पहला प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल
पहला प्रकरण - जिज्ञासा
उन्नीसवीं शताब्दी में अन्त में मानविज्ञान की जो अपूर्व वृद्धि हुई है वह ध्यान देने योग्य है। इसके द्वारा हमारी सारी आधुनिक सभ्यता का रंग ही पलट गया है। हम लोगों ने प्राकृतिक सृष्टि का बहुत कुछ वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर केवल सच्चे और निर्भ्रान्त सिद्धांत ही नहीं स्थिर किए हैं बल्कि अपने ज्ञान का विलक्षण उपयोग कलाकौशल, व्यापार, व्यवसाय आदि में करके दिखाया है। पर इस ज्ञान के द्वारा हम अपने आचार और व्यवहार में बहुत कम क्या कुछ भी उन्नति नहीं कर सके हैं। इस प्रकार की परस्परविरुद्ध गति के कारण हमारे जीवन में बड़ी भारी अव्यवस्था दिखाई पड़ती है जो आगे चलकर समाज के लिए अनर्थकारिणी होगी। अत: प्रत्येक शिक्षित और सभ्य मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मानव जीवन से इस विरोध को दूर करने का प्रयत्न करे। यह तभी होगा जब संसार का वास्तविक और सत्य ज्ञान होगा और उस ज्ञान के अनुसार मानवजीवन के भिन्न भिन्न अंगों की योजना होगी।
उन्नीसवीं शताब्दी के आंरभ में विज्ञान की जो अपूर्ण दशा थी उसकी ओर ध्यान देते हुए यही कहना होगा कि गत 50 वर्षों के बीच विज्ञान ने बड़ी विलक्षण उन्नति की है, विज्ञान के प्रत्येक विभाग में बहुत सी नई नई बातों की जानकारी प्राप्त हुई है। खुर्दबीन के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं का और दूरबीन के द्वारा बड़ी से बड़ी वस्तुओं का जो परिज्ञान प्राप्त हुआ है वह आज से 100 वर्ष पहले असम्भव समझा जाता था। सूक्ष्मदर्शकयत्रों के प्रयोग और प्राणिविज्ञान के गूढ़ अन्वेषणों द्वारा क्षुद्र कीटाणुओं के अनन्त भेदों का ही पता नहीं चला बल्कि यह भी जाना गया कि सूक्ष्म घटक1 ही में सेन्द्रिय या सजीव सृष्टि का वह मूल तत्व है जिसकी सामाजिक योजना से सारे प्राणियों का, क्या चर क्या अचर, क्या उदि्भज क्या मनुष्य, शरीर बना है। शरीर विज्ञान के द्वारा अब यह भलीभाँति सिद्ध हो गया है कि एक ही घटक से अर्थात सूक्ष्म गर्भांड से बड़े से बड़े अनेक घटक जीवों का विकास होता है। घटक सिद्धांत के द्वारा हम अब जीवों के उन समस्त आधिभौतिक, रासायनिक और यहाँ तक कि मानसिक व्यापारों का सच्चा रहस्य जान सकते हैं जिनके लिए पहले एक 'अलौकिक शक्ति' या 'अमर आत्मा' की कल्पना करनी पड़ती थी। इस सिद्धांत के द्वारा रोगों के ठीक निदान में भी चिकित्सकों को बड़ी सहायता मिली है।
इसी प्रकार निरिन्द्रिय (जड़) भौतिक सृष्टिसम्बन्धी आविष्कार भी कम ध्यान देने योग्य नहीं है। दृष्टिविज्ञान, श्रोत्राविज्ञान, चुम्बकाकर्षण निर्माणविज्ञान जिसके द्वारा अनेक प्रकार की कलें आदि बनती हैं, गतिशक्तिविज्ञान इत्यादि भौतिक विज्ञान की सब शाखाओं की अद्भुत उन्नति हुई है। सबसे बड़ी बात जो विज्ञान ने सिद्ध की है वह अखिल विश्व की शक्तियों की एकता है। तापसम्बन्धी भौतिक सिद्धांत ने स्थिर कर दिया है कि वे समस्त शक्तियाँ किस प्रकार एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और किस प्रकार एक शक्ति दूसरी शक्ति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। किरणविश्लेषण1 