पहेली / उपेन्द्रनाथ अश्क / पृष्ठ 3
उसके शरीर में सनसनी दौड़ गयी -- विजय की सनसनी! उस समय वह रामदयाल, उसकी मुहब्बत, उसकी जुदाई, सब कुछ भूल गयी। उसके हृदय में, उसके मस्तिष्क में केवल एक ही विचार बस गया -- उसने दूसरे रागी को मात कर दिया है!
इसके बाद प्रतिदिन दोनों ओर से गीत उठते और वायु-मण्डल में बिखर जाते। दो दुखी आत्माएं संगीत द्वारा एक-दूसे से सहानुभूति प्रकट करतीं, दिल के दर्द गीतों की जबान से एक-दूसरे को सुनाये जाते।
एक महीना और बीत गया। कम्पनी एक नयी फिल्म तैयार कर रही थी और इन दिनों रामदयाल को रात में भी वहीं काम करना पड़ता था। कई रातें वह कम्पनी के स्टूडियो में ही बिता देता। इतने दिनों में वह केवल एक बार घर आया था। उर्मिला का दिल धड़क उठा था। पहली धड़कन और इस धड़कन में कितना अंतर था। पहले वह इस डर से कांप उठती थी कि रामदयाल कहीं उससे रूष्ट न हो जाये, अब वह इस भय से मरी जाती थी कि कहीं उस के दिल की बात न जान ले, कहीं वह रात भर रह कर उनके प्रेम-संगीत में बाधा न डाल दे।
अक्तूबर का अन्तिम सप्ताह था। रामदयाल घर आया। उर्मिला उसके मुख की ओर देख भी न सकी, उसके सामने भी न हो सकी। रामदयाल ने उसे बुलाया भी नहीं। वह दासी से केवल इतना कह कर चला गया,
"मैं अभी और एक महीने तक घर न आ सकंूगा। चित्रपट के कुछ दृश्य खराब हो गये हैं, उन्हें फिर दुबारा लिया जायेगा।'
जब वह चला गया तो उर्मिला ने सुख की एक सांस ली, उसे के हृदय से एक बोझ-सा उतर गया। वह कोई ऐसा हमदर्द चाहती थी, जिस के सामने वह अपना प्रेमभरा दिल खोल कर रख दे। रामदयाल वह नहीं था, उस तक उसकी पहुँच न थी। पानी ऊंचाई की ओर नहीं जाता, निचाई की ओर ही बहता है। रामदयाल ऊंची जगह खड़ा था और गाने वाला नीची जगह। उर्मिला का हृदय अनायास उसकी ओर बह चला।
उस दिन उर्मिला ने एक मीठा गीत गाया, जिसमें उदासीनता के स्थान पर उल्लास हिलोरें ले रहा था। अब वह कमरे में बैठ कर गाने के बदले बाहर बरामदें में बैठ कर गाया करती थी। दोनों की तानें एक-दूसे की तानों में मिल कर रह जाती। उनके हृदय कब के मिल चुके थे।
सन्ध्या का समय था। उर्मिला वाटिका में घूम रही थी। उसकी आँखें रह-रह कर सामने वाले भवन की ओर उठ जाती थीं। उस समय वह चाहती थी, कहीं वह युवक उसकी वाटिका में आ जाय और वह उस के सामने दिल के समस्त उद्गार खोल कर रख दे।
वह अकेला ही था, यह उसे ज्ञात हो चुका था, किन्तु कभी उसने दिन के समय उसे वहाँ नहीं देखा था। अंधेरा बढ़ चला था और डूबते हुए सूरज की लाली धीरे-धीरे उसमें विलीन हो रही थी ठण्डी बयार चल रही थी; प्र्र्रकृति झूम रही थी और उर्मिला के दिल को कुछ हुआ जाता था, कुछ गुदगुदी-सी उठ रही थी। वह एक बेंच पर बैठ गयी और गुनगुनाने लगी --
धीरे-धीरे यह गुनगुनाहट गीत बन गयी और वह पूरी आवाज से गाने लगी। अपने गीत की धून में मस्त वह गाती गयी। वाटिका की फसील के दूसरी ओर से किसी ने धीरे से कन्धे को छुआ। उसके स्वर में कम्पन पैदा हो गया और वह सिहर उठी।
"आप तो खूब गाती है!"
बैठे-बैठे उर्मिला ने देखा वह एक सुन्दर बलिष्ठ युवक था। छोटी-छोटी मूँछें ऊपर को उठी हुई थीं। बाल लम्बे थे और बंगाली फैशन से कटे हुए थे। गले में सिल्क का एक कुर्ता था और कमर में धोती।
उर्मिला ने कनखियों से युवक को देखा। दिल ने कहा, भाग चल, पर पांव वहीं जम गये। पंछी जाल के पास था, दाना सामने था, अब फंसा कि अब फंसा।
"आप के गले में जादू हैं!"
उर्मिला ने युवक की ओर देखा और मुस्कुरायी। वह भी मुस्करा दिया। बोली,
"यह तो आपकी कृपा है, नहीं मैं तो आपके चरणों में बैठ कर मु त तक सीख सकती हूँ!"
वह हंसा।
"आप अकेले रहते हैं?"
"हाँ"
"और आपकी पत्नी?"