पहाड़सिंह / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा
… आयो रे आयो, पहाड़सिंह आयो
अरे ! ये तो बहुत बड़ा है। सच में ये तो विशाल है। पहाड़ की तरह खड़ा है। आ ही गया आख़िर ये पहाड़सिंह। कितना बेढंगा है ये, पहाड़ की तरह एकदम ऊबड़-खाबड़। इसके हाथ तो देखो ज़रा ! कितने मोटे और लम्बे हैं। और हाथों की उँगलियाँ, केंचुओं की तरह अजीब-सी फैली हुई हैं। और पाँव जैसे हाथीपाँव। पेड़ के तने की तरह मोटे और लम्बे। हऊआ है हऊआ…अरे ! अरे ! यह तो गिर पड़ा ! आते-आते ही गिर पड़ा ! मेरे प्यारे मुन्ने तुम क्या समझे ! क्या हुआ इसको ! इसका सारा दमखम किधर गया ? ऐ पहाड़सिंह, क्या हुआ रे ? तू मुन्ने को देखकर डर गया क्या ? जीने में चढ़ने से पहले ही ठोकर खाकर धड़ाम से गिर गया। धड़ाम-धड़ाम ! और अब देखो, नीचे सीढ़ियों के पास फ़र्श पर खड़ा है, टेढ़ा-मेढ़ा पड़ा है। और इसका तो मुँह खुला हुआ है…।
अरे देखो, देखो। है न मज़ेदार बात ! शाबाश, मुन्ना शाबाश ! वोह मारा बदमाश। ढूह का ढू्ह। ये बदमाश है बेवकूफ़। देखो है कितना कुरूप। ऐ पहाड़सिंह, तू यहाँ आया ही क्यों ? आदमी का रूप धर लिया ज्यों। ऐ बहुरूपिया, जा… भाग यहाँ से। मेरा राजा बेटा है दोदिक। बहुत प्यारा और बहुत अच्छा है दोदिक। बैठा है यहाँ मेरी गोदिक। अब सीने से चिपका है मेरे। देख रे लुटेरे। यह मेरा फ़रिश्ता है नन्हा। मैं इसे कहती हूँ कान्हा। कितना सुन्दर है बेटा मेरा…।
दोदिक की आँखें हैं निर्मल और मासूम। और नाक है इसकी पिद्दी। बेहद चंचल और होशियार, लेकिन है बहुत ज़िद्दी। अपने घोड़े पर होकर सवार, जब निकले ये बाँध तलवार। जाँबाज़ का पहन के बाना। घर भर में करता है हँगामा। इधर-उधर भागता रहता है। घर भर में नाचता रहता है। अब ये शरारत नहीं करता। घर में महाभारत नहीं करता। नहीं तो, ऐ पहाड़सिंह, तू भला क्या चीज़ है ! तू तो नाचीज़ है। देखेगा मुन्ने का दमखम। उठाएगा क्या यह जोख़म। लाड़ला मेरा बहादुर है। उसके सामने तू महिषासुर है। सब इसे प्यार करते हैं। सब पहाड़सिंह इससे डरते हैं…।
दोदिक के पास एक घोड़ा है। जो दोदिक का ही जोड़ा है। जब दोदिक घूमने जाता है। उस पर सवार हो जाता है। नदी किनारे जाकर दोदिक। घोड़े पर धूम मचाता है। कभी नदी से पकड़ मछलियाँ। उन्हें भूनकर खाता है। मछली क्या होती है, रे दानव। तू क्या जाने, रे अतिमानव। अरे तू तो अक़्ल का दुश्मन है। पर बेटा मेरा प्रदुमन है। मछलियाँ उसको भाती हैं। वो जल-जीवन की थाती हैं। वो पानी में तैरने वाली। फुर्तीली चंचल रंगबाती हैं। जब धूप पानी में आती है। वो जल-इंद्रधनुष बनाती है…।
ऐ पहाड़सिंह, तू फूहड़ है। माथे तेरे पड़ गया गूमड़ है। सीढ़ी पर चढ़ने से पहले गिरा। ठोकर खाकर हुआ अधमरा । ये तो सच में है बेवकूफ़। देखो है कितना कुरूप ! मूरख, मूढ़, ओ गर्दभ जान। आया यहाँ तू क्यों हैवान। बेटा मेरा है सुलतान। वो तेरी तरफ़ न देगा ध्यान। जा भाग यहाँ से ओ हाथी-कान…।
