पहला अध्याय / गीता हृदय: दूसरा भाग / सहजानन्द सरस्वती

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धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षे त्रे कुरुक्षे त्रे समवेता युयुत्सव:।

मामका: पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥1॥

धृतराष्ट्र ने पूछा - संजय, धर्म की भूमि कुरुक्षेत्र में जमा मेरे और पांडु-पक्ष के युद्धेच्छुक लोगों ने क्या किया? 1।

संजय उवाच

दृष्ट्वा तु पांडवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥2॥

संजय ने कहा - उस समय पांडवों की सेना व्यूह के आकार में (सजी) देख के राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जा के बात बोला (कि) -2।

पश्यैतां पांडुपु त्रा णामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढ़ां द्रुपदपु त्रे ण तव शिष्येण धीमता॥3॥

आचार्य, पांडु के बेटों की इस बड़ी सेना को (तो) देखिए। इसकी व्यूह रचना आप के चतुर चेले द्रुपद-पुत्र (धृष्टद्युम्न) ने की है। 3।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥4॥

इसमें शूर, बड़े धनुर्धारी (और) युद्ध में भीम एवं अर्जुन सरीखे सात्यकि, विराट, महारथी द्रुपद -4।


धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव:॥5॥

धृष्टकेतु, चेकितान, वीर्यवान काशिराज, कुंतिभोज पुरुजित, नरश्रेष्ठ शैव्य -5।

युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥6॥

पराक्रमी युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, अभिमन्यु और द्रौपदी के बेटे - ये सबके-सब महारथी हैं। 6।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥7॥

द्विजवर, हमारे जो चुने-चुनाए लोग हैं। उन्हें भी (अब) गौर से सुनिए। मेरी फौज के जो संचालक हैं उन्हें आपकी जानकारी के लिए बताता हूँ। 7।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥8॥

(वे हैं), आप, भीष्म, कर्ण, युद्ध विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा। 8।

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे तयक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥9॥

दूसरे भी बहुत से वीर हैं जिनने मेरे लिए प्राणों की बाजी लगा दी हैं, जो अनेक तरह के शस्त्र चलाने में कुशल हैं और सभी युद्धविद्या में निपुण हैं। 9।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥10॥

भीष्म के द्वारा रक्षित (संचालित) हमारी वह सेना काफी नहीं है। (लेकिन) इन (पांडवों) की यह भीम के द्वारा संचालित सेना तो काफी है।

इस श्लोक के अर्थ के संबंध में विशेष विचार पहले ही के पृष्ठों में किया जा चुका है। 10।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवंत: सर्व एव हि॥11॥

(इसलिए) जिसकी जो जगह ठीक हुई है उसी के अनुसार आप सभी लोग नाकों पर डटे रह के केवल भीष्म की ही रक्षा करें। 11।

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्ध : पितामह:।

सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं द ध्मौ प्रतापवान्॥12॥

(इतने ही में) दुर्योधन को खुश करने के लिए सभी कौरवों में बड़े-बूढ़े और प्रतापशाली भीष्मपितामह ने सिंह की तरह जोर से गर्जकर (अपना) शंख फूँका (शंख फूँकना युद्धारंभ की सूचना है)। 12।

तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥13॥

उसके बाद एक-एक शंख, नफीरी (शहनाई), छोटे-बड़े नगाड़े और गोमुखी (ये सभी बाजे) बज उठे (और) वह आवाज गूँज उठी। 13।

तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधव: माण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रद ध्म तु:॥14॥

उसके बाद सफेद घोड़े जुते बड़े रथ में बैठे हुए कृष्ण और अर्जुन ने भी अपने दिव्य - अलौकिक या असाधारण - शंख (प्रतिपक्षियों के उत्तर में) फूँके। 14।

पांचजन्यं हृषीकेशो देवद त्तं धनंजय:।

पौंड्रं द ध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:॥15॥

कृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त और भयंकर काम कर डालने वाले भीमसेन ने पौंड्र नामक बड़ा शंख फूँका। 15।

अनंतविजयं राजा कुंतीपुत्रो युधिष्ठिर:।

नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥16॥

कुंती के पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय, और नकुल एवं सहदेव ने (क्रमश:) सुघोष तथा मणिपुष्पक (नाम के शंख बजाए)। 16।

काश्यश्च परमेष्वास: शिखंडी च महारथ:।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥17॥

