पाँचवाँ अध्याय - संधि / कामताप्रसाद गुरू

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पाँचवाँ अध्याय संधि 59. दो निर्दिष्ट अक्षरों के पास-पास आने के कारण उनके मेल से जो विकार होता है, उसे संधि कहते हैं। संधि और संयोग में (दे. 18वाँ अंक) यह अंतर है कि संयोग में अक्षर जैसे के तैसे रहते हैं, परंतु संधि में उच्चारण के नियमानुसार दो अक्षरों के मेल में उनकी जगह कोई भिन्न अक्षर हो जाता है। (सू.μसंधि का विषय संस्कृत व्याकरण से संबंध रखता है। संस्कृत भाषा में पदसिद्धि, समास और वाक्यों में संधि का प्रयोजन पड़ता है, परंतु हिंदी में संधि के नियमों से मिले हुए संस्कृत के जो सामासिक शब्द आते हैं, केवल उन्हीं के संबंध से इस विषय के निरूपण की आवश्यकता होती है।) 60. संधि तीन प्रकार की हैμ(1) स्वर संधि, (2) व्यंजन संधि और (3) विसर्ग संधि। (1) दो स्वरों के पास आने से जो संधि होती है उसे स्वर संधि कहते हैं, जैसेμराम ़ अवतार = राम् ़ अ ़ अवतार = राम् ़ अ ़ वतार = रामावतार। (2) जिन दो वर्णों में संधि होती है उनमें से पहला वर्ण व्यंजन हो और दूसरा वर्ण चाहे स्वर हो चाहे व्यंजन, तो उनकी संधि को व्यंजन संधि कहते हैं; जैसेμजगत् ़ ईश = जगदीश, जगत् ़ नाथ = जगन्नाथ। (3) विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन की संधि को विसर्ग संधि कहते हैं; जैसेμतपः ़ वन = तपोवन, निः ़ अंतर = निरंतर। स्वर संधि 61. यदि दो सवर्ण (सजातीय) स्वर पास-पास आवें तो दोनों के बदले सवर्ण दीर्घ स्वर होता है, जैसेμ (क) अ और आ की संधिμ अ ़ अ = आμकल्प ़ अंत = कल्पांत। परम ़ अर्थ = परमार्थ। अ ़ आ = आμरत्न ़ आकर = रत्नाकर। कुश ़ आसन = कुशासन। आ ़ अ = आμरेखा ़ अंश = रेखांश। विद्या ़ अभ्यास = विद्याभ्यास। आ ़ आ = आμमहा ़ आशय = महाशय। वार्ता ़ आलाप = वार्तालाप। (ख) इ और ई की संधिμ इ ़ इ = ईμगिरि ़ इंद्र = गिरींद्र,। अभि ़ इष्ट = अभीष्ट। इ ़ ई = ईμकवि ़ ईश्वर = कवीश्वर। कपि ़ ईश = कपीश। ई ़ ई = ईμसती ़ ईश = सतीश। जानकी ़ ईश = जानकीश। ई ़ इ = ईμमही ़ इंद्र = महींद्र। देवी ़ इच्छा = देवीच्छा। (ग) उ, ऊ की संधिμ उ ़ उ = ऊμभानु ़ उदय = भानूदय। विधु ़ उदय = विधूदय। उ ़ ऊ = ऊμसिंधु ़ ऊर्मि = सिंधूर्मि। लघु ़ ऊर्मि = लघूर्मि। ऊ ़ ऊ = ऊμभू ़ ऊद्र्ध = भूद्र्ध। भू ़ ऊर्जित = भूर्जित। ऊ ़ उ = ऊμवधू ़ उत्सव = वधूत्सव। भू ़ उद्धार = भूद्धार। (घ) ऋ, ऋ की संधिμ (घ) ऋ, के संबंध में संस्कृत व्याकरण में बहुधा मातृ ़ ऋण = मातृण, यह उदाहरण दिया जाता है; पर इस उदाहरण में भी विकल्प से ‘मातृण’ रूप होता है। इससे प्रकट है कि दीर्घ ऋ की आवश्यकता नहीं है। 