पहला दृश्य / समरेखा-विषमरेखा / विष्णु प्रभाकर
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पात्र परिचय
रेवा: बैरिस्टर की पत्नी
केशव: रेवा का पति
रंजन: रेवा का पूर्व मित्र
जमना: बूढ़ी परिचारिका
हरि: सेवक
डाकिया
पहला दृश्य
(एक बैरिस्टर का ड्राइंग रूम, बहुत आधुनिक ढंग से सजा हुआ है। बाईं ओर का दरवाजा बाहर जाता है, दाईं ओर का भीतर। पीछे की ओर भी दो दरवाजे हैं, जिनमें से एक शयनकक्ष में जाता है, दूसरा श्रृंगार-कक्ष में। सजावट में विलासिता इतनी नहीं है, जितनी कलाप्रियता। परदा उठने पर रेवा सोफे पर बैठी दिखाई देती है। सुन्दर युवती है, जूड़ा बाँधे, साड़ी कंधे पर, आँखों में शरारत, ओठों पर मुस्कान, गौर वर्ण, पर सब मिला कर प्रभाव में गम्भीरता का अभाव नहीं है। इस समय उसके सामने तिपाई पर कुछ सुन्दर केस रखे हैं। उनमें नाना प्रकार के कीमती आभूषण हैं। रेवा एक हार लिए उसे परखने की चेष्टा कर रही है। परखती-परखती मुस्करा कर बोल उठती है।)
रेवा: (मुस्करा कर) बैरिस्टर साहब वैसे हैं होशियार। मेरे खो जाने का उन्हें कितना डर है! कभी गहने, कभी साड़ी, कभी यह, कभी वह, कुछ न कुछ लाते ही रहते हैं! किसी चीज का किसी सिलसिले में जरा जिक्र हुआ नहीं कि वह उसी दिन हाजिर हो जाती है...
(बूढ़ी परिचारिका जमना का प्रवेश)
जमना: बहूरानी! तुम तो अभी तक यहीं बैठी हो! उधर रसोई में... ।
रेवा: (एकदम) ओह, काकी! मैं सचमुच भूल गई। अभी चलती हूँ, पर यह तो बताओ कि तुम्हारे साहब को गहनों का इतना शौक क्यों है?
जमना: आय हाय! वह तो सब तुम्हारे लिए है। घर में रोशनी हुई है, तो...
रेवा: तो पतंगे आएँगे ही। (हँसती है) तुम तो काकी, पिछले जन्म में कवयित्री रही होगी?
जमना: (हँस कर) क्या कहा, बहूरानी? कबूतरी?... ह...ह...ह कबूतरी? बहूरानी! कह ले, कहने की तेरी उमर है! पर कबूतरी असल में तू है। हाँ, कभी दिन थे तो...
डाकिया: (आवाज आती है) डाक ले जाना, काकी!
जमना: आय हाय! क्या डाक भी आ गई? एक बज गया! (पुकार कर) आती हूँ। (जाती है)
रेवा: (फिर हार उठाकर हँसती हुई) कबूतरी... कबूतरी... (हँसती है।) काकी भी जवानी में... वैसे यह हार बुरा नहीं है। पहन कर देखूँ! (पहन कर श्रृंगार कक्ष की ओर मुड़ती है, तभी काकी आ जाती है)
जमना: बहूरानी! तुम्हारी चिट्ठी...
रेवा: मेरी चिट्ठी? लाओ! देखूँ (जमना रेवा को चिट्ठी देकर जाती है।)
जमना: (जाती हुई) चिट्टी पढ़ कर जल्दी आना!
