप्ति दोष है कि ‘वन स्थल का वह भाग है, जो सघन वृक्षों से ढका रहता है’ क्योंकि सघन वृक्षों से ढके रहने का धर्म पर्वत और बगीचे में भी पाया जाता है।
हिंदी व्याकरणों में दिए गए, संज्ञा के लक्षणों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं : (1) संज्ञा पदार्थ के नाम को कहते हैं। (भा.त.बो.) (2) संज्ञा वस्तु के नाम को कहते हैं। (भा.भा.) (3) पदार्थ मात्रा को संज्ञा कहते हैं। (भा.त.दी.) (4) वस्तु के नाम मात्रा को संज्ञा कहते हैं। (हिं.भा.व्या.)।
ये लक्षण देखने में सहज जान पड़ते हैं और छोटे-छोटे विद्यार्थियों के बोध के लिए तर्कसम्मत लक्षणों की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं, परंतु ये ठीक शुद्ध या निर्दोष लक्षण नहीं हैं। इनसे केवल यही जाना जाता है कि ‘संज्ञा’ का पर्यायवाची शब्द ‘नाम’ है अथवा नाम का पर्यायवाची शब्द ‘संज्ञा’ है। इसके सिवा इन लक्षणों में कल्पित सृष्टि का कोई उल्लेख नहीं है। बैताल पच्चीसी, शुकबहत्तरी, हितोपदेश आदि कल्पित विषयों की पुस्तकों में तथा कल्पित नाटकों और उपन्यासों में जिस सृष्टि का वर्णन रहता है उस सृष्टि के प्राणियों, पदार्थों और धर्मों के नाम भी व्याकरण के संज्ञा वर्ग में आ सकते हैं। इस दृष्टि से ऊपर लिखे लक्षणों में अव्याप्ति दोष भी है।)
(ख) ‘संज्ञा’ शब्द का उपयोग वस्तु के लिए नहीं होता, किंतु वस्तु के नाम के लिए होता है। जिस कागज पर यह पुस्तक छपी है, वह कागज संज्ञा नहीं हैः किंतु पदार्थ है, पर ‘कागज’ शब्द जिसके द्वारा हम उस पदार्थ का नाम सूचित करते हैं, संज्ञा है।
98. संज्ञा दो प्रकार की होती है(1) पदार्थ वाचक, (2) भाववाचक।
99. जिस संज्ञा से किसी पदार्थ वा पदार्थों के समूह का बोध होता है उसे पदार्थवाचक संज्ञा कहते हैं; जैसेμराम, राजा, घोड़ा, कागज, काशी, सभा, भीड़ इत्यादि। (सू.इन लक्षणों में ‘पदार्थ’ शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों के लिए किया गया है।)
100. पदार्थवाचक संज्ञा के दो भेद हैंμ(1) व्यक्तिवाचक और (2) जातिवाचक।
101. जिस संज्ञा से किसी एक ही पदार्थ वा पदार्थों के एक ही समूह का बोध होता है उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं; जैसे-राम, काशी, गंगा, महामंडल, हितकारिणी इत्यादि।
‘राम’ कहने से केवल एक ही व्यक्ति (अकेले मनुष्य) का बोध होता है; प्रत्येक मनुष्य को ‘राम’ नहीं कह सकते। यदि हम ‘राम’ को देवता मानें तो भी ‘राम’ एक ही देवता का नाम है। उसी प्रकार ‘काशी’ कहने से इस नाम के एक ही नगर का बोध होता है। यदि ‘काशी’ किसी स्त्री का नाम हो तो भी इसी नाम से उस एक ही स्त्री का बोध होगा। व्यक्तिवाचक संज्ञा चाहे जिस प्राणी वा पदार्थ का नाम हो, वह उस एक ही प्राणी वा पदार्थ को छोड़कर दूसरे व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। नदियों में ‘गंगा’ एक