62. यदि अ वा आ के आगे इ वा ई रहे तो दोनों मिलकर ए; उ वा ऊ रहे तो दोनों मिलकर ओ; और ऋ रहे तो अर् हो जाता है। इस विकार को गुण कहते हैं। 54 ध् हिंदी व्याकरण उदाहरण अ ़ इ = एμदेव ़ इंद्र = देवेंद्र। अ ़ ई = एμसुर ़ ईश = सुरेश। आ ़ इ = एμमहा ़ इंद्र = महेंद्र। आ ़ ई = एμरमा ़ ईश = रमेश। अ ़ उ = ओμचंद्र ़ उदय = चंद्रोदय। अ ़ ऊ = ओμसमुद्र ़ ऊर्मि = समुद्रोर्मि। आ ़ उ = ओμमहा ़ उत्सव = महोत्सव। आ ़ ऊ = ओμमहा ़ ऊरु = महोरु। अ ़ ऋ = अर्μसप्त ़ ऋषि = सप्तर्षि। आ ़ ऋ = अर्μमहा ़ ऋषि = महर्षि। अपवादμ स्व ़ ईर = स्वैर; अक्ष ़ ऊहिनी = अक्षौहिणी, प्र ़ ऊढ़ = प्रौढ़; सुख ़ ऋत = सुखार्त; दश ़ ऋण = दशार्ण इत्यादि। 63. अकार व आकार के आगे ए वा ऐ हो तो दोनों मिलकर ऐ और ओ वा औ रहे तो दोनों मिलकर औ होता है। इस विकार को वृद्धि कहते हैं। यथाμ अ ़ ए = ऐμएक ़ एक = एकैक। अ ़ ऐ = ऐμमत ़ ऐक्य = मतैक्य। आ ़ ए = ऐμसदा ़ एव = सदैव। आ ़ ऐ = ऐμमहा ़ ऐश्वर्य = महैश्वर्य। अ ़ ओ = औμजल ़ ओघ = जलौघ। आ ़ ओ = औμमहा ़ ओज = महौज। अ ़ औ = औμपरम ़ औषध = परमौषध। आ ़ औ = औμमहा ़ औदार्य = महौदार्य। अपवादμअ अथवा आ के आगे ओष्ठ शब्द आवे तो विकल्प से ओ अथवा औ होता है; जैसेμबिंब ़ ओष्ठ = बिंबोष्ठ; वा बिंबौष्ठ; अधर ़ ओष्ठ = अधरोष्ठ वा अधरौष्ठ। 64. Ðस्व वा दीर्घ इकार, उकार वा ऋकार के आगे कोई असवर्ण (विजातीय) स्वर आवे तो इ ई के बदले य्, उ ऊ के बदले व् और ऋ के बदले र् होता है। इस विकार को यण् कहते हैं। जैसेμ (क) इ ़ अ = यμयदि ़ अपि = यद्यपि। इ ़ आ = याμइति ़ आदि = इत्यादि। इ ़ उ = युμप्रति ़ उपकार = प्रत्युपकार। इ ़ ऊ = यूμनि ़ ऊन = न्यून। हिंदी व्याकरण ध् 55 इ ़ ए = येμप्रति ़ एक = प्रत्येक। ई ़ अ = यμनदी ़ अर्पण = नद्यर्पण। ई ़ आ = याμदेवी ़ आगम = देव्यागम। ई ़ उ = युμसखी ़ उचित = सख्युचित। ई ़ ऊ = यूμनदी ़ ऊर्मि = नद्यूर्मि। ई ़ ऐ = यैμदेवी ़ ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य। (क) उ ़ अ = वμमनु ़ अंतर = मन्वंतर। उ ़ आ = वाμसु ़ आगत = स्वागत। ऊ ़ इ = विμअनू ़ इत = अन्वित। ऊ ़ ए = वेμअनु ़ एषण = अन्वेषण। (ख) ऋ ़ अ = रμपितृ ़ अनुमति = पित्रानुमति। ऋ ़ आ = राμमातृ ़ आनंद = मात्राानंद। 