पहाड़ों से टकराकर लौटती हुई ध्वनियां / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पहाड़ों से टकराकर लौटती हुई ध्वनियां
प्रकाशन तिथि :18 सितम्बर 2017


दशकों पूर्व हॉलीवुड की फिल्म 'बोनी एंड क्लाइड' बनी थी, जिसके केंद्रीय पात्र डाका डालते हैं, लूट मार करते हैं। वे लुटा हुआ धन फेंक देते हैं, क्योंकि वे मात्र िथ्रल अर्थात सनसनी एवं उत्तेजना के लिए एेसा करते हैं। वे रॉबिनहुड से भिन्न हैं, क्योंकि रॉबिनहुड अमीरों को लुटकर गरीबों में धन वितरीत करता था। चंबल के डाकू भी बहुत दान देते थे। दरअसल, इस दान के कारण आम आदमी उन्हें पुलिस कार्रवाई की अग्रिम सूचना देता था। अत: यह उनकी अपनी सुरक्षा का साधन था। यह उनका अपना स्कॉटलैंड दल था। ज्ञातव्य है कि स्कॉटलैंड यार्ड के सुरक्षा दफ्तर में हर आम आदमी की शिकायत के निवारण का प्रयास किया जाता था।

बोनी और क्लाइड के पात्र उबे हुए पात्र थे, जो मात्र सनसनी के लिए डाके डालते थे। हाल ही में हंसल मेहता की कंगना रनौत अभिनीत फिल्म में भी वह थ्रिल के लिए डाके डालती है, परंतु उसका असली मुद्दा यह है कि वह व्यवस्था का मखौल उड़ाना चाहती है। वह विद्रोहिणी है और व्यवस्था के लौह कपाट को तोड़ने का प्रयास करती है। कुछ समय पूर्व ही 'रिवॉल्वर रानी' बनी थी। जो येन-केन प्रकरण अपने प्रेमी को उसकी इच्छा के अनुरूप फिल्म सितारा बनाने का प्रयास करती है। स्पष्ट है कि कंगना रनौत को व्यवस्था विरोध अत्यंत पसंद है। राजनीति के क्षेत्र में विरोध पक्ष निस्तेज व निष्प्राण है उन्हें कंगना रनौत की आवश्यकता है। यह कल्पना ही मनोरंजक है कि संसद में कंगना रनौत विरोध पक्ष में बैठी हैं और कंगना बनाम मोदी युद्ध रोचक हो सकता है, परंतु इससे कोई मूलभूत परिवर्तन संभव नहीं है, क्योंकि एक काल्पनिक हिंसक हव्वे के खिलाफ बहुसंख्यक समाज नकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहा है। भारत के शॉक एब्ज़ाबर्स बड़े मजबूत हैं। सदियों की गुलामी ने उन्हें मजबूत बना दिया है। यह दौर भी गुजर जाएगा जैसे अन्य दौर भी गुजर गए। हमारी बहुलतावादी सिन्थेसिस के गुण वाली संस्कृति में बड़ा दम है।

सुना है कि सिमरन' के बाद कंगना रनोट अब 'बाहुबली' से विख्यात हुए एसएस राजामौली की लिखी 'झांसी की रानी' फिल्म की शूटिंग शुरू करने जा रही हैं। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस परिणाम ही 30 वर्षीय कंगना रनौत का भविष्य तय करेगा। क्या यह संभव है कि कंगना रनौत कभी उम्रदराज सास या चाची की भूमिका का निर्वाह करेंगी। ज्ञातव्य है कि किसी दौर में ललिता पवार नायिका थीं। शूटिंग में दृश्य के अनुरूप उन्हें थप्पड़ मारा गया। थप्पड़ इतना करारा था कि उनकी एक आंख हमेशा के लिए छोटी हो गई। फिल्म उद्योग में व्यक्ति उम्र के हर चरण में कोई न कोई काम कर सकता है। इसीलिए उद्योग का एंथम है 'जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां, कल खेल में हम हो ना हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम भूलेंगे वे, पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा।'

फिल्म उद्योग सभी प्रकार की रुकावटों के बावजूद चलता रहता है। ऐसा कोई स्पीड ब्रेकर नहीं जो खेल रोक सके, क्योंकि अवाम को रोजी-रोटी और मकान की तरह मनोरंजन आवश्यक है। मनुष्य की पाचन क्रिया के रसायन का कैटेलेटिक एजेंट है मनोरंजन। यही उसे तीव्रता देता है। गौरतलब यह है कि सनसनी की इच्छा विचार प्रक्रिया में शून्य के कारण जन्म लेती है और पहाड़ों से टकराकर यह बार-बार लौट आती है। हमने वीआईपी संस्कृति के कारण आम आदमी को भीड़ में अकेला छोड़ दिया है।