पहाड़ की एक रात / स्वप्निल श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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उस पहाड़ी कस्बे का नाम सोनवल था। अविनाश उसे सोनल कहता था। दर असल सोनम एक लड़की का नाम था जिससे उसकी मुलाकात कालेज के दिनों में हुई थी। इश्क- विश्क हुआ फिर वे एक दूसरे को भूल गये। अविनाश इस नाम की याद को भुला नही सका। वह प्रेम - मौसम की पहली बारिश की तरह था जिसकी सोंधी गंध उसे अब भी बेचैन करती थी। उसे एक दूसरी लड़की की याद आती थी जो सहजनवा कस्बे को सजनवा कह कर पुकारती थी। ये उन दिनो के दिलचस्प खेल थे, जो उस उम्र के लोग अक्सर खेलते थे।

अविनाश को यह पहाड़ी कस्बा अत्यंत प्रिय था। जब कभी वह रोजमर्रा के जीवन से ऊंबता वह सोनवल की राह थाम लेता था। यह कस्बा शहर होने के लिये बेचैन था। उसे डर था जैसे यह कस्बा शहर में तब्दील होगा। इस कस्बे की मौलिकता विदा हो जायेगी। शहर में बाहरी पूंजी और हत्यारों की आमद हो जायेगी। पुराने मकान की जगह भव्य इमारतों की तामीर शुरू हो जायेगी। शहर एक व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो जायेगा और शहर की मूल आवाज भयानक शोर में दब जायेगी। इस कस्बे की स्त्रियां, काठ के पुल और संतरे उसे बहुत पसंद थे। स्त्रियां गोलमटोल और मादक होती थी। जरा सी धूप हुई वे अपने रंग- बिरंगे छातें निकाल लेती थी। उनके पीछे ऊंन के गोलों की तरह बच्चे ढ़ुलकते हुये चलते रहते थे। स्त्रियों के चलने में एक लय होती थी। वे छोटे – छोटे कदमों से डग भरती थी। इस स्त्रियों को देखकर अविनाश को लगता था कि सुडौलता की कल्पना इन्ही स्त्रियों से आयी होगी।

इस कस्बें की दूसरी मशहूर चीज संतरे थी। संतरे जंगल में पैदा होते थे। वे स्वाद में थोड़े खटलुस होते थे। एक फांक मुंह में रखो तो मुंह रस से भर जाय। संतरे जब पकते थे उसकी गंध कस्बे तक पहुंच जाती थी। औरते खूंब संतरें खाती थी। उनकी देह से संतरों की खुशबू आती थी। स्त्रियों के भीतर गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता था। छिछोरे किस्म के लड़के उनके पीछे लग जाते थे।

जो भी इस कस्बे में आता वह काठ के पुल को कभी नही भूल पाता। अविनाश इस पुल के कई चक्कर लगाता। यह पुल बच्चो को बहुत पसंद था। जैसे बच्चे पुल पर चढ़ते, यह पुल झूले की तरह हिलने लगता था। बच्चे इस पुल को दिन में कई बार पार करते। उम्रदराज लोग इस पुल को पार करते हुये डरते थे। उन्हें यह भय था - कही यह पुल टूट कर नदी में न गिर जाय। अविनाश इस पुल से दूर तक नदी को देखता रहता था। वह पहाड़ से आनेवाली हवाओं के अपने फेफड़े के भीतर भरता रहता था। यह नदी दूर पहाड़ो से आती थी। नदी के कलकल की आवाज दिन में नही सुनाई पड़ती थी लेकिन रात के प्रहर में बहते हुये पानी से जल तरंग की आवाज आती थी। अविनाश रात में नदी के पास पहुंच जाता था। नदी का अपूर्व संगीत उसकी आत्मा में उतरने लगता था। यह नदी कस्बे के बीचोबीच बहती थी। नदी को पार करने के लिये दो काठ के पुल थे।

पिछली बार जब अविनाश यहां आया था, उसने देखा नदी पर आधुनिक पुल बन रहा है। इस पुल के बनने के बाद काठ के पुल को गिरा दिया जायेगा। इस तरह कस्बे की शिनाख्त मिटा दी जायेगी। पुल इतिहास बन जायेगा। अविनाश परिवर्तन के विरूद्ध नही था। वह चाहता था कि कस्बे के प्रतीक चिन्हों के साथ कोई छेड़ - छाड़ न हो। जो लोग पुल बना रहे थे – उनकी शक्लें हिंसक थी। जैसे आततायियो और लुटेरो की होती है। दर असल वे बर्बर ही थे, जो उस कस्बे में अपनी आवारा पूंजी के साथ दाखिल हुये थे।