दोदिक मेरा बड़ा पाजी है। अच्छा और प्यारा हाजी है। अपनी माँ का वो प्यारा है। दोदिक माँ का दुलारा है। वो उससे मोहब्बत करती है। माँ दोदिक पर ही मरती है। वही उसका चन्दा सूरज है। उसका बहादुर सौरज है। दोदिक तो आँखों का तारा है। पूरी दुनिया में न्यारा है। दोदिक में माँ की जान बसे। माँ की चलती हैं तब साँसे ,जब दोदिक रहता है उसके पास। दोदिक है उसका बेटा ख़ास। अभी छोटा है दोदिक नन्हा-मुन्ना। दोदिक है माँ का रतन-पन्ना। जब दोदिक बड़ा हो जाएगा। माँ पर जान लुटाएगा। दोदिक बनेगा नेक इनसान। ज्ञानवान और दुनिया की शान। अम्मा की होगा आन-बान औ’ शत्रु से करेगा घमासान। होगा शरीफ और दरियादिल। बुद्धिमानों का बुद्धिमान। प्यार करेंगे उसको सब जन। जनता का बनेगा वो दिनमान…।
हर रोज़ सुनेगा पक्षी कलरव। सबके लिए मन में होगा सद्भव। उसे देख कोयल करेंगी कुह-रव। सब जन तब बेहद ख़ुश होंगें। होगा कोलाहल और जन-रव। जीवन खुशियों से होगा भरपूर। सब दुख हो जाएँगे चूर-चूर। चमकेगा मेरा कोहिनूर। महक उसकी होगी रस-कपूर। जब नदी किनारे जाएगा। जल-गीत वह सुन पाएगा। पिएगा पानी ओक भर-भर। हो जाएगा आत्मनिर्भर। फिर वो ब्याह रचाएगा। वधू एक सुन्दर लाएगा। जीवन का संगीत सुनेगा वर। पौत्रों से भर जाएगा घर। मैं दादी-अम्मा बन जाऊँगी। पौत्रों को लोरी सुनाऊँगी कि दुनिया कितनी नेक है। सूरमाओं का करती अभिषेक है। ख़ुशियाँ इसमें अनेक हैं...।
— अरे… अरे… अरे… मेरी नन्ही जान ! मेरे लाड़ले बेटे ! मेरी पहचान। यह रोग तेरा दूर हो जाएगा। तू फिर से खेलेगा-खाएगा। दौड़ेगा-भागेगा तू हरदम। कभी मुझसे अलग न हो पाएगा। चिपका रखूँगी तुझे सीने से। तू जल्दी ही चंगा हो जाएगा। दोदिक, बेटा रात हुई। देख शुरू बरसात हुई। कमरे में बहुत अँधेरा है। बाहर बारिश का डेरा है। सुन बेटा, सुन यह कल-कल। छोड़ न जाना मुझे एकल। मन मेरा है बहुत बेकल। तड़ित-सा तू चंचल है। मेरे जीवन की हलचल है। तू ही मेरा आँचल है। जीवन का नीलांचल है। इस दामिनी-सा तू चमकेगा। सौदामिनी बनके झमकेगा। तू मेरे जीवन की चपला है। ये ईश्वर भी करता घपला है। बन जा तू अग्निशाला। तू वज्र उठा ले सूर्यबाला। अब ईश्वर से तेरी लड़ाई है। बस, यही एक कठिनाई है। ये कठिनाई तू पार करेगा। तू मेरा कन्हाई है। जीत के जब तू आएगा। पहनाऊँगी तुझे सूर्यमाला…।
हाँ ! हाँ ! हाँ ! अरे पहाड़सिंह, तू यहीं खड़ा है दहाड़सिंह ! तेरी तो हड्डी-हड्डी चमके। लगता है तू हाड़सिंह। लम्बा है कितना, एकदम विशाल। गिरजे से ऊँचा है। ये है कमाल। मज़ेदार है कितना पहाड़सिंह। आते ही गिर पड़ा उजाड़सिंह। अरे अक़्ल के दुश्मन पहाड़सिंह। तू तो है सबकुछ बिगाड़सिंह। मैं तुझसे ये पूँछूँ कि तू गिरा कैसे ? बोला जवाब में उखाड़सिंह — मैंने दोदिक की आवाज़ सुनी। ऊपर देखा, गिर पड़ा अचानक। बन गया मैं तो पछाड़सिंह…।
देखो ! देखो ! पहाड़सिंह आया और धम से गिर पड़ा। कितना मज़ेदार है यह पहाड़सिंह !
ये सारी बातें, एक माँ अपने मरते हुए बच्चे को अपने हाथों में पकड़े, उसे अपने सीने से लगाए, उसे बहलाते हुए कमरे में घूम-घूमकर कह रही है। बग़ल वाले कमरे में बच्चे का पिता माँ की ये लोरी सुनकर रो रहा है।
दोदिक ही उनकी एकमात्र ख़ुशी है।
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’विलिकान’ (Леонид Андреев — Великан)