रेवा: (चिट्ठी देखकर चौंकती है) यह किसकी चिट्ठी है... रंजन महाशय की! उसने मुझे चिट्ठी लिखी है! (शीघ्रता से लिफाफा फाड़ती है।) रेबू! सुना है कि तुम बहुत खुश हो, बहुत पैसा है! इधर मैं बहुत अभाव में हूँ। सोचता हूँ कि क्यों न कुछ दिन तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करूँ। अच्छा स्थान हुआ तो कुछ दिन चित्र बनाना चाहता हूँ। यहाँ तो राजनीति में दम घुटने लगा है। आऊँ न? पर कहीं तुम्हारे ‘वे’ मेरी उग्रता से डर तो न जाएँगे? डरना तो नहीं चाहिए! बैरिस्टर हैं। फिर सुना है, रूप के उपासक है और तुम रूपसी हो!
तो रेबू! आ रहा हूँ। कैसा स्थान चाहिए, कैसे रहता हूँ, यह सब तुम जानती हो। रहना एक माह या उससे भी अधिक हो सकता है। अच्छा, मिलने तक! अपने उनको मेरा भी प्रणाम कहना।... रंजी। (पढ़ने पर मुख के भाव पलटते हैं। फिर पढ़ती है। फुसफुसाती है) रंजी यहाँ आना चाहता है! कैसी बेतकल्लुफी से लिखा है - रेबू! सुना है कि तुम बहुत खुश हो! बहुत पैसा है... सुना है, रूप के उपासक हैं और तुम रूपसी हो... कैसा स्थान चाहता हूँ, कैसे रहता हूँ, तुम जानती हो... रंजी। रेबू-रंजी, रेबू-रंजी...
जमना: (आकर) किसकी चिट्ठी है? कोई ऐसी-वैसी बात है? तुम्हारा चेहरा...
रेवा: (एकदम) नहीं, नहीं, काकी! कुछ नहीं ऐसे ही... घर से चिट्ठी आई है।
जमना: घर से चिट्टी आई है? सब राजी-खुशी हैं न।
रेवा: सब ठीक है। बस अम्मा...
जमना: हाय-आय। अम्मा बीमार है?
रेवा: नहीं-नहीं काकी! बीमार नहीं, जरा यूँ ही तबीयत खराब है। और तबीयत भी क्या काकी! बस मेरी याद आती है...
जमना: याद तो आएगी ही, बहूरानी! माँ का दिल है। इतने दिन पालती-पोसती है और फिर एक दिन छाती पर पत्थर रख कर दूसरे के घर भेज देती है। भगवान ने क्या रिश्ता बनाया है! बहूरानी! जल्दी जवाब दे दिया कर! और हाँ, उधर भी तो आना! हरि ने क्या कर डाला। (जाती है)
(क्षणिक मौन रेवा मौन समाधिस्थ-सी स्थिर रहती है। फिर जमना जब चली जाती है, तो वह निश्वास खींचती है।)
रेवा: (निश्वास) रंजी आ रहा है, लेकिन क्या उसका आना ठीक है? क्या उसे यहाँ आना चाहिए? क्या उसे ऐसा पत्र लिखना चाहिए? नहीं! मैं अब विवाहिता हूँ, पत्नी हूँ, मेरे पति हैं और वह जानता है कि पति-पत्नी होने का क्या मतलब होता है। तब उसे क्या अधिकार है मुझे इस प्रकार पत्र लिखने का? क्या अधिकार है उसे यहाँ आने का? (फोन की घंटी बजती है) नहीं, वह यहाँ नहीं आ सकता। उसे यहाँ नहीं आना चाहिए। (घंटी बजती रहती है, रेवा उसे उठाती है) हलो (एकदम स्वर पलट जाता है) ओह, डार्लिंग आप? क्या? क्या हार? हाँ-हाँ! कंगन? हाँ! टॉप्स? हाँ-हाँ, वे भी बहुत सुन्दर हैं! क्या... क्या सब खरीद लिए। डार्लिंग, आप तो... नो, नो, कंगन और टॉप्स मेरे पास हैं... हैं डार्लिंग, बस आप तो, क्या कहूँ... नहीं नहीं मैं बिल्कुल ठीक हूँ... नहीं जी, मैं क्यों रोती? (खिलखिला कर हँसती है) क्या... ओह डार्लिंग, आप तो फोन पर भी ऐसी बातें करते हैं! हाँ, सुनो आज पिक्चर देखेंगे, तीन बजे वाला शो! मैं तैयार रहूँगी! बस डेढ़ बजा है, दो पर आपको यहाँ आ जाना है! नहीं तो जानते हो... क्या (हँसती है) ओह! यू नटखट... (एकदम बन्द कर देती है, फिर क्षणिक मौन। फिर निश्वास) लेकिन इस रंजी का क्या करूँ? मना करूँगी, तो क्या मानेगा? बड़ा अल्हड़ औलिया है। एक दिन पूछने लगा - रेबू! तुम्हारा मुझ पर इतना स्नेह क्यों है? तुम एक पूँजीपति की बेटी ओर मैं पूँजीपतियों का शत्रु! भला मैं इसका क्या जवाब देती? हर बात का क्या जवाब होता है? (सहसा जमना की पुकार)
जमना: बहूरानी! ओ बहूरानी! यहाँ आना! देखना चाशनी बिगड़ तो नहीं गई...