महाधनुर्धारी काशिराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि -17।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महाबाहु:शंखान्दध्मु: पृथक पृथक॥18॥

द्रुपद, द्रौपदी के सभी बेटे और लंबी बाँहों वाले अभिमन्यु इन सबने हे पृथिवीराज (धृतराष्ट्र), अलग-अलग शंख फूँके। 18।

स घोषो धार्त्त राष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्य पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥19॥

आकाश और जमीन को बार-बार गुँजा देने वाले उस घोर शब्द ने दुर्योधन के पक्षवालों का हृदय चीर दिया। 19।

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्त्त राष्ट्रान्कपि ध्व ज:।

प्रवृ त्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पांडव:॥20॥

उसके बाद दुर्योधन के पक्ष वालों को बाकायदा तैयार देख के (और यह जान के कि अब) अस्त्र-शस्त्र छूटने ही वाले हैं, महावीर की चिंहयुक्त ध्वजावाले अर्जुन ने, -20।

अर्जुन उवाच

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये रथं थापय मेऽच्युत॥21॥

हे महीपति, कृष्ण से यह बात कही कि अच्युत, दोनों फौजों के (ठीक) बीच में मेरा रथ खड़ा कर दीजिए। 21।

यावदेतान् निरीक्षेऽहं यो द्धु कामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥22॥

ताकि लड़ाई के मंसूबे वाले इन तैयार खड़े लोगों को देखूँ (तो कि आखिर) इस लड़ाई की दौरान में मुझे किन-किन के साथ लड़ना है। 22।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।

धार्त्त राष्ट्रस्य दुर्बु द्धै र्युद्धे प्रियचिकीर्षव:॥23॥

ये जो युद्ध में नालायक दुर्योधन के खैरखाह बनके यहाँ आए हैं और लड़ेंगे उन्हें (जरा मैं) देखूँगा (कि आखिर ये हैं कौन लोग)। 23।

संजय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥24॥

संजय ने कहा कि हे धृतराष्ट्र, अर्जुन के ऐसा कहने पर कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में सर्वश्रेष्ठ रथ खड़ा करके -24।

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति॥25॥

भीष्म, द्रोण तथा सभी राजाओं के सामने ही कहा कि अर्जुन, जमा हुए इन कुरु के वंशजों को देख ले। 25।

यहाँ कुरुवंशियों से तात्पर्य दोनों पक्ष के सभी लोगों से है। इसीलिए आगे 'सेनयोरुभयो:' लिखा है।

त त्रा पश्यत्स्थितान्पार्थ: पितृनथ पितामहान।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पु त्रा नृपौ त्रा न्सखींस्तथा॥26॥

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

वहाँ अर्जुन ने देखा (कि ये तो अपने) पिता, पितामह, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पोते, मित्र, ससुर और स्नेही (लोग ही) दोनों ही सेनाओं में खड़े हैं। 26-27।

तन्समीक्ष्य स कौंतेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥27॥

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

उन अपने ही सगे-संबंधियों को खड़े देख अर्जुन को परले दर्जे की दया ने घेर लिया (और) विषादयुक्त हो के वह ऐसा बोला। 27-28।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥28॥

सीदन्ति मम गा त्रा णि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥29॥

अर्जुन बोला - हे कृष्ण, इन अपने ही लोगों को युद्ध की इच्छा से यहाँ जमा देख के मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुँह बहुत सूख रहा है, मेरे शरीर में कँपकँपी हो रही है और रोएँ खड़े हो रहे हैं। 28-29।

गाण्डीवं स्रंसते हस्ता त्त्व क् चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:॥30॥

गांडीव धनुष हाथ से गिरा जा रहा है, त्वचा (समस्त शरीर) में आग-सी लगी है, खड़ा रहा सकता हूँ नहीं और मेरा मन चक्कर-सा काट रहा है। 30।

निमि त्ता नि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥31॥

हे केशव, लक्षण उलटे देख रहा हूँ। अपने ही लोगों को युद्ध में मार के खैरियत नहीं देखता। 31।

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥32॥

हे कृष्ण, (मैं) विजय नहीं चाहता, न राज्य ही चाहता हूँ और न सुख ही। हे गोविंद, राज्य, भोग और जिंदगी (भी) लेकर हम क्या करेंगे? 32।

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥33॥

जिनके लिए हमें राज्य, भोग और सुखों की चाह थी ये वही लोग (तो) प्राणों और धनों (की माया-ममता) को छोड़ के युद्ध में डटे हैं! 33।

