पहला अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता
वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुंह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल-लाल आंखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दांत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, ‘‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।’’ इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पा की टांग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहां से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, ‘‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं !’’ चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, ‘‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहां न आयें इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।’’
चन्द्रकान्ता: इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा ?
तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।
यह कहकर वीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।
चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ ! आंखों में आंसू पर चपला से बोली, ‘‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है ! तुमने क्या खयाल किया ?’’
चपला ने कहा, ‘‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।’’ चम्पा बोली, ‘‘ न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी ?’’
चम्पा की बात पर चपला को हंसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया ? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, ‘‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।’’ बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।
देखते ही सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, ‘‘इस समय आपके एकाएक आने...!’’ इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो ? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।’’ यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।
चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, ‘‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी ? ऐसे शैतान का तो मुंह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।’’ यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।
हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुंचा जहां वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, ‘‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।’’क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया ? क्या चोर नहीं मिला ? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, ‘‘महाराज क्या कह रहे हैं ?’’ उसने कहा, ‘‘अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।’’ यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता कांपता हरीसिंह महाराज के पास पहुंचा।
महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, ‘‘क्यों बे क्रूर ! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है ? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे ? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है !’’
मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आंखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, ‘‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुंचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।’’ यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, ‘‘बुलाओ नाजिम को।’’ थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुंह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, ‘‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुंचाई ?’’ उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, ‘‘मैंने तो अपनी आंखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।’’
जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, ‘‘पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें ! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।’’
अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगर मारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।
क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, ‘‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई ! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ !’’ नाजिम कहता था-‘‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था ? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता !’’ ये दोनों आपस में यूं ही पहरों झगड़ते रहे।
अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।’’ नाजिम ने कहा, ‘‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूं और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊंगा।’’
क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेन्द्रसिंह को अपनी आंखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।’’
बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, ‘‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहां है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा ? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।’’
आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बांध दो तेज घोड़े मंगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।