इस बार वह इस शहर में अकेले नही आया था। उसके साथ उसका दोस्त विकास था। अविनाश ने उसके सामने कुछ शर्ते रख दी थी। मसलन वह इस यात्रा को आरामदेह मान कर न चले। यह यात्रा नही एक एडवेंचर होगा। अविनाश हर यात्रा को रोमांचक बना देता था। इसलिये लोग उसके साथ जाने से घबराते थे। अविनाश ने यह भी हिदायत दी कि सबसे कम कपड़े साथ हो। किसी फैशन प्रतियोगिता में नही जाना है। विकास ने अविनाश की यह शर्त कुबूल कर ली। बस दो छोटे-छोटे बैग तैयार किये गये। जरूरत की चीजें रख ली गयी। बस इतना सामान था – जितना आसानी से कंधे पर ढ़ोया जा सके और यात्रा बाधित न हो।

अविनाश और विकास दोपहर में सोनवल पहुंच चुके थे। अविनाश का परिचित होटल यात्री निवास था। दोनो ने वही डेरा डाला। होटल का स्टाफ उसे खूब जानता था। वह जब भी सोनवल आता, इसी होटल में ठहरता था। होटल के तीन तरफ जंगल पहाड़ साफ दिखाई देते थे। जैसे वे खिड़की खोलते हवा का एक झोंका कमरें में दस्तक दे जाता। विकाश अपनी कमर सीधी कर रहा था। अविनाश ने कहा - गुरू उठो हमे एडवेंचर पर निकलना है।

-कैसा एडवेंचर? विकास ने पूछा

-बस आधे घंटे में एक बैग में, जांघियां, तौलियां टूथपेस्ट आदि रख लो।

विकास बचनबद्ध था। जैसा अविनाश ने कहा – वैसा किया। काफी पीने के बाद अविनाश बस स्टेशन की ओर रवाना हुआ। बस में भींड़ ज्यादा नही थी। वह बस की खिड़की के पास बैठ गया। खिड़की से दृश्य दिखाई देते हैं। पहाड- जंगल आदमी के साथ - साथ चलते है।

कंडक्टर ने पूछा - कहां जाना है?

सौ रूपये का नोट कंडक्टर को देते हुये अविनाश नें कहा ..ये पैसे रखो जहां कहूंगा उतार देना।

कंडक्टर ने अविनाश की ओर संदेह से देखा। उसने सोचा होगा – अजीब पगलैट आदमी है। इस आदमी को पता नही कहां जाना है। उसे पैसे से काम था, सो मिल गया। कोई कहीं भी जाय उसका क्या।

सडक संकरी थी। सडक पर जगह – जगह गड्ढे थे। बस पुरातन थी। उसके भीतर से खड़खड़ की आवाज आ रही थी। बस बिगड़े हुये आर्केस्ट्रा की धुन पर बज रही थी। कुछ मुसाफिर उसकी धुन में सिर हिला रहे थे। संगीत का क्या वह कहीं भी पैदा हो सकता है। बस उसे महसूस करने की जरूरत है।

बस से एक घंटे का सफर तय हो गया था। बस सूनसान रास्ते से गुजर रही थी। बीच में कोई गांव - गिरांव नही पड़ा। सूर्य की रोशनी कम हो रही थी। कभी भी सूरज का डूबता हुआ गोला दिखाई पड़ सकता था। परिंदों का झुंड अपने – अपने घोसलों की दिशा में बढ़ रहा था। आगे एक गांव आनेवाला था। जैसे गांव के पास बस पहुंची - अविनाश ने कंडक्टर से कहा- बस यही उतार दो।

कंडक्टर ने चौंक कर उन दोनो को देखा और ड्राइवर से कहा ..भैया दो सवारी यहां उतरेगी।

यह पहाड़ का एक गांव था। चूंकि यह सड़क पर था इसलिये कुछ लोगो ने चाय की दुकाने खोल रखी थी। इस दुकानो पर दैनिक जीवन की कुछ बस्तुये रखी हुई थी। अविनाश और विकास एक चट्टान पर बैठ गये। उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में रात गुजारनी थी। यही उनका एडवेंचर था। दोनो ने गांव का एक चक्कर लगाया। यहां कोई होटल और रहने की जगह नही थी। अब उन दोनो के पास दो समस्यायें थी। कहां रूका जाय > क्या खाया जाय। वे दोनो एक दुकान पर पहुंचे। वहां ढ़िबरी जल रही थी। अंगीठी के धुंये झोपड़ी में फैल रहे थे। दुकान पर औरत बैठी हुई थी। अविनाश ने पूंछा - क्या यहां खाने को कुछ मिल सकता है?