आचार्या: पितर: पु त्रा स्तथैव च पितामहा:।

मातुला: श्वशुरा: पौ त्रा : श्याला: संबंधि नस्तथा॥ 34॥

आचार्य, बड़े-बूढ़े, लड़के, दादे, मामू, ससुर पोते, साले और संबंधी (लोग) -34।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रौलोक्यराजस्य हेतो: किं नु महीकृते॥ 35॥

(यदि) हमें मारते भी हों (तो भी) हे मधुसूदन, मैं इन्हें त्रौलोक्य (संसार) के राज्य के लिए भी मारना नहीं चाहता; (फिर इस) पृथ्वी की (तो) बात ही क्या? 35।

निहत्य धार्त्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:॥36॥

हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के संबंधियों को मार के हमें क्या खुशी होगी? (उलटे) इन आततायियों को मार के हमें पाप ही लगेगा। 36।

स्मृतियों में छ: तरह के लोगों को आततायी कहा गया है। 'जो आग लगाएँ, जहर दें, हाथ में हथियार लिए डटे हों, किसी की धन-संपत्ति छीनते हों, जमीन (खेत) छीनते हों और दूसरों की स्त्री को हरें - यही छ: - आततायी कहे जाते हैं' - "अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापह:। क्षेत्रदारापहर्त्ता च षडेते ह्याततायिन:" (वसिष्ठस्मृति 3।16)।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्त्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥37॥

इसलिए हमें अपने ही बंधु-बांधव कौरवों को मारना ठीक नहीं हैं। हे माधव, भला अपने ही लोगों को मार के हम सुखी कैसे होंगे? 37।

यद्यप्येते न पश्यंति लोभोपहतचेतस:।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥38॥

यद्यपि लोभ के चलते चौपट बुद्धिवाले ये (दुर्योधन वगैरह) कुल के संहार के दोष और मित्रों की बुराई करने के पाप को समझ नहीं रहे हैं। 38।

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मा न्निवर्त्ति तुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यभि दर्ज नार्दन॥39॥

(तथापि) हे जनार्दन, कुल के संहार के दोष को जानते हुए भी हम इस पाप से बचने के लिए (यह बात) क्यों न समझें? 39।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा : सनातना:।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥40॥

कुल के क्षय होने से सनातन-चिरंतन या पुराने-कुलधर्म चौपट हो जाते हैं और धर्मों के नष्ट हो जाने पर समूचे कुल को अधर्म दबा लेता है। 40।

यहाँ धर्म और अधर्म शब्द संकुचित धर्मशास्त्री य अर्थ में नहीं आए हैं। इसीलिए कुलधर्म कहने से ऐसी अनेक बातें, अनेक कलाएँ और बहुतेरी हिकमतें भी ली जाती हैं जिनके बारे में कही कोई लेख नहीं मिलता। किंतु जो परंपरा से व्यवहार में आती हैं। क्योंकि पूजा-पाठ आदि बातें तो पोथियों में लिखी रहती हैं। फलत: उनके नष्ट होने का सवाल तो उठता ही नहीं। वह कायम रही जाती हैं और किसी न किसी प्रकार उनका अमल हो ही सकता है। मगर जिनके बारे में कुछ भी कहीं लिखा-पढ़ा नहीं है उनका तो कोई उपाय नहीं रह जाता। जब उन्हें जानने और उन पर अमल करनेवाले ही नहीं रहे तो वे बचें कैसे? हमने साँप के जहर उतार देने और मृतप्राय आदमी को भी चंगा करने का ऐसा तरीका देखा है जो न लिखा गया है और न लिखा जा सकता है। वह तो अजीब चीज है जो समझ में भी नहीं आती है। मगर उस पर अमल होते खूब ही देखा है। इसी तरह की हजारों बातें होती हैं। इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जब किसी वंश का वंश ही खत्म हो जाता है और केवल नन्हे-नन्हे या गर्भ के बच्चे एवं स्त्रियाँ ही बच रहती हैं तो नादानी और अज्ञान के गहरे गढ़े में वह वंश डूब जाता है। फलत: बचे-बचाए प्राणीजान पाते ही नहीं कि क्या करें। इसीलिए अधर्म शब्द उसी अंधकार के मानी में आया है।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।

