पहला दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : चेतनदास की कुटी, गंगातट।
समय : संध्या।
सबल : महाराज, मनोवृत्तियों के दमन करने का सबसे सरल उपाय क्या है ?
चेतनदास : उपाय बहुत हैं, किंतु मैं मनोवृत्तियों के दमन करने का उपदेश नहीं करता। उनको दमन करने से आत्मा संकुचित हो जाती है। आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियों का दमन कर दिया जाए तो मनुष्य की चेतना-शक्ति लुप्त हो जाएगी। योगियों ने इच्छाओं को रोकने के लिए कितने यत्न लिखे हैं। हमारे योगग्रंथ उन उपदेशों से परिपूर्ण हैं। मैं इन्द्रियों का दमन करना अस्वाभाविक, हानिकर और आपत्तिजनक समझता हूँ।
सबल : (मन में) आदमी तो विचारशील जान पड़ता है। मैं इसे रंगा हुआ समझता था।(प्रकट) यूरोप के तभवज्ञानियों ने कहीं-कहीं इस विचार का पुष्टीकरण किया है, पर अब तक मैं उन विचारों को भ्रांतिकारक समझता था।आज आपके श्रीमुख से उनका समर्थन सुनकर मेरे कितने ही निश्चित सिद्वांतों को आघात पहुंच रहा है।
चेतनदास : इंद्रियों द्वारा ही हमको जगत् का ज्ञान प्राप्त होता है। वृत्तियों का दमन कर देने से ज्ञान का एकमात्र द्वार ही बंद हो जाता है। अनुभवहीन आत्मा कदापि उच्च पद नहीं प्राप्त कर सकती। अनुभव का द्वार बंद करना विकास का मार्ग बंद करना है, प्रकृति के सब नियमों के कार्य मंन बाधा डालना है। आत्मा मोक्षपद प्राप्त कर सकती है। जिसने अपने ज्ञान द्वारा इंद्रियों को मुक्त रखा हो, त्याग का महत्व आडान में नहीं है। जिसने मधुर संगीत सुना ही न हो उसे संगीत की रूचि न हो तो कोई आश्चर्य नहीं आश्चर्य तो तब है जब वह संगीतकला का भली-भांति आस्वादन करने, उसमें लिप्त होने के बाद वृत्तियों को उधर से हटा ले। वृत्तियों का दमन करना वैसा ही है जैसे बालको को खड़े होने या दौड़ने से रोकना। ऐसे बालक को चोट चाहे न लगे पर वह अवश्य ही अपंग हो जाएगी।
सबल : (मन में) कितने स्वाधीन और मौलिक विचार हैं। (प्रकट) तब तो आपके विचार में हमें अपनी इच्छाओं को अबाध्य कर देना चाहिए ।
चेतनदास : मैं तो यहां तक कहता हूँ कि आत्मा के विकास में पापों का भी मूल्य है। उज्ज्वल प्रकाश सात रंगों के सम्मिश्रण से बनता है। उसमें लाल रंग का महत्व उतना ही है जितना नीले या पीले रंग का। उत्तम भोजन वही है जिसमें षट्रसों का सम्मिश्रण हो, इच्छाओं को दमन करो, मनोवृत्तियों को रोको, यह मिथ्या तभववादियों के ढकोसले हैं। यह सब अबोध बालकों को डराने के जू-जू हैं। नदी के तट पर न जाओ, नहीं तो डूब जाओगे, यह मूर्ख माता-पिता की शिक्षा है। विचारशील प्राणी अपने बालको को नदी के तट पर केवल ले ही नहीं जाते वरन् उसे नदी में प्रविष्ट कराते हैं, उसे तैरना सिखाते हैं।
सबल : (मन में) कितनी मधुर वाणी है। वास्तव में प्रेम चाहे कलुषित ही क्यों न हो, चरित्र-निर्माण में अवश्य अपना स्थान रखता है। (प्रकट) तो पाप कोई घृणित वस्तु नहीं ?
चेतनदास : कदापि नहीं संसार में कोई वस्तु घृणित नहीं है, कोई वस्तु त्याज्य नहीं है। मनुष्य अहंकार के वश होकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। वास्तव में धर्म और अधर्म, सुविचार और कुविचार, पाप और पुण्य, यह सब मानव जीवन की मध्यवर्ती अवस्थाएं मात्र हैं।
सबल : (मन में) कितना उदार ह्रदय है ! (प्रकट) महाराज, आपके उपदेश से मेरे संतप्त मन को बड़ी शांति प्राप्त हुई (प्रस्थान)।
चेतनदास : (आप-ही-आप) इस जिज्ञासा का आशय खूब समझता हूँ। तुम्हारी अशांति का रहस्य खूब जानता हूँ। तुम फिसल रहे थे, मैंने एक धक्का और दे दिया । अब तुम नहीं संभल सकते।