विद्या ने यह बात स्पष्ट कर, दी है कि जिन द्रव्यों से पृथ्वी पर के सारे पदार्थ बने हैं उन्हीं द्रव्यों से ग्रह, नक्षत्रा, सूर्य आदि भी बने हैं, उनमें पृथ्वी से परे कोई द्रव्य नहीं है। ज्योतिर्विज्ञान ने हमारी दृष्टि को ब्रह्मांड के बीच बहुत कुछ फैला दिया है और अब हमें अगाधा अन्तरिक्ष के बीच लाखों घूमते हुए पिंडों का पता है जो हमारी पृथ्वी से भी बड़े हैं और एक अखंड क्रम के साथ बनते बिगड़ते चले जा रहे हैं। रसायनशास्त्र ने हमें अनेक द्रव्यों का परिज्ञान कराया है जो सबके सब थोड़े से, लगभग 75 मूलद्रव्यों से बने हैं। ये मूलद्रव्य इसलिए कहलाते हैं कि विश्लेषण करने पर इनमें दूसरे द्रव्य का मेल नहीं पाया जाता। इन मूलद्रव्यों में से कोई कोई जीवन व्यापार में बड़े काम के हैं। इनमें से कार्बन या अंगारतत्व (कोयला) ही से अनन्त प्रकार के सेन्द्रिय पिंडों की योजना होती है। इसी से इसे 'जीवन का रासायनिक आधार' कहते हैं। इन सबसे बढ़कर आधिभौतिक शास्त्रो के एक परम गुण का प्रतिपादन है जिसके अन्तर्भूत समस्त भौतिक और रासायनिक गुण हैं। सृष्टि सम्बन्धी इस मूल सिद्धांत द्वारा यह स्थिर हो चुका है कि द्रव्य और शक्ति (गति) दोनों नित्य हैं और सम्पूर्ण ब्रह्मांड में सदा एकरस रहते हैं। यही सिद्धांत हमारे तत्तवाद्वैतवाद का आधार है जिसके द्वारा हम सृष्टिरहस्य के उद्धाटन में प्रवृत्त हो सकते हैं।
इस परमतत्व के प्रतिपादन के साथ ही साथ इसका पोषक एक दूसरा आविष्कार भी हुआ जिसे विकासवाद कहते हैं। यद्यपि हजारों वर्ष पहले कुछ दार्शनिकों ने पदार्थों के विकास की चर्चा की थी, पर यह जगत् 'परमतत्व के विकास' के अतिरिक्त और कुछ नहीं है यह उन्नीसवीं शताब्दी में ही पूर्णरूप से स्थिर किया गया। उक्त शताब्दी के पिछले भाग में ही यह सिद्धांत स्पष्टता और पूर्णता को पहुँचा। इसके नियमों को प्रत्यक्ष के आधार पर स्थिर करने और सम्पूर्ण सृष्टि में इसकी चरितार्थता दिखाने का यश डारविन को प्राप्त है। सन् 1859 में उसने मनुष्य की उत्पत्ति के उस सिद्धांत को एक दृढ़ नींव पर ठहराया जिसका ढाँचा कुछ कुछ फ्रांसीसी प्राणिवेत्ता 'लामार्क' ने खड़ा किया था और जिसका आभास भविष्यवाणी के समान जर्मनी के सबसे बड़े कवि गेटे ने सन् 1799 में दिया था। आज जो हम इस विकासक्रम को तथा सृष्टि के बीच समस्त प्राकृतिक व्यापारों को समझने में समर्थ हुए हैं वह इन्हीं तीन नररत्नों के प्रयत्न का फल है।
प्रकृति के इस परिज्ञान के बल से हमारे जीवन के व्यवहारों में बड़ा भारी परिवर्तन हुआ है। आज रेल, तार, टेलीफोन आदि के द्वारा हमने जो दिक्काल सम्बन्धी बाधाओं को दूर किया है और भूमंडल के समस्त देशों के बीच व्यापार का जाल फैला कर 'व्यापारयुग' उपस्थित किया है, यह सब भौतिक विज्ञान की उन्नति का, विशेषत: भाप और बिजली की शक्ति के प्रयोग का, प्रसाद है। इसी प्रकार जब फोटोग्राफी द्वारा बात की बात में हम वस्तुओं का तद्रूप चित्रा उतरते, कृषि आदि व्यवसायों की इतनी उन्नति होते और क्लोरोफार्म, मरफिया आदि के प्रयोग द्वारा पीड़ा को शमन होते देखते हैं तब हमें रसायन शास्त्र की उन्नति के महत्व का ध्यान होता है। पर प्राचीन काल की अपेक्षा हमने इस वर्तमान काल में वैज्ञानिक विषयों में कितनी उन्नति की है यह बात इतनी प्रत्यक्ष है कि अधिक विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं।