ही व्यक्ति (अकेली नदी) का नाम है; यह नाम किसी दूसरी नदी का नहीं हो सकता। संसार में एक ही राम, एक ही काशी और एक ही गंगा है। ‘महामंडल’ लोगों के एक ही समूह (सभा) का नाम है, इस नाम से कोई दूसरा समूह सूचित नहीं होता। इसी प्रकार ‘हितकारिणी’ कहने से एक अकेले समूह (व्यक्ति)का बोध होता है। इसलिए राम, काशी, गंगा, महामंडल, हितकारिणी व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ हैं।
व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ बहुधा अर्थहीन होती हैं। इनके प्रयोग से जिस व्यक्ति का बोध होता है, उसका प्रायः कोई भी धर्म इनसे सूचित नहीं होता। नर्मदा नाम से एक ही नदी का अथवा एक ही स्त्राी का या और किसी एक ही व्यक्ति का बोध हो सकता है, पर इस नाम के व्यक्ति का प्रायः कोई भी धर्म इस शब्द से सूचित नहीं होता। ‘नर्मदा’ शब्द आदि में अर्थवान् ‘मोक्ष देनेवाली’ रहा हो, तथापि व्यक्तिवाचक संज्ञा में उसका वह अर्थ अप्रचलित हो गया और अब वह नाम पहचानने के लिए किसी भी व्यक्ति को दिया जा सकता है। व्यक्तिवाचक संज्ञा किसी व्यक्ति की पहचान या सूचना के लिए केवल एक संकेत है और यह संकेत इच्छानुसार बदला जा सकता है। यदि किसी घर में मालिक और नौकर का नाम एक ही हो तो बहुत करके नौकर अपना नाम बदलने को राजी को जायगा। एक ही नाम के कई मनुष्यों की एक दूसरे से भिन्नता सूचित करने के लिए प्रत्येक नाम के साथ बहुधा कोई संज्ञा या विशेषण लगा देते हैं; जैसेμबाबू, देवदत्त इत्यादि। यदि एक ही मनुष्य के दो नाम हों तो व्यवहारी वा सरकारी कागज-पत्रों में उसे दोनों लिखने पड़ते हैं, जिसमें उसे अपने किसी एक नाम की आड़ में धोखा देने का अवसर न मिले; जैसे- मोहन उर्फ बिहारी; बलदेव उर्फ रामचंद्र इत्यादि।
कुछ संज्ञाएँ व्यक्तिवाचक होने पर भी अर्थवान् हैं; जैसे- ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्मांड, परब्रह्म, प्रकृति इत्यादि।
102. जिस संज्ञा से किसी जाति के सम्पूर्ण पदार्थों वा उनके समूहों का बोध होता है, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं; जैसेμमनुष्य, घर, पहाड़, नदी, सभा इत्यादि। हिमालय, विंध्याचल, नीलगिरि और आबू एक दूसरे से भिन्न हैं, क्योंकि वे अलग-अलग व्यक्ति हैं; परंतु वे एक मुख्य धर्म में समान हैं, अर्थात् वे धरती के बहुत ऊँचे भाग हैं। इस साधम्र्य के कारण उनकी गिनती एक ही जाति में होती है और इस जाति का नाम ‘पहाड़’ है। हिमालय, विंध्याचल, नीलगिरि, आबू और इस जाति के दूसरे सब व्यक्तियों के लिए ‘पहाड़’ नाम आता है। ‘हिमालय’ कहने से (इस नाम के) केवल एक ही पहाड़ का बोध होता है, पर ‘पहाड़’ कहने से हिमालय, नीलगिरि, विंध्याचल, आबू और इस जाति के दूसरे सब पदार्थ सूचित होते हैं। इसलिए पहाड़ जातिवाचक संज्ञा है। इसी प्रकार गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्रा और इस जाति के दूसरे सब व्यक्तियों के लिए ‘नदी’ नाम का प्रयोग किया जाता है; इसलिए नदी शब्द जातिवाचक संज्ञा है ः लोगों के समूह का नाम ‘सभा’ है। ऐसे समूह कई हैं; जैसेμ‘नागरीप्रचारिणी’, ‘कान्यकुब्ज’, ‘महाजन’, ‘हितकारिणी’ इत्यादि। इन सब समूहों को सूचित करने के लिए ‘सभा’ शब्द का प्रयोग है, इसलिए ‘सभा’ जातिवाचक संज्ञा है।
जातिवाचक संज्ञाएँ अर्थवान् होती हैं। यदि हम किसी स्थान का नाम ‘प्रयाग’ के बदले ‘इलाहाबाद’ रख दें तो लोग उसे इसी नाम से पुकारने लगेंगे, परंतु यदि हम शहर को ‘नदी’ कहें तो कोई हमारी बात न समझेगा। ‘प्रयाग’ और ‘इलाहाबाद’ में केवल नाम का अंतर है, परंतु शहर और ‘नदी’ शब्दों में अर्थ का अंतर है। प्रयाग शब्द से उसके वाच्य पदार्थ का कोई भी धर्म सूचित नहीं होता; परंतु शहर शब्द से हमारे मन में बड़े-बड़े घरों के समूह की भावना उत्पन्न होती है। इसी प्रकार ‘सभा’ शब्द सुनने से हमें उसका अर्थज्ञान (मनुष्यों के समूह का बोध) सहज ही हो जाता है; परंतु ‘हितकारिणी’ कहने से वैसा कोई धर्म प्रकट नहीं होता।
(सू.μयद्यपि पहचान के लिए मनुष्यों और स्थानों को विशेष नाम देना आवश्यक है, तथापि इस बात की आवश्यकता नहीं है कि प्रत्येक प्राणी या पदार्थ को कोई विशेष नाम दिया जाय। स्याही से लिखने के काम में आनेवाले प्रत्येक पदार्थ को हम ‘कलम’ शब्द से सूचित कर सकते हैं; इसलिए ‘कलम’ नाम से प्रत्येक अकेले पदार्थ को अलग-अलग नाम देने की आवश्यकता नहीं है। यदि प्रत्येक अकेले पदार्थ (जैसेμप्रत्येक सूई) का एक अलग विशेष नाम रखा जाय तो भाषा बहुत ही जटिल हो जायगी। इसलिए अधिकांश पदार्थों का बोध जातिवाचक संज्ञाओं से हो जाता है और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग केवल भूल या गड़बड़ मिटाने के विचार से किया जाता है।)
103. जिस संज्ञा से पदार्थ में पाए जानेवाले किसी धर्म का बोध होता है उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं; जैसेμलम्बाई, चतुराई, बुढ़ापा, नम्रता, मिठास, समझ, चाल, इत्यादि।
प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई धर्म होता है। पानी में शीतलता, आग में उष्णता, सोने में भारीपन, मनुष्य में विवेक और पशु में अविवेक रहता है। जब हम कहते हैं कि अमुक पदार्थ पानी है, तब हमारे मन में उसके एक वा अधिक धर्मों की भावना रहती है और इन्हीं धर्मों की भावना से हम उस पदार्थ को पानी के बदले कोई दूसरा पदार्थ नहीं समझते। पदार्थ माने कुछ विशेष धर्मांे के मेल से बनी हुई एक मूर्ति है। प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक पदार्थ के सभी धर्मों का ज्ञान होना कठिन है परंतु जिस पदार्थ को वह जानता है, उसके एक न एक धर्म का परिचय उसे अवश्य रहता है। कोई-कोई धर्म एक से अधिक पदार्थों में भी पाए जाते हैं; जैसे लंबाई, चैड़ाई, मुटाई, वजन, आकार इत्यादि।
पदार्थ का धर्म पदार्थ से अलग नहीं रह सकता अर्थात् हम यह नहीं कह सकते कि यह घोड़ा है और वह उसका बल या रूप है। तो भी हम अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा परस्पर संबंध रखनेवाली भावनाओं को अलग कर सकते हैं। हम घोड़े के और-और धर्मों की भावना न करके केवल उसके बल की भावना मन में ला सकते हैं और आवश्यकता होने पर भावना को किसी दूसरे प्राणी (जैसे हाथी) के बल की भावना के साथ मिला सकते हैं।
जिस प्रकार जातिवाचक संज्ञाएँ अर्थवान् होती हैं, उसी प्रकार भाववाचक संज्ञाएँ भी अर्थवान् होती हैं, क्योंकि उनके समान इनसे भी धर्म का बोध होता है। व्यक्तिवाचक संज्ञा के समान भाववाचक संज्ञा से भी किसी एक ही भाव का बोध होता है। ‘धर्म’, ‘गुण’ और ‘भाव’ प्रायः पर्यायवाचक शब्द हैं। ‘भाव’ शब्द का उपयोग (व्याकरण के) नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ
(क) धर्म-गुण के अर्थ में; जैसेμठंडाई, शीतलता, धीरज, मिठास, बल, बुद्धि, क्रोध आदि।
(ख) अवस्थाμनींद, रोग, उजाला, अँधेरा, पीड़ा, दरिद्रता, सफाई इत्यादि।
(ग) व्यापारμचढ़ाई, बहाव, दान, भजन, बोलचाल, दौड़, पढ़ना इत्यादि।
104. भाववाचक संज्ञाएँ बहुधा तीन प्रकार के शब्दों से बनाई जाती हैं
(क) जातिवाचक संज्ञा से जैसे- बुढ़ापा, लड़कपन, मित्राता, दासत्व, पंडिताई, राज्य, मौन इत्यादि।
(ख) विशेषण से; जैसेμगरमी, सरदी, कठोरता, मिठास, बड़प्पन, चतुराई, धैर्य इत्यादि।
(ग) क्रिया से; जैसेμघबराहट, सजावट, चढ़ाई, बहाव, मार, दौड़, चलन इत्यादि।
105. जब व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग एक ही नाम के अनेक व्यक्तियों का बोध कराने के लिए अथवा किसी व्यक्ति का असाधारण धर्म सूचित करने के लिए किया जाता है, तब व्यक्तिवाचक संज्ञा जातिवाचक हो जाती है; जैसेμ‘कहु रावण, रावण जग केते। (रामा.) ‘राम तीन हैं।’ ‘यशोदा हमारे घर की लक्ष्मी है।’ ‘कलियुग के भीम।’
पहले उदाहरण में पहला ‘रावण’ शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा है और दूसरा ‘रावण’ शब्द जातिवाचक संज्ञा है। तीसरे उदाहरण में ‘लक्ष्मी’ संज्ञा जातिवाचक है; क्योंकि उससे विष्णु की स्त्राी का बोध नहीं होता, किंतु लक्ष्मी के समान एक गुणवती स्त्राी का बोध होता है। इसी प्रकार ‘राम’ और ‘भीम’ भी जातिवाचक संज्ञाएँ हैं। ‘गुप्तों की शक्ति क्षीण होने पर यह स्वतंत्रा हो गया था।’ (रस.)। इस वाक्य में ‘गुप्तों’ शब्द से अनेक व्यक्तियों का बोध होने पर भी वह नाम व्यक्तिवाचक संज्ञा है, क्योंकि इससे किसी व्यक्ति के विशेष धर्म का बोध नहीं होता, किंतु कुछ व्यक्तियों के एक विशेष समूह का बोध होता है।
106. कुछ जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के समान होता है; जैसेμपुरी = जगन्नाथ, देवी = दुर्गा, दाऊ = बलदेव, संवत् = विक्रमी संवत् इत्यादि। इसी वर्ग में वे शब्द शामिल हैं, जो मुख्य नामों के बदले उपनाम के रूप में आते हैं; जैसेμसितारेहिंद = राजा शिवप्रसाद, भारतेंदु = बाबू हरिश्चंद्र, गुसाईं जी = गोस्वामी तुलसीदास, दक्षिण = दक्षिणी हिंदुस्तान इत्यादि। बहुत सी योगरूढ़ संज्ञाएँ, जैसेμगणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल इत्यादि मूल में जातिवाचक संज्ञाएँ हैं; परंतु अब इनका प्रयोग जातिवाचक अर्थ में नहीं किंतु व्यक्तिवाचक अर्थ में होता है।
107. कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा के समान होता है; जैसेμ‘उसके आगे सब रूपवती स्त्रिायाँ निरादर हैं’ (शकु.)। इस वाक्य में ‘निरादर’ शब्द से ‘निरादरयोग्य स्त्राी’ का बोध होता है। ‘ये सब कैसे अच्छे पहिरावे हैं’ (सर.)। यहाँ ‘पहिरावे’ का अर्थ ‘पहिनने के वस्त्रा’ हैं।
संज्ञा के स्थान में आनेवाले शब्द
108. सर्वनाम का उपयोग संज्ञा के स्थान में होता है, जैसेμ ‘मैं (सारथी) रास खींचता हूँ।’ (शकु.)। ‘यह (शकुंतला) वन में पड़ी मिली थी।’ (शकु.)।
109. विशेषण कभी-कभी संज्ञा के स्थान में आता है; जैसेμ‘इसके बड़ों का यह संकल्प है’ (शकु.)। ‘छोटे बड़े न ह्नै सकें’ (सत.)।
110. कोई-कोई क्रियाविशेषण संज्ञाओं के समान उपयोग में आते हैं; जैसेμ जिसका भीतर बाहर एक सा हो’ (सत्य.)। ‘हाँ में हाँ मिलाना’। ‘यहाँ की भूमि अच्छी है’ (भाषा.)।
111. कभी-कभी विस्मयादिबोधक शब्द संज्ञा के समान प्रयुक्त होता है; जैसेμ‘वहाँ हाय हाय मची है।’ ‘उनकी बड़ी वाह वाह हुई।’
112. कोई भी शब्द वा अक्षर केवल उसी शब्द वा अक्षर के अर्थ में संज्ञा के समान उपयोग में आ सकता है; जैसेμ‘मैं’ सर्वनाम है। तुम्हारे लेख में कई बार ‘फिर’ आया है। ‘का’ में ‘आ’ की मात्राा मिली है। ‘क्ष’ संयुक्त अक्षर है (दे. अंकμ87 इ)। हिंदी व्याकरण ध् 73
(टी.μसंज्ञा के भेदों के विषय में हिंदी वैयाकरणों का एकमत नहीं है। अधिकांश हिंदी व्याकरणों में संज्ञा के पाँच भेद माने गए हैंμजातिवाचक, व्यक्तिवाचक, गुणवाचक, भाववाचक और सर्वनाम। ये भेद कुछ तो संस्कृत व्याकरण के अनुसार और कुछ अँगरेजी व्याकरण के अनुसार हैं तथा कुछ रूप के अनुसार और कुछ प्रयोग के अनुसार हैं। संस्कृत के ‘प्रातिपदिक’ नामक शब्दभेद में संज्ञा, गुणवाचक (विशेषण) और सर्वनाम का समावेश होता है; क्योंकि उस भाषा में इन तीनों शब्दभेदों का रूपांतर प्रायः एक ही से प्रत्ययों के प्रयोग द्वारा होता है। कदाचित् इसी आधार पर हिंदी वैयाकरण तीनों शब्दभेदों को संज्ञा मानते हैं। दूसरा कारण यह जान पड़ता है कि संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण, इन तीनों ही से वस्तुओं का प्रत्यक्ष वा परोक्ष बोध होता है। सर्वनाम और विशेषण को संज्ञा के अंतर्गत मानना चाहिए अथवा उससे भिन्न अलग-अलग वर्गों में रखना चाहिए, इस विषय का विवेचन आगे चलकर सर्वनाम और विशेषण संबंधी अध्यायों में किया जाएगा। यहाँ केवल संज्ञा के उपभेदों पर विचार किया जाता है।