-नही भैया - यहां खाने को कुछ नही मिल सकता। चाय ब्रेड और आमलेट मिल सकता है।

उन दोनो के चेहरे खिल गये। खाने का इंतजाम हो चुका था। बस उन्हें सोने की जगह चाहिये। अविनाश ने उस औरत से पूंछा – क्या लोग रात में यही रहते हैं?

-नही, अभी कुछ देर में अपनी दुकाने बंद करने के बाद अपने ठिकाने पर पहुंच जायेगे। पूरा गांव खाली हो जायेगा।

-क्या यह चौकी को आप झोपड़ी के भीतर बंद करके जायेगी?

- नहीं। यह चौकी तो हर मौसम में बाहर रहती है। यह भारी है, कौन इसे बाहर भीतर करे। आप लोग यहां क्यो रूके हैं।

-बस यूं ही।

अविनाश सीटी बजाने लगा। यह उसकी पुरानी आदत थी। जब किसी समस्या का हल हो जाता, वह सीटी बजाने लगता था।

-ओ फिलास्फर की औलाद – यहां हम मुसीबत में पड़े हुये है और तुम सीटी बजा रहे हो। विकास ने कहा

-सारी मुसीबत दूर हो गई। अब इस चौकी को हम अपना बिछौना बना लेगे। नीचे जमीन है- ऊपर आकाश। अभी थोड़ी देर में चांद उग़ जायेगा। देखना यह पहाड़ की रात ह्मारे लिये यादगार रात होगी।

एक पैकेट ब्रेड और चार बत्तख के अंडो का आमलेट खाकर वे तृप्त हो चुके थे। भूख अच्छी हो तो हर चीज स्वादिष्ट हो जाती है।

जंगल की ओट से चांद बाहर आ चुका था। नीले आसमान में उसके प्रभामंडल का विस्तार हो रहा था। सन्नाटा घना हो रहा था। झींगुरों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था,जैसे एक साथ कई घुंघुरू बज रहे हो। चौकी पर वे दोनो अपने हाथ का तकिया लगा कर सो रहे थे। उन्हे पता नही लगा, उन्हे कब नींद आयी। सुबह उठे तो वे तरोताजा थे। इतनी अच्छी नींद घर के बिस्तर पर नही आती थी। आधी रात करवट बदलने में गुजर जाती थी। विकास ने अविनाश को धन्यवाद देते हुये कहा – पहाड़ पर इतनी अच्छी नींद याद रहेगी।

वे दोनो सड़क पर निकल चुके थे। अभी आवाजाही शुरू हो जायेगी। बसों के आने - जाने का क्रम शुरू हो जायेगा। परिंदे सुबह के पहले जाग चुके थे। वे गा रहे थे। एक कि. मी . चलने के बाद उन्हे झरना दिखाई दिया। झरने में ह्ल्का सा शोर था। झरना सड़क से थोड़ा किनारे था। झरने के पास साबुन के टुकड़े, शैंपू के पैकेट बिखरे हुये थे। इसका मतलब यह था कि यहां लोग नहाने के लिये आते थे। झरने का पानी साफ –सफ्फाक था। उसके गिरने का शोर दूर से सुनाई दे रहा था। जहां पानी गिर रहा था वहां पानी के गिरने की जगह बन गयी थी। अविनाश झरने को देख कर मुग्ध हो गया।