पर जिस प्रकार हमें आजकल के प्रकृति सम्बन्धी परिज्ञान की उन्नति को देख गर्व और आनन्द होता है उसी प्रकार जीवन के कुछ बड़े बड़े विभागों की दशा देख खेद और सन्ताप होता है। हमारी शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था और शिक्षा पद्धति, यहाँ तक कि हमारे सारे सामाजिक और आचारसम्बन्धी व्यवहार, अभी तक असभ्य दशा में हैं। न्याय ही को लीजिए जिसे देखते हुए कोई यह नहीं कह सकता कि वह हमारे सृष्टि और मनुष्य सम्बन्धी वर्तमान समुन्नत ज्ञान के उपयुक्त है। नित्य अदालतों में ऐसे ऐसे विलक्षण फैसले होते हैं जिन्हें सुन कर अफसोस आता है। न्यायाधीशों की भूलें अधिकतर इस कारण होती हैं कि ये अच्छी तरह तैयार नहीं रहते। उनकी ठीक शिक्षा नहीं होती। कानून की शिक्षा ही उनकी शिक्षा कहलाती है। पर यह शिक्षा कुछ पारिभाषिक शब्दों और कुछ लोगों के बनाए हुए नियमों की उद्धरणी के अतिरिक्त और है क्या? न तो वे शरीरतत्व को जानते हैं और न उसके उन व्यापारों को जिसे 'मन' कहते हैं। उन्हें यह सब जानने के लिए समय कहाँ? उनका समय तो ईधर उधर की बातों तथा नजीरों को याद करने में जाता है।
शासन व्यवस्था पर विशेष कहने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि उसकी वर्तमान शोचनीय दशा सब पर विदित है। इस दशा का मुख्य कारण यह है कि वर्तमान शासकवर्ग के लोग उन सामाजिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ होते हैं जिनके मूल रूपों का पता जंतुविज्ञान, विकासवाद, घटकवाद तथा कीटाणुवाद के अध्ययन द्वारा मिलता है। राष्ट्ररूपी समाजशरीर के संघटन और जीवन का ठीक ठीक ज्ञान हमें तभी हो सकता है जब हम उन शक्तियों के संघटन और व्यापार का जिनसे वह बना है, तथा उन घटकों का जिनसे कि प्रत्येक व्यक्ति बना है, वैज्ञानिक परिज्ञान प्राप्त करें। दूसरा बुरा प्रभाव जो शासन संस्थाओं की उन्नति का बाधाक है वह मत या मजहब का है। जब तक वैज्ञानिक शिक्षा के प्रचार द्वारा मनुष्य और जगत् की प्राकृतिक स्थिति का परिज्ञान सर्वसाधारणा को न कराया जायेगा तब तक शासन में उन्नति नहीं हो सकती। राष्ट्र चाहे एकतन्त्र हो चाहे लोकतन्त्र (पंचायती), शासन व्यवस्था चाहे नियन्त्रित हो चाहे अनियन्त्रित इसकी कोई बात नहीं।
सर्वसाधारणा की शिक्षा की ओर ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि उसकी दशा भी हमारे इस वैज्ञानिक उन्नति के युग के अनुकूल नहीं है। भौतिक विज्ञान, जो कि इतने महत्व का है, यदि स्कूलों में पढ़ाया भी जाता है तो गौण रूप से। प्राय: प्रधान स्थान उन मृतप्राय भाषाओं और पुरानी बातों की शिक्षा को दिया जाता है जिनसे अब कोई लाभ नहीं। सारांश यह कि इस बात का जैसा चाहिए वैसा प्रयत्न नहीं हो रहा है कि जतना से अन्धविश्वास दूर हो और लोगों को बुद्धिबल द्वारा सुख और उन्नति का पथ प्राप्त करने का अवसर मिले। सर्वसाधारणा अभी उन्हीं पुराने विचारों में बद्ध रक्खे गए हैं जिनकी नि:सारता भलीभाँति सिद्ध हो चुकी है। पुराने किस्सेकहानियों और आकाशवाणियों के आगे बुद्धि का कुछ जोर चलने नहीं पाता। क्या धर्म, क्या न्याय, सब इन पुराने बन्धनों से जकड़े हुए हैं।