संज्ञा के जातिवाचक, व्यक्तिवाचक और भाववाचक उपभेद संस्कृत व्याकरण में नहीं हैं। ये उपभेद अँगरेजी व्याकरण में, दो अलग-अलग आधारों पर अर्थ के अनुसार किए गए हैं। पहले आधार में इस बात का विचार किया गया है कि संपूर्ण संज्ञाओं से या तो वस्तुओं का बोध होता है या धर्मों का, इस दृष्टि से संज्ञाओं के दो भेद माने गए हैंμ(1) पदार्थवाचक, (2) भाववाचक। दूसरे आधार में केवल पदार्थवाचक संज्ञाओं के अर्थ का विचार किया गया है कि उनसे या तो व्यक्ति (अकेले पदार्थ) का बोध होता है या जाति (अनेक पदार्थों) का और इस दृष्टि से पदार्थवाचक संज्ञाओं के दो भेद किए गए हैंμ(1) व्यक्तिवाचक, (2) जातिवाचक। दोनों आधारों को मिलाकर संज्ञा के तीन भेद होते हैंμ(1) व्यक्तिवाचक, (2) जातिवाचक और (3) भाववाचक। (सर्वनाम और विशेषण को छोड़कर) संज्ञाओं के ये तीन भेद हिंदी के कई व्याकरणों में पाए जाते हैं, परंतु उनमें इस वर्गीकरण के किसी भी आधार का उल्लेख नहीं मिलता। हिंदी के सबसे पुराने (आदम साहब के लिखे हुए एक छोटे से) व्याकरण में संज्ञा का एक और भेद ‘क्रियावाचक’ के नाम से दिया गया है। हमने क्रियावाचक संज्ञा को भाववाचक संज्ञा के अंतर्गत माना है, क्योंकि भाववाचक संज्ञा के लक्षण में क्रियावाचक संज्ञा भी आ जाती है। भाषा भास्कर में यह संज्ञा क्रिया का साधारण रूप वा ‘क्रियार्थक संज्ञा’ कही गई है। उसमें यह भी लिखा है कि यह धातु से बनती है (दे. अंक 188 अ)। यह भेद व्युत्पत्ति के अनुसार है और यदि इस प्रकार एक ही समय एक से अधिक आधारों पर वर्गीकरण किया जाय तो कई संकीर्ण विभाग हो जायँगे।
यहाँ अब मुख्य विचार यह है कि जब संज्ञा के ऊपर कहे हुए तीन भेद संस्कृत में नहीं हैं, तब उन्हें हिंदी में मानने की क्या आवश्यकता है? यथार्थ में अर्थ के अनुसार शब्दों के भेद करना तर्कशास्त्रा का विषय है, इसलिए व्याकरण में इन भेदों को केवल उनकी आवश्यकता होने पर मानना चाहिए। हिंदी में इन भेदों का काम रूपांतर और व्युत्पत्ति में पड़ता है, इसलिए ये भेद संस्कृत में न होने पर भी हिंदी में आवश्यक हैं। संस्कृत में भी परोक्ष रूप से भाववाचक संज्ञा मानी गई है। केशवराम भट्ट कृत ‘हिंदी व्याकरण’ में संज्ञा के भेदों में (संस्कृत की चाल पर) भाववाचक संज्ञा का नाम नहीं है, पर लिंगनिर्णय में यह नाम आया है। जब व्याकरण में संज्ञा के इस भेद का काम पड़ता है, तब इसको स्वीकार करने में क्या हानि है? किसी-किसी हिंदी व्याकरण में संज्ञा के समुदायवाचक और द्रव्यवाचक1 नाम के और दो भेद माने गए हैं पर अँगरेजी के समान हिंदी में इनकी विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती। इनके सिवा समुदायवाचक का समावेश व्यक्तिवाचक तथा जातिवाचक में और द्रव्यवाचक का समावेश जातिवाचक में हो जाता है।