पहला दृश्य / अंक-1 / संग्राम / प्रेमचंद
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प्रभात का समय। सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही हैं। वृक्षपुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नई-नई कोपलें निकल रही हैं। खेतों में हरियाली छाई हुई है। कहीं-कहीं सरसों भी फूल रही है। शीत-बिंदु पौधों पर चमक रहे हैं।
हलधर : अब और कोई बाधा न पड़े तो अबकी उपज अच्छी होगी। कैसी मोटी-मोटी बालें निकल रही हैं।
राजेश्वरी : यह तुम्हारी कठिन तपस्या का फल है।
हलधर : मेरी तपस्या कभी इतनी सफल न हुई थी। यह सब तुम्हारे पौरे की बरकत है।
राजेश्वरी : अबकी से तुम एक मजूर रख लेना। अकेले हैरान हो जाते हो।
हलधर : खेत ही नहीं है। मिलें तो अकेले इसके दुगुने जोत सकता हूँ।
राजेश्वरी : मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊ के बिना घर सूना मालूम होता है।
हलधर : मैं पहले तुम्हारे लिए कंगन बनवाकर तब दूसरी बात करूंगा। महाजन से रूपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।
राजेश्वरी : कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजन से उधर लो।अभी पहले का भी तो कुछ देना है।
हलधर : जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मैके से बुलावा आएगा ही। किसी नए गहने बिना जाओगी तो तुम्हारे गांव-घर के लोग मुझे हंसेंगे कि नहीं ?
राजेश्वरी : तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करज लेकर कंगन न बनवाऊँगी। हां, गाय पालना जरूरी है। किसान के घर गोरस न हो तो किसान कैसा तुम्हारे लिए दूध-रोटी का कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेना, चाहे दाम कुछ बेशी देना पड़ जाए।
हलधर : तुम्हें और हलकान न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लो, फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।
राजेश्वरी : खेलना-खाना भाग्य में लिखा होता तो सास-ससुर क्यों सिधार जाते ? मैं अभागिन हूँ। आते-ही-आते उन्हें चट कर गई। नारायण दें तो उनकी बरसी धूम से करना।
हलधर : हां, यह तो मैं पहले ही सोच चुका हूँ, पर तुम्हारा कंगन बनना भी जरूरी है। चार आदमी ताने देने लगेंगे तो क्या करोगी ?
राजेश्वरी : इसकी चिंता मत करो, मैं उनका जवाब दे लूंगी लेकिन मेरी
तो जाने की इच्छा ही नहीं है। जाने और बहुएं कैसे मैके जाने को व्याकुल होती हैं, मेरा तो अब वहां एक दिन भी जी न लगेगी। अपना घर सबसे अच्छा लगता है। अबकी तुलसी का चौतरा जरूर बनवा देना, उसके आस-पास बेला, चमेली, गेंदा और गुलाब के फूल लगा दूंगी तो आंगन की शोभा कैसी बढ़ जाएगी!
हलधर : वह देखो, तोतों का झुंड मटर पर टूट पड़ा।
राजेश्वरी : मेरा भी जी एक तोता पालने को चाहता है। उसे पढ़ाया करूंगी।
हलधर गुलेल उठाकर तोतों की ओर चलाता है।
राजेश्वरी : छोड़ना मत, बस दिखाकर उड़ा दो।
हलधर : वह मारा ! एक फिर गया।
राजेश्वरी : राम-राम, यह तुमने क्या किया? चार दानों के पीछे उसकी जान ही ले ली। यह कौन-सी भलमनसी है ?
हलधर : (लज्जित होकर) मैंने जानकर नहीं मारा।
राजेश्वरी : अच्छा तो इसी दम गुलेल तोड़कर फेंक दो। मुझसे यह पाप नहीं देखा जाता। किसी पशु-पक्षी को तड़पते देखकर मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मैंने तो दादा को एक बार बैल की पूंछ मरोड़ते देखा था, रोने लगी। तब दादा ने वचन दिया कि अब कभी बैलों को न मारूंगा। तब जाके चुप हुई मेरे गांव में सब लोग औंगी से बैलों को हांकते हैं। मेरे घर कोई मजूर भी औंगी नहीं चला सकता।
हलधर : आज से परन करता हूँ कि कभी किसी जानवर को न मारूंगा।
फत्तू मियां का प्रवेश।
फत्तू : हलधर, नजर नहीं लगाता, पर अबकी तुम्हारी खेती गांव भर से उसपर है। तुमने जो आम लगाए हैं वे भी खूब बौरे हैं।
हलधर : दादा, यह सब तुम्हारा आशीर्वाद है। खेती न लगती तो काका की बरसी कैसे होती ?