उपर्युक्त अव्यवस्था के प्रधान कारणों में से एक वह है जिसे हम 'पुरुषवाद' कह सकते हैं। इस शब्द के अन्तर्गत वे समस्त लोकप्रचलित और प्रबल भ्रान्त मत हैं जो मनुष्य को सम्पूर्ण प्रकृति से एक ओर करके उसे चर सृष्टि का दैवनिश्चित परम लक्ष्य बतलाते हैं। इन विचारों के अनुसार मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि से परे और ईश्वरांश है। यदि इन विचारों की अच्छी तरह परीक्षा करें तो जान पड़ेगा कि ये तीन रूपों में संसार में पाए जाते हैं-पुरुषोत्कर्षवाद: पुरुषाकारवाद और पुरुषार्चनवाद।
1. पुरुषोत्कर्षवाद का भाव यह है कि मनुष्य सृष्टि का दैवनिश्चित परम लक्ष्य है, वह आदि ही से बड़ा बनाकर भेजा गया है। यह भ्रान्ति मनुष्य के स्वार्थ के अनुकूल है और तीनों शामी पैगम्बरी मतों यहूदी, ईसाई और मुसलमान की सृष्टिकथा से सम्बन्ध रखती है अत: इसका प्रचार भूमण्डल के बहुत बड़े भाग में है।
2. पुरुषाकारवाद भी इन तीनों तथा और अनेक मतों से सम्बन्ध रखता है। यह जगत् की सृष्टि और परिचालन को एक चतुर कारीगर की रचना और एक बुद्धिमान् राजा के शासन के सदृश बतलाता है इसके अनुसार पृथ्वी को बनाने, धारणा करने और चलानेवाला ईश्वर मनुष्य ही की तरह विचार और काम करनेवाला है। फिर तो बनी बनाई बात है कि मनुष्य ईश्वर सदृश्य है। बाइबिल में लिखा है-'ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही आकार का बनाया।' प्राचीन सीधे सादे देववाद में देवता मनुष्य ही की तरह रक्त मांस के शरीरवाले समझे जाते थे। प्राचीन देववाद तो किसी प्रकार समझ में आ भी सकता है, पर आजकल का निराकार ईश्वरवाद विलक्षण है जिसमें ईश्वर को एक ऐसा अगोचर या हवाई जंतु मानकर आराधना की जाती है जो मनुष्यों की तरह विचार करता, बोलता और काम करता है।
3. पुरुषार्चनवाद भी मनुष्य और ईश्वर के व्यापारों के मिलान का फल है। यह मनुष्य में ईश्वरत्व के गुण का आरोप करता है। इसी से आत्मा के अमरत्व का विश्वास उत्पन्न हुआ है और मनुष्य के जड़ (शरीर) और चेतन (आत्मा) दो विभाग किए गए हैं। अब जनसाधारणा की यह सनक है कि आत्मा इस नश्वर शरीर में थोड़े दिनों का मेहमान है।
इन तीनों प्रचलित प्रवादों से अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हुए हैं। जगत् को इस प्रकार मानव व्यापार की दृष्टि से देखना हमारे तत्तवाद्वैत सिद्धांत के नितान्त विरुद्ध है और विश्वसम्बन्धी वैज्ञानिक विवेचन से सर्वथा असिद्ध है।
इसी प्रकार द्वैतवाद, जो आत्मा और शरीर अथवा द्रव्य और शक्ति को पृथक् मानता है तथा प्रचलित मतों (मजहबों) के और विचार भी तत्तवाद्वैतवाद की विश्वविज्ञान दृष्टि से नि:सार ठहरते हैं। उक्त दृष्टि से यदि देखते हैं तो हम निम्नलिखित सिध्दान्तों पर पहुँचते हैं जिनमें से अधिक की आलोचना सम्यक् रूप से हो चुकीहै-
1. जगत् नित्य, अनादि और अनन्त है।
2. इसका परमतत्व अपने दोनों रूपों, द्रव्य और शक्ति के सहित अनन्त दिक् में व्याप्त है और सदा गति में रहता है।
3. मूल गति का प्रवाह अनन्त काल के मध्य अखंड क्रम से चला करता है। इसमें कहीं सृष्टि से विकृति, कहीं विकृति से सृष्टि बराबर होती रहती है।
4. दिग्व्यापी आकाश द्रव्य (ईथर) के बीच जो असंख्य पिंड फैले हैं वे सबके सब परमतत्व के नियमों के अनुसार चलते हैं। यदि एक दिग्विभाग के कुछ घूमते हुए पिंड क्रमश: नाश या लय की ओर जाते हैं तो दूसरे दिग्विभाग में क्रमश: नए नए उत्पन्न होते और बनते हैं। यह क्रम सदा चलता रहता है।
5. हमारा सूर्य इन्हीं असंख्य नश्वर पिंडों में से एक है और हमारी पृथ्वी उन और भी अल्पकाल स्थायी छोटे छोटे पिंडों में से है जो इन्हें घेरे हैं।
6. हमारी पृथ्वी को ठंढा होने में बहुत काल लगा है तब जाकर उस पर द्रव्य रूप में जल (जीवोत्पत्ति का पहला आधार) ठहरा है।
7. एक प्रकार के मूल जीव से क्रमश: असंख्य ढाँचे के जीवों के उत्पन्न होने में करोड़ों वर्ष का समय लगा है।
8. इस जीवोत्पत्ति परम्परा के पिछले खेवे में जितने जीव उत्पन्न हुए, रीढ़ वाले जंतु, विकास या गुणोत्कर्ष द्वारा उन सबसे बढ़ गए।
9. पीछे इन रीढ़वाले जीवों की सबसे प्रधान शाखा दूधा पिलानेवाले जीव कुछ जलचरों और सरीसृपों से उत्पन्न हुए।
10. इन दूधा पिलानेवाले जीवों में सबसे उन्नत और पूर्णताप्राप्त किंपुरुष शाखा है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य, बनमानुस आदि हैं; जो लगभग 30 लाख वर्ष के हुए होंगे कि कुछ जरायुज जंतुओं से उत्पन्न हुई।
11. इस किंपुरुष शाखा का सबसे नया और पूर्ण कल्ला मनुष्य है जो कई लाख वर्ष हुए कुछ बनमानुसों से निकला। अस्तु।
12. जिसे हम संसार का इतिहास कहते हैं और जो कुछ हजार वर्षों की सभ्यता का संक्षिप्त वृत्तान्त मात्र है वह इस दीर्घ परम्परा के आगे कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार इस दीर्घ परम्परा का इतिहास भी हमारे सौर जगत् के इतिहास का अत्यंत क्षुद्र अंश है। इस अनन्त ब्रह्मांड के बीच हमारी पृथ्वी सूर्य की किरण में दिखाई देनेवाले अणु के समान है और मनुष्य सजीव सृष्टि के नश्वर प्रसार के बीच कललरस प्रोटोप्लाज्म की एक क्षुद्र कणिका मात्र है।
इस विशुद्ध और विस्तृत वैज्ञानिक दृष्टि से जब हम ब्रह्मांड को देखेंगे तब जाकर विश्व के अनेक रहस्यों को समझने का मार्ग पायेंगे, तब जाकर हम समझेंगे कि मनुष्य का स्थान इस सृष्टि के बीच कहाँ है। मनुष्य अहंकारवश अपने को अखिल सृष्टि से अलग करके अपने में 'अमृत तत्व' का आरोप करता है। वह अपने को 'ईश्वरांश' और अपने क्षणिक व्यक्तित्व को 'अमर आत्मा' कहता है। यह अहंकार और भ्रम बिना विस्तृत विज्ञानदृष्टि के दूर नहीं हो सकता।
असभ्यों को सृष्टि के अनेक व्यापार पहेली समझ पड़ते हैं। ज्यों ज्यों सभ्यता और ज्ञान की वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों इन पहेलियों या समस्याओं की संख्या घटती जाती है, बहुत से व्यापार समझ में आने लगते हैं। अब तत्तवाद्वैतवाद में केवल एक ही भारी पहेली रह गई है, एक ही 'परमतत्व' की समस्या रह गई है। जर्मनी के एक वक्ता ने थोड़े दिन हुए संसार सम्बन्धी ये सात समस्याएँ गिनाई थीं-
1. द्रव्य और शक्ति का वास्तविक तत्व।
2. गति का मूल कारण।
3. जीवन का मूल कारण।
4. सृष्टि का इस कौशल के साथ क्रम विधान ।
5. संवेदना और चेतना का मूल कारण।
6. विचार और उससे सम्बद्ध वाणी की शक्ति।
7. इच्छा का स्वातन्त्रय।
इनमें से पहली, दूसरी और पाँचवीं तो उस वक्ता की समझ में नितान्त अज्ञेय और भूतादि से परे हैं। तीसरी, चौथी और छठीं का समाधान हो सकता है पर अत्यंत कठिन है। सातवीं के विषय में वह अपना कोई निश्चय नहीं बतला सका।
मेरी सम्मति में जो तीन समस्याएँ भूतों से परे कही गई हैं उनका समाधान हमारे परमतत्व विषयक विवेचना से हो जाता है1 और जो तीन अत्यंत कठिन बतलाई गई हैं उनका ठीक ठीक उत्तर आधुनिक विकासवाद से मिल जाता है। अब रही सातवीं, इच्छा की स्वतन्त्रता। उसके विषय में विचार करना ही व्यर्थ है क्योंकि वह शुद्ध भ्रम और मिथ्या प्रवाद मात्र है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए हमने उसी प्रणाली का अनुसरण किया है जिससे और सब वैज्ञानिक अन्वेषण किए जाते हैं-प्रथम तो प्रत्यक्षनुभव, फिर अनुमान। वैज्ञानिक अनुभव हमें साक्षात्कार और परीक्षा द्वारा प्राप्त होता है जिसमें पहले तो इन्द्रियों के व्यापार से सहायता ली जाती है फिर मस्तिष्क में स्थित अन्त:करण के व्यापार से। पहले के आधारभूत सूक्ष्मकरण इन्द्रिय घटक हैं और दूसरे के मस्तिष्क ग्रन्थिघटक। वाह्य जगत् के जो अनुभव हम इन करणों द्वारा प्राप्त करते हैं उनसे मस्तिष्क के दूसरे भाग में भाव बनते हैं जो अनुबन्धा द्वारा मिलकर शृंखला की योजना करते हैं। इस विचारशृंखला की योजना दो प्रकार से होती है-व्याप्तिग्रह अर्थात यह अनुमान कि जो बात किसी वर्ग की कुछ वस्तुओं के विषय में ठीक है वही उसके अन्तर्गत सब वस्तुओं के विषय में भी ठीक है, और व्यष्टिग्रह अर्थात यह अनुमान कि जो बात किसी समूह के विषय में ठीक है वही उसके अन्तर्गत किसी एक वस्तु के विषय में भी ठीक है, के रूप में। चेतना, विचार और तर्क आदि सब मस्तिष्क में स्थित ग्रन्थिघटकों के व्यापार हैं। इन सब व्यापारों का अन्तर्भाव 'बुद्धि' शब्द में हो जाता है।
बुद्धि ही के द्वारा हम संसार का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और उसकी समस्याओं को समझ सकते हैं। बुद्धि मनुष्य की बड़ी भारी सम्पत्ति है, मनुष्य और पशु में बुद्धि ही का भेद है। पर मानवबुद्धि इस पद को शिक्षा और संस्कार की उन्नति तथा ज्ञान की वृद्धि द्वारा पहुँची है। इस पर भी कुछ लोगों का ख्याल है कि इस बुद्धि के अतिरिक्त ज्ञान के दो साधान और भी हैं-मनोद्गार और ईश्वराभास (इलहाम)। जहाँ तक शीघ्र हो सके हमें इस भारी भ्रम को दूर कर देना चाहिए। मनोद्गार अन्त:करण की वह क्रिया है जिसके अन्तर्गत इच्छा, द्वेष, प्रवृत्ति, श्रध्दा, घृणा आदि हैं। मनोद्गार हमारे भिन्न भिन्न अवयवों के व्यापारों, जैसे पेट में लगी भूख तथा इन्द्रियों की वासनाओं, जैसे प्रसंग की वासना आदि से प्रेरित हो सकते हैं। उनसे भला सत्य के निर्णय में क्या सहायता मिल सकती है? हाँ! बाधा अलबत्ता पहुँच सकती है। यही बात ईश्वराभास (इलहाम) वा 'ईश्वरप्रेरित ज्ञान' के विषय में भी कही जा सकती है जो धोखे के सिवाय और कुछ नहीं, चाहे धोखा जानबूझकर दिया गया हो चाहे लोगों ने यों ही खाया हो।