वे दोनो बारी-बारी से झरने के नीचे उतर गये। पीठ पर पानी के गिरने से गुदगुदी हो रही थी। पानी खूब ठंडा था - जैसे वह बर्फ के पहाड़ो से आ रहा हो। वे देर तक नहाते रहे। नहाने के बाद वे दोनो पंख की तरह हल्के हो गये थे। सारी थकान उड़नछू हो गयी थी। थोड़ी कोशिश करते तो वे उड़ भी सकते थे। बसों की आवाजाही शुरू हो गयी थी। सामने आती हुई बस को हाथ दिया और बस रूक गयी। एक घंटे में वे सोनवल पहुंच चुके थे। बस स्टेशन पर उतरने के बाद उन्हें बीयर की तलब हुई। वे किसी ऐसे ठिकाने की खोज में थे - जहां इतमीनान से एक घंटा गुजारा जा सके। वे सड़क से एक गली में आ चुके थे। अविनाश को एक दुकान दिखाई दी जहां दो लड़कियां चहक रही थी। उनके बाल कंधों पर छितरे हुये थे। अभी थोड़ी देर में जब बाल सूख जायेगे, उन्हे करीने से बांध लिया जायेगा। अच्छा यह होता वे बंधन मुक्त होते और चेहरे पर उड़ते रहते। वे दोनो दुकान पर पहुंच चुके थे। अविनाश ने पूंछा- क्या यहां बीयर मिल सकती है?

-जरूर सर आइये

-क्या बैठने की जगह है

दूसरा सवाल विकास नें पूछा

इठलाती हुई लड़की ने कहा –पहले आइये तो सर . सब इंतजाम हो जायेगा

दुकान पर बैठ कर वे पीना नही चाहते थे। लड़कियो ने उनके लिये ड्राइंगरूम का दरवाजा खोल दिया। ड्राइंगरूम सुरूचिपूर्ण था। एक फोटो में वे दोनो लड़कियां गलबहियां डाले हंस रही थी। दूसरी फोटो पर फूलमाला चढ़ी हुई थी। यह शायद उनके पिता की तस्बीर थी। मेज पर बीयर की बोतल और बत्तख के अंडों की भुर्जी और नमकीन लग गयी थी। दोनो गिलास झांग से ऊफन गयी थी। जिसे देखकर उन्हें उम्दा सा ख्याल आया।

पहली गिलास में कंठ भीग चुका था। अविनाश को सिगरेट पीने की इच्छा हुई। उसने मेज पर हल्की सी थाप दी। अगले क्षण लड़की हाजिर थी। दो सिगरेट आ गये। शायद वह बिदेशी सिगरेट थी। उसके धुंये में खुशबू थी। दूसरी गिलास भर चुकी थी। कंठ भीगने से साथ तर हो गया था। वे नशे के हल्के जुनून में आ गये थे। दूसरी सिगरेट पहले सिगरेट की तरह मंगाई गई। लेकिन इस बार दूसरी लड़की थी। जिस गति से वे बीयर पी रहे थे, उस हिसाब से दो या तीन सिगरेट जरूर पी जानी थी।

विकास ने अविनाश से मूर्खो की तरह सवाल पूंछ लिया ...बार– बार सिगरेट मंगाने से अच्छा है एक पैकेट मंगा लिया जाय।

-आप मूर्ख नही महामूर्ख है। एक एक करके सिगरेट मंगाने का मजा अलग है। इसी बहाने वे हमारे पास आयेगी और हम उन्हें देखने का सुख उठा सकेगे। विकास तुम्हारे भीतर सौंदर्यबोध की कमी है। तुम्हें पता नही कि वे जब आती है, हम भीतर से कितने खुश हो जाते है।

-यू आर ग्रेट माई डियर अविनाश।

सौंन्दर्यबोध की इस प्रक्रिया में पांच गिलास खाली हो चुके थे। अविनाश की इच्छा थी कि वह इन लड़कियों के बारे में जाने। स्त्रियों को वह निष्कलुष दृष्टि से देखता था। उसके अंदर कोई पाप नही था। सौंदर्य को देखने यही निरापद तरीका था। जब आखिरी बार पहली लड़की आयी तो उसने उनके बारे में पूंछा। पता चला कि वे दोनो पास के स्कूलों में पढ़ाती थी। वह रिसर्च कर रही थी और दूसरीवाली मनोविज्ञान से एम. ए.।

एक दो घंटे कैसे बीत गये, उन्हें पता नही चला। अविनाश ने उन्हें धन्यवाद दिया और लड़कियों ने दोबारा आने का न्योता। इन दो घंटो में वे अवर्चनीय अनुभवों से गुजरे थे। कभी कभी जिंदगी के कुछ लमहे, वर्षो पर भारी पड़ जाते है।

वे दोनो उस दुकान से नही एक दृश्य से अनुपस्थित हो रहे थे। थोड़ी दूर आगे के रास्ते पर चलने के बाद, मुड़ कर पीछे की तरफ देखा तो विदा में चारों हाथ हिल रहे थे।