पहाड़ और खाई / एक्वेरियम / ममता व्यास
"दो पहाडिय़ों को सिर्फ़ पुल ही नहीं खाइयाँ भी जोड़ती हैं।" नदियों को जोडऩे का काम पुल सदियों से करते आये हैं। लेकिन पहाड़ों को जोड़ती खाइयों पर ध्यान किसी का नहीं गया।
सोचती हूँ इन ऊंचे, कठोर, बदरंग और रूखे अपने ही अभिमान में अकड़े-अकड़े, से पहाड़ कभी भी अपनी जगह से नहीं हिलते। लेकिन उनके बीच की गहरी खाई उन्हें हमेशा जोड़े रखती है। ये जोड़ बहुत कोमलता लिए हुए हैं। बहुत ही हरापन बहुत ही तरलता से जुड़े हैं दोनों सदियों से। स्थिर रहने को अभिशप्त ज़रूर हैं ये पर्वत लेकिन जब-जब भी ये दोनों एक-दूजे को दूर से देखते होंगे। उनकी पथरीली आखों से अनगिनत पीड़ा के झरने, असंख्य तड़पती नदियाँ बहने लगती होंगीं और खाई में बिखर जाती होंगीं।
ये खाई ही उन्हें जोड़ती है। जितनी गहरी खाई उतना गहरा प्रेम। कौन देख सका है भला पल-पल खाई में तब्दील होते पहाड़ों को। एक दिन पहाड़ों से रिसता आसुओं का नमक खाई को पहाड़ कर देगा। देखना एक दिन ऐसा भी आयेगा जब ये ऊंचे पहाड़ अपने ही दु: ख से गल जायेंगे। अपनी ही पीड़ा में बह जायेंगे और उनके सूखे आसूं बीच की गहरी खाई को पाट देंगे।
पीर पर्वत-सी हो जाएगी, पहाड़ नदी हो जायेंगे। उस दिन दो नदियाँ फिर आपस में मिलेंगी और खाई पट जाएगी।
ये अनोखा मिलन देख कर धरती मुस्काएगी और आसमान इतिहास फिर से लिखने लगेगा। उस दिन दोनों पहाड़ एक-दूजे का माथा चूमेंगे। उस दिन खाई मुस्कुराएगी और कहेगी कौन देख सका है भला आत्मा के सुर्ख होते गालों को।
(गीत चतुर्वेदी को पढ़ते हुए)