जगत् सम्बन्धी प्रश्नों के हल करने के लिए अनुभव और चिन्तन ये दो ही मार्ग हैं। हर्ष का विषय है कि ये दोनों अब समान रूप से स्वीकृत हो चले हैं। दार्शनिक, चिन्तन करनेवाले अब समझने लगे हैं कि कोरे चिन्तन से जैसा कि प्लेटो और हैगल ने1 अपने भावात्मक दर्शनों में किया है सत्य का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार वैज्ञानिक भी अब यह जान गए हैं कि केवल प्रत्यक्षनुभव, जिसके आधार पर बेकन और मिल ने अपना प्रत्यक्षवाद स्थापित किया था, पूर्ण तत्वज्ञान के लिए काफी नहीं है। सत्यज्ञान की प्राप्ति इन्द्रिय और अन्त:करण दोनों की क्रियाओं के योग से हो सकती है। पर अभी कुछ ऐसे दार्शनिक भी हैं जो यों की बैठे बैठे अपने भावमय जगत् की रचना किया करते हैं और अनुभवात्मक विज्ञान का इसलिए तिरस्कार करते हैं कि उन्हें संसार का यथार्थ बोध नहीं होता। इसी प्रकार कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि विज्ञान का परम लक्ष्य भिन्न भिन्न व्यापारों का अन्वेषण मात्र है, दर्शन का जमाना अब गया इस प्रकार के एकांगदर्शी विचार परम भ्रमात्मक हैं। प्रत्यक्षनुभव और चिन्तन-ज्ञानप्राप्ति की ये दोनों प्रणालियाँ अन्योन्याश्रित हैं - एक दूसरे की सहायक हैं। विज्ञान के सबसे पहुँचे हुए आविष्कार, जैसे घटक सिद्धांत, ताप का गत्यात्मक सिद्धांत, विकासवाद, परमतत्व की नियम व्यवस्था, दार्शनिक विचार के फल हैं। पर वे कोरे अनुमान के फल नहीं, अत्यंत विस्तृत, प्रत्यक्षाश्रित अनुमान के फल हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है अब स्थिति बहुत कुछ बदल गई है। अब दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों दल के लोग एक दूसरे की सहायता करते हुए दो भिन्न भिन्न मार्गों से एक ही प्रधान लक्ष्य की ओर जा रहे हैं।
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से दार्शनिकों के परस्पर दो विरुद्ध दल दिखाई पड़ते हैं। एक तो द्वैतवादियों का, दूसरा अद्वैतवादियों का। द्वैतवाद ब्रह्मांड को दो भिन्न भिन्न तत्वों में विभक्त करता है - एक भौतिक जगत् और दूसरा उसको बनाने,धारणा करने और चलाने वाला ईश्वर जो समस्त भूतों से परे है। अद्वैतवाद ब्रह्मांड में केवल एक परमतत्व मानता है जो ईश्वर और प्रकृति दोनों है। वह शरीर और आत्मा या द्रव्य और शक्ति को परस्पर अभिन्न या अनवच्छेद्य मानता है। द्वैतवाद के भूतातीत ईश्वर को माननेवाले दैववादी और जगत् और ईश्वर को ओतप्रोत भाव से मानने वाले ब्रह्मवादी या सर्वात्मवादी कहलाते हैं।
उपर्युक्त अद्वैतवाद और भूतवाद को एक मानकर प्राय: लोग गड़बड़ करते हैं। इस गड़बड़ से अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो सकते हैं। अत: यहाँ पर दो बातें संक्षेप में बतला देना आवश्यक है-
1. शुद्ध अद्वैतवाद न तो वह भूतवाद है जो आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करता और जगत् को जड़ परमाणुओं का ढेर बतलाता है, और न वह अध्यात्मवाद है जो भूतों का अस्तित्व नहीं मानता और जगत् को अभौतिक शक्तियों के विधान का समाहार मात्र बतलाता है।
2. हमारा सिद्धांत तो यह है कि न तो द्रव्य की स्थिति और क्रिया आत्मा या शक्ति के बिना हो सकती है और न आत्मा की द्रव्य के बिना। द्रव्य या अनन्तव्यापी तत्व और आत्मा शक्ति या संविद चेतन तत्व, दोनों उस विभु परम तत्व के दो मूल रूप या गुण हैं।