रेवा: (जोर से) अभी आई, काकी! (पुकार) हरि, ओ हरि!
हरि: (आता हुआ) आया जी! (पास आकर) जी!
रेवा: देखो हरि! तुम्हारे साहब आनेवाले हैं। तीनवाले शो में जाएँगे। उनके कपड़े तैयार करो और फिर जा कर दो सीटें रिजर्व करा आओ! (दूर जाते स्वर, चली जाती है।)
हरि: जी! जी बहुत अच्छा! (जाने के बाद मुस्करा कर) यह जवानी और फिर यह मोहब्बत! (हँसता है) सब कुछ, सब कहीं हरा ही हरा! साहब कितने तकदीरवाले हैं! पैसा और प्यार दोनों हैं। दो साल हो गए, पर जैसे आज की बात हो! बड़े घरों में... (दूर कार का हार्न बजता है) अरे, साहब तो आ भी गए! मैं कहता न था... बस भागूँ! इधर से भागूँ... (तेजी से जाता है।)
(दो क्षण बाद गुनगुनाते हुए नवयुवक बैरिस्टर केशव बाबू रंगमंच पर प्रवेश करते हैं। यौवन, मस्ती, रूप, सब है। काला कोट, सफेद पैंट पहने हैं। आ कर हाथ के कागज मेज पर रखते हैं और टाई को ठीक करते हुए पुकारते हैं।)
केशव: रेवा! रेवा...
रेवा: (दूर से) आती हूँ!
केशव: (फिर मेज पर से पत्र उठाते हैं ) अरे यह किसका पत्र है? रंजन... (रेवा का मुस्कराते हुए प्रवेश)
रेवा: आ गए?
केशव: सरकार का हुक्म था, कैसे न आता? पर हुजूर! यह पत्र किसका है?
रेवा: खोल कर पढ़ लो! तुम्हारे लिए रखा है। रंजन को तो तुमने देखा है! निरा कलाकार है। एक दिन, न दो दिन, हजरत पूरा महीना हमारे घर रहना चाहते हैं।
(केशव पत्र पढ़ता रहता है, फिर साँस खींच कर गुनगुना उठता है।)
केशव: हाँ! रेबू और रंजी! हुजूर, इसके लिए मुझसे क्या पूछना? पर ये महाशय बड़े बेतकल्लुफ हैं! बड़े अधिकार से लिखा है... अपने को गरीब कहते हैं, लेकिन भाषा बताती है कि अच्छे-खासे अभिजात वर्ग के प्राणी हैं। ये वे ही महाशय हैं न, जिन्होंने तुम्हारी आँखों में आँसू देख कर कहा था, ‘आँसू दु:ख के प्रतीक हैं और प्रेम में दु:ख कैसा?’
रेवा: जी हाँ! वे ही औघड़ हैं!
केशव: सुना है, हुजूर के चाहनेवालों में से रहे हैं!