65. ए, ऐ, ओ वा औ के आगे कोई भिन्न स्वर हो तो इनके स्थान में क्रमशः अय्, आय्, अव् वा आव होता है; जैसेμ ने ़ अन = न् ़ ए ़ अ ़ न = न् ़ अय् ़ अन = नयन। गै ़ अन = ग् ़ ऐ ़ अ ़ न = ग् ़ आय् ़ अ ़ न् = गायन। गो ़ ईश = ग् ़ ओ ़ ईश = ग् ़ अव् ़ इ् ़ श = गवीश। नौ ़ इक = न् ़ औ ़ इ ़ क त्र न् ़ आव् ़ इ ़ क = नाविक। 66. ए वा ओ के आगे अ आवे तो अ का लोप हो जाता है और उसके स्थान में लुप्त आकार (ऽ) का चिद्द कर देते हैं; जैसेμ ते ़ अपि = तेऽपि (राम.); सो ़ अनुमान = सोऽनुमान (हिं. ग्रंथ), यो ़ असि = योऽसि (राम.)। (सू.μहिंदी में इस संधि का प्रचार नहीं है।) व्यंजन संधि 67. क्, च्, ट्, प् के आगे अनुनासिक को छोड़कर कोई घोष वर्ण हो तो उसके स्थान में क्रम से वर्ग का तीसरा अक्षर हो जाता है; जैसेμ दिक् ़ गज = दिग्गज; वाक् ़ ईश = वागीश। षट् ़ रिपु = षड्रिपु; षट् ़ आनन = षडानन। अप् ़ ज = अब्ज; अच् ़ अंत = अजंत। 68. किसी वर्ग के प्रथम अक्षर से परे कोई अनुनासिक वर्ण हो तो प्रथम वर्ण के बदले उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण हो जाता है; जैसेμ वाक् ़ मय = वाङ्मय; षट् ़ मास = षण्मास। 56 ध् हिंदी व्याकरण अप् ़ मय = अम्मय; जगत् ़ नाथ = जगन्नाथ। 69. त के आगे कोई स्वर ग, घ, द, ध, ब, भ अथवा य, र, व रहे तो त् के स्थान में द् होगा; जैसेμ सत् ़ आनंद = सदानंद; जगत् ़ ईश = जगदीश। उत् ़ गम = उद्गम; सत् ़ धर्म = सद्धर्म। भगवत् ़ भक्ति = भगवद्भक्ति, तत् ़ रूप = तद्रूप। 70. त् वा द् के आगे च वा छ हो तो त् वा द् के स्थान में च होता है; ज झ हो तो ज्; ट वा ठ हो तो ट्; ड वा ढ हो तो ड्; और ल हो तो ल् हो जाता है। उत् ़ चारण = उच्चारण; शरत् ़ चन्द्र = शरच्चंद्र। महत् ़ छत्रा = महच्छत्रा; सत् ़ जन = सज्जन। विपद् ़ जाल = विपज्जाल; तत् ़ लीन = तल्लीन। 71. त् वा द् के आगे श हो तो त् वा द् के बदले च् और श के बदले छ होता है और त् वा द् के आगे ह हो तो त् वा द् के स्थान में द् और ह के स्थान में ध होता है; जैसेμ सत् ़ शास्त्रा = सच्छास्त्रा; उत् ़ हार = उद्धार। 72. छ के पूर्व स्वर हो तो छ के बदले च्छ होता है; जैसेμ आ ़ छादन = आच्छादन; परि ़ छेद = परिच्छेद। 73. म् के आगे स्पर्श वर्ण हो तो म् के बदले विकल्प से अनुस्वार अथवा उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण आता है; जैसