पहले वाले पापा / सुधा भार्गव
मीना ने अँग्रेजी में एम. ए. किया था, साथ ही हिन्दी साहित्य में भी उसकी रूचि थी। अनेक कवि और लेखक उसकी अलमारी में मुस्कान बिखेरते रहते, मानो कह रहे हों—आओ और हमें पढ़ो। हमारी तरह तुम भी खुश रहो!
किताबों को जुटाने में उसके पापा ने बहुत मदद की थी। दूसरे शहरों से किताबें मंगाई जातीं और उसको पढ़ता देख मन ही मन खुश होते! घर के काम काज से उसे कोई मतलब न था। वह भली , उसके हाथ की किताब भली।
अपने विवाह के बाद वह ससुराल से पाँच दिनों बाद लौटी । कमरे में पहुँचकर उसने किताबों से भी मुलाकात करनी चाही। लेकिन अलमारी तो वहाँ से नदारद थी। एक पल सोचा, कहीं -भूलसे किसी दूसरे कमरे में तो नहीं आ गई हूँ।
लेकिन वास्तविकता को भाँपते ही वह बौखला गयी। पापा से पूछा— किताबें कहाँ गईं?
बेटी ,गंगादीन ने हाल में ही एक पुस्तकालय खोला है। उसकी आर्थिक स्थिति तो ठीक नहीं। तब भी घर घर जाकर उसके लिए पुरानी किताबें जुटाता है। मासिक फीस भी उसने केवल पाँच रुपए रखी है। मैंने सोचा –किताबें किसी के काम ही आ जाएंगी। अलमारी में रखे –रखे इनका क्या होगा। इसलिए पुस्तकालय में दान कर दीं । तुम उनका अब करोगी भी क्या! चौका-चूल्हा सम्हालो और खुश रहो।' पापा बोले।
-पापा एक बार मुझसे पूछ तो लेते। क्या मैं शादी के बाद इतनी पराई हो गई कि मेरी खुशियों को दूसरे के हवाले कर दिया। व्यथित मीना ने अपनी आँखें एक चेहरे पर टिका दीं, जो पूछ रही थीं-- ‘क्या तुम मेरे पहले वाले पापा होॽ’