फत्तू : हां बेटा, भैया का काम दिल खोलकर करना।
हलधर : तुम्हें मालूम है दादा, चांदी का क्या भाव है। एक कंगन बनवाना था।
फत्तू : सुनता हूँ अब रूपये की रूपये-भर हो गई है। कितने की चांदी लोगे ?
हलधर : यही कोई चालीस-पैंतालीस रूपये की।
फत्तू : जब कहना चलकर ले दूंगा। हां, मेरा इरादा कटरे जाने का है। तुम भी चलो तो अच्छा। एक अच्छी भैंस लाना । गुड़ के रूपये तो अभी रखे होंगे न ?
हलधर : कहां दादा, वह सब तो कंचनसिंह को दे दिए । बीघे-भर भी तो न थी, कमाई भी अच्छी न हुई थी, नहीं तो क्या इतनी जल्दी पेल-पालकर छुट्टी पा जाता ?
फत्तू : महाजन से तो कभी गला ही नहीं छूटता।
हलधर : दो साल भी तो लगातार खेती नहीं जमती, गला कैसे छूटे!
फत्तू : यह घोड़े पर कौन आ रहा है ? कोई अफसर है क्या ?
हलधर : नहीं, ठाकुर साहब तो हैं। घोड़ा नहीं पहचानते ? ऐसे सच्चे पानी का घोड़ा दस-पांच कोस तक नहीं है।
फत्तू : सुना, एक हजार दाम लगते थे पर नहीं दिया ।
हलधर : अच्छा जानवर बड़े भागों से मिलता है। कोई कहता था। अबकी घुड़दौड़ में बाजी जीत गया। बड़ी-बड़ी दूर से घोड़े आए थे, पर कोई इसके सामने न ठहरा । कैसा शेर की तरह गर्दन उठा के चलता है।
फत्तू : ऐसे सरदार को ऐसा ही घोड़ा चाहिए । आदमी हो तो ऐसा हो, अल्लाह ने इतना कुछ दिया है, पर घमंड छू तक नहीं गया। एक बच्चा भी जाए तो उससे प्यार से बातें करते हैं। अबकी ताऊन के दिनों में इन्होंने दौड़-धूप न की होती तो सैकड़ों जानें जातीं ।
हलधर : अपनी जान को तो डरते ही नहीं इधर ही आ रहे हैं। सबेरे-सबेरे भले आदमी के दर्शन हुए।
फत्तू : उस जन्म के कोई महात्मा हैं, नहीं तो देखता हूँ जिसके पास चार पैसे हो गए वह यही सोचने लगता है कि किसे पीस के पी जाऊँ। एक बेगार भी नहीं लगती, नहीं तो पहले बेगार देते-देते धुर्रे उड़ जाते थे। इसी गरीबपरवर की बरकत है कि गांवों में न कोई कारिंदा है, न चपरासी, पर लगान नहीं रूकता। लोग मीयाद के पहले ही दे आते हैं। बहुत गांव देखे पर ऐसा ठाकुर नहीं देखा ।
सबलसिंह घोड़े पर आकर खड़ा हो जाता है। दोनों आदमी झुक-झुककर सलाम करते हैं। राजेश्वरी घूंघट निकाल लेती है।
सबल : कहो बड़े मियां, गांव में सब खैरियत है न ?
फत्तू : हुजूर के अकबाल से सब खैरियत है।
सबल : फिर वही बात । मेरे अकबाल को क्यों सराहते हो, यह क्यों नहीं कहते कि ईश्वर की दया से या अल्लाह के फजल से खैरियत है। अबकी खेती तो अच्छी दिखाई देती है ?
फत्तू : हां सरकार, अभी तक तो खुदा का फजल है।
सबल : बस, इसी तरह बातें किया करो। किसी आदमी की खुशामद मत करो, चाहे वह जिले का हाकिम ही क्यों न हो, हां, अभी किसी अफसर का दौरा तो नहीं हुआ ?
फत्तू : नहीं सरकार, अभी तक तो कोई नहीं आया।
सबल : और न शायद आएगी। लेकिन कोई आ भी जाए तो याद रखना, गांव से किसी तरह की बेगार न मिले। साफ कह देना, बिना जमींदार के हुक्म के हम लोग कुछ नहीं दे सकते। मुझसे जब कोई पूछेगा तो देख लूंगा। (मुस्कराकर) हलधर ! नया गौना लाए हो, हमारे घर बैना नहीं भेजा ?