रेवा: जी हाँ, पिताजी ने विवाह के लिए पहले इन्हीं से कहा था, पर औलिया साहब ने जवाब दिया, ‘रेबू से मैं खूब परिचित हूँ, पर विवाह एकदम अपरिचित से करना चाहिए। अपरिचित से परिचय करने में जो रस आता है, उसी में सच्चा रोमान्स होता है।’
केशव: (खूब हँसता है) खूब! खूब जवाब दिया, यानी आपको नामंजूर कर दिया, लेकिन रेबू, वैसे उसकी बात में सचाई है।
रेवा: खाक सचाई है!
केशव: आप चिढ़ती हैं! आपको उसने नापसन्द कर दिया इसलिए! सच है, अगर नारी की मनचाही न हो तो...
रेवा: देखो जी, बात न बढ़ाओ, नहीं तो...।
केशव: नहीं तो क्या होगा हुजूर?
रेवा: लड़ पड़ूँगी।
केशव: लड़ो भी रेवा! किसी दिन लड़ कर तो देखो, कितना रस है इस लड़ाई में! पर तुम हो कि पूजा करोगी या अनमनी रहोगी। मुझे ऐसा लगता है कि तुम अब भी उसे चाहती हो और उसी की याद को भुलाने के लिए... ।
रेवा: अब चुप नहीं करोगे? सीधी तरह से नहीं बताओगे कि उसे क्या लिखूँ।
केशव: मैं बताऊँ? पूछा तो तुमसे है!
रेवा: पर मैं तो तुमसे पूछ रही हूँ! मैं तो तुमसे हूँ!
केशव: और मैं तुमसे! क्या खूब है, तुम मुझसे! तुम मुझसे! मैं तुमसे। मैं तुम, तुम मैं...।
रेवा: (हँसती है) कभी-कभी तो तुम भी कवि बन जाते हो, पर बताओ न क्या लिखूँ उस अवधूत को? उसे छुटपन से जानती हूँ, थोड़ा-सा पागल है। कुछ भरोसा नहीं! पाँचवें दिन आ धमकेगा!
केशव: तो क्या हर्ज है, उसे भी पैसे का सुख देख लेने दो और देख लेने दो मेरी रूप की उपासना (कह कर तेजी से हँसता है, रेवा भी हँसती है।)
रेवा: तुम रूप की उपासना करते तो हो, इसमें झूठ क्या है?
केशव: मैं कब कहता हूँ कि यह झूठ है? मैं तो उसे यह दिखाना चाहता हूँ कि जिस रूप को उसने एक दिन ठुकरा दिया था, आखिर उसी ने उसको खींच लिया!
रेवा: हटो, हटो, क्या बकते हो! (रेखा की हँसी फीकी पड़ती है पर केशव अब भी तेजी से हँसता जाता है।)
केशव: आखिर तुमने उसे खींच ही लिया! तुमने उसे पराजित कर ही दिया!
रेवा: (एकदम) केशव! मैं उसे मना लिख रही हूँ। वह यहाँ नहीं आ सकता।
(रेवा का मुख रोष से तमतमा उठता है। केशव की हँसी सहसा रुक जाती है।)
केशव: सरकार नाराज हो गईं। नहीं-नहीं उठो, उठो! (स्वयं उठ कर उठाता है) देर हो जाएगी। पिक्चर से लौट कर तुम्हारे उग्रपंथी कलाकार के लिए सुन्दर-सा कमरा देखेंगे और फिर उसे खूब सजाएँगे!
रेवा: नहीं, नहीं...
केशव: हुजूर! हुजूर! ! (इस अदा से बोलता है कि रेवा हँस पड़ती है।)
रेवा: बड़े खराब हो जी तुम! जरा-सी बात पर लज्जित करना जानते हो। मैं तो डर गई थी!
केशव: सरकार डरना भी जानती है और वह भी उपासक से! (फिर हँसी)।
(दोनों हँसते हैं और अन्दर की ओर जाते हैं। परदा गिरता है।)
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