पहला उम्मीदवार / जगदीश कश्यप
इण्टरव्यू के लिए आए इतने आदमियों को देखकर उसे कोई अचम्भा नहीं हुआ। लेकिन चपरासी की पोस्ट के लिए इतनी लम्बी भीड़ उसने पहली बार देखी थी। हर बार की तरह वह इस बार एम० ए० तक के प्रमाणपत्र लाना उचित न समझा, क्योंकि फार्म में तो कुल हाई स्कूल ही भरा था। जब उससे पूछा जाएगा कि इतने साल वह क्या करता रहा तो उसका सीधा-सा जवाब होगा—
‘साब! इतने दिन में भाई की दुकान पर चाय बनाता रहा हूँ। शादी होने के कारण अब वह मुझसे अलग हो गया, इसलिए सारे घर का भार मुझ पर ही आ गया है। मुझे हिंदी-अंग्रेजी की टाइप भी आती है।'
‘नहीं-नहीं!’ वह ये शब्द नहीं बोलेगा। नहीं तो खामख्वाह शक हो जाएगा।’
‘मास्टरजी, आप यहां?’ किसी न उसे टोका तो वह हड़बड़ा गया। वह गणेशी था।. जिसे उसने हाई स्कूल में टयूशन पढ़ाया था।
‘तू यहाँ कैसे गणेशी?’ वह समझ रहा था कि गणेशी ने भी चपरासी की पोस्ट के लिए फार्म भरा होगा।
‘मास्टरजी आपकी दुआ से हाईस्कूल पास कर लिया. पर आई० टी० आई० करने के बाद भी खाली हूँ। इस बार फार्म भरा है। यहाँ चाचा का लड़का स्टोरकीपर है. क्या पता काम बन जाए ! पर आप यहाँ कैसे?
तत्काल ही उसके मुँह से निकला — ‘चाचा का लड़का गांव से आया था। उसने भी फार्म भरा है। उसी को ढूँढ़ रहा हूँ, न जाने कहाँ चला गया है! अच्छा मैं अभी आया.’ कहते ही वह पलट पड़ा।
इण्टरव्यू के लिए पुकार शुरू हुई — ‘मिस्टर रवि कुमार !’
कोई नहीं बोला तो दुबारा पुकारा गया। इस बार सब लोग एक-दूसरे के चेहरे देखने लगे। जब तीसरी बार जोर से पुकारा गया तो आपस में खुसर-पुसर होने लगी। उधर गणेशी सोच रहा था — ‘रविकुमार तो उसके मास्टरजी हैं।’