हलधर : हुजूर, मैं किस लायक हूँ।
सबल : यह तो तुम तब कहते जब मैं तुमसे मोतीचूर के लड्डू या घी के खाजे मांगता। प्रेम से शीरे और सत्तू के लड्डू भेज देते तो मैं उसी को धन्य-भाग्य कहता। यह न समझो कि हम लोग सदा घी और मैदे खाया करते हैं। मुझे बाजरे की रोटियां और तिल के लड्डू और मटर के चबेना कभी-कभी हलवा और मुरब्बे से भी अच्छे लगते हैं। एक दिन मेरी दावत करो, मैं तुम्हारी नयी दुलहिन के हाथ का बनाया हुआ भोजन करना चाहता हूँ। देखें यह मैके से क्या गुन सीख कर आई है। मगर खाना बिल्कुल किसानों का-सा हो, अमीरों का खाना बनवाने की फिक्रमत करना।
हलधर : हम लोगों के लिट्टे सरकार को पसंद आएंगे ?
सबल : हां, बहुत पसंद आएंगे।
हलधर : जब हुक्म हो,
सबल : मेहमान के हुक्म से दावत नहीं होती। खिलाने वाला अपनी मर्जी से तारीख और वक्त ठीक करता है। जिस दिन कहो, आऊँ। फत्तू, तुम बतलाओ, इसकी बहू काम-काज में चतुर है न ? जबान की तेज तो नहीं है ?
फत्तू : हुजूर, मुंह पर क्या बखान करूं, ऐसी मेहनतिन औरत गांव में और नहीं है। खेती का तार-तौर जितना यह समझती है उतना हलधर भी नहीं समझता। सुशील ऐसी है कि यहां आए आठवां महीना होता है, किसी पड़ोसी ने आवाज नहीं सुनी।
सबल : अच्छा तो मैं अब चलूंगा, जरा मुझे सीधे रास्ते पर लगा दो, नहीं तो यह जानवर खेतों को रौंद डालेगा। तुम्हारे गांव से मुझे साल में पंद्रह सौ रूपये मिलते हैं। इसने एक महीने में पांच हजार रूपये की बाजी मारी। हलधर, दावत की बात भूल न जाना।
फत्तू और सबलसिंह जाते हैं।
राजेश्वरी : आदमी काहे को है, देवता हैं। मेरा तो जी चाहता था। उनकी बातें सुना करूं। जी ही नहीं भरता था।एक हमारे गांव का जमींदार है कि प्रजा को चैन नहीं लेने देता। नित्य एक-न -एक बेगार, कभी बेदखली, कभी जागा, कभी कुड़की, उसके सिपाहियों के मारे छप्पर पर कुम्हड़े-कद्दू तक नहीं बचने पाते। औरतों को राह चलते छेड़ते हैं। लोग रात-दिन मनाया करते हैं कि इसकी मिट्टी उठे। अपनी सवारी के लिए हाथी लाता है, उसका दाम असामियों से वसूल करता है। हाकिमों की दावत करता है, सामान गांव वालों से लेता है।
हलधर : दावत सचमुच करूं कि दिल्लगी करते थे ?
राजेश्वरी : दिल्लगी नहीं करते थे, दावत करनी होगी। देखा नहीं, चलते-चलते कह गए। खाएंगे तो क्या, बड़े आदमी छोटों का मान रखने के लिए ऐसी बातें किया करते हैं, पर आएंगे जरूर।
हलधर : उनके खाने लायक भला हमारे यहां क्या बनेगा ?
राजेश्वरी : तुम्हारे घर वह अमीरी खाना खाने थोड़े ही आएंगी। पूरी-मिठाई तो नित्य ही खाते हैं। मैं तो कुटे हुए जौ की रोटी, सावां की महेर, बथुवे का साफ, मटर की मसालेदार दाल और दो-तीन तरह की तरकारी बनाऊँगी। लेकिन मेरा बनाया खाएंगे ? ठाकुर हैं न ?
हलधर : खाने-पीने का इनको कोई विचार नहीं है। जो चाहे बना दे। यही बात इनमें बुरी है। सुना है अंग्रेजों के साथ कलपघर में बैठकर खाते हैं।
राजेश्वरी : ईसाई मत में आ गए ?
हलधर : नहीं, असनान, ध्यान सब करते हैं। गऊ को कौरा दिए बिना कौर नहीं उठाते। कथा-पुराण सुनते हैं। लेकिन खाने-पीने में भ्रष्ट हो गए हैं।
राजेश्वरी : उह, होगा, हमें कौन उनके साथ बैठकर खाना है। किसी दिन बुलावा भेज देना । उनके मन की बात रह जाएगी।
हलधर : खूब मन लगा के बनाना।
राजेश्वरी : जितना सहूर है उतना करूंगी। जब वह इतने प्रेम से भोजन करने आएंगे तो कोई बात उठा थोड़े ही रखूंगी। बस, इसी एकादशी को बुला भेजो, अभी पांच दिन हैं।
हलधर : चलो, पहले घर की सगाई तो कर डालें।
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