स्त्रीभषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:॥41॥

हे कृष्ण, अधर्म के दबाने पर कुलीन स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं (और) स्त्रियों के बिगड़ जाने पर, हे वार्ष्णेय, वर्णसंकर हो जाता है। 41।

इस पर विशेष विचार पहले के पृष्ठों में हो चुका है।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥42॥

(और यह) वर्णसंकर कुलघातियों को और (समूचे) कुल को (भी) जरूर ही नरक ले जाता है। क्योंकि इनके पितर या बड़े-बूढ़े पिंड और तर्पण की क्रियाओं के लुप्त हो जाने से पतित हो जाते हैं - नीचे जा गिरते हैं (और जब बड़े बूढ़े ही पतित हो गए तब तो अधोगति एवं अवनति का रास्ता ही साफ हो गया)। 42।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो 'हि' आया है - हि ऐषां (ह्येषां) - वह कारण का सूचक है। साधारणतया यह शब्द कारण सूचक ही होता है। इसका मतलब यह है कि पूर्वार्द्ध में जो नरक और पतन की बात कही गई है उसी की पुष्टि में हेतुस्वरूप आगे बातें लिखी गई हैं। यही कारण है कि 'पितर:' शब्द को व्यापक अर्थ में लेके हमने बड़े-बूढ़े अर्थ कर लिया है। पहले भी 34वें श्लोक में 'पितर:' का यही अर्थ है। इसीलिए सिर्फ किसी स्थान या लोक विशेष में, जिसे स्वर्ग या पितृलोक कहते हैं, रहनेवालों के ही अर्थ में हमने उस शब्द को नहीं लिया है। हमारे अर्थ में वे भी आ जाते हैं। इसीलिए पिंड और उदक क्रिया का भी व्यापक ही अर्थ है। फलत: अन्न-जल आदि से आदर सत्कार एवं अतिथि पूजा वगैरह भी इसमें आ जाती है। साधारणत: समझा जानेवाला पिंडदान एवं तर्पण तो आता ही है।

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।

उत्साद्यन्ते जातिधर्मा : कुलधर्माश्च शाश्वता:॥43॥

वर्णसंकर पैदा करनेवाले कुलघातियों के इन दोषों के करते सनातन जाति धर्मों और कुलधर्मों का नाश हो जाता है। 43।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥44॥

हे जनार्दन हम ऐसा सुनते हैं कि जिन लोगों के कुलधर्म (आदि) निर्मूल हो जाते हैं उन्हें जरूर ही नरक में जाना पड़ता है। 44।

अहो बत महत्पापं क र्त्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता॥45॥

ओह, अफसोस, हम बहुत बड़ा पाप करने चले हैं। क्योंकि राज्य और सुख के लोभ से अपने ही लोगों को मारने के लिए तैयार हो गए हैं! 45।

यदि मामप्रतीकारमश स्त्रं शस्त्रपाणय:।

धार्त्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥46॥

(विपरीत इसके) अगर मैं शस्त्र-रहित हो के अपने बचने का भी कोई उपाय न करूँ (और ये) शस्त्रधारी दुर्योधन के आदमी मुझे मार (भी) डालें तो भी मेरा भला ही होगा। 46।



संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥47॥

संजय बोला - चिंता और अफसोस से उद्विग्न चित्त अर्जुन ऐसा कह के (और) धनुष बाण को छोड़ के युद्ध के मैदान में ही रथ में बैठ गया। 47।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याभय:॥1॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका अर्जुन-विषादयोग नामक पहला अध्या्य यही है।

अर्जुन का विषाद, युद्ध की हानियाँ और फलस्वरूप लड़ने में अर्जुन का जो विराग इस अध्यारय में दिखाया गया है वह सभी युद्धों की समाजघातकता को बता के उनकी निंदा करता है। जिनने बीसवीं शताब्दी के साम्राज्यवादी युद्धों को देखा और जाना है वह बखूबी समझ सकते हैं कि इनसे कुल, जाति, देश और उनके धर्मों का जितना भयंकर संहार होता है और सभी प्रकार के पतन का सामना वे किस कदर जमा कर देते हैं। उनके चलते समूचे देश के देश की हर तरह की प्रगति किस प्रकार रुक जाती और समाज अवनति के अतलगर्त्त में जा गिरता है यह बात उन्हें साफ विदित है। इसीलिए अर्जुन की बातें वे आसानी से समझ सकते हैं। फलत: इनमें उन्हें कोई अलौकिकता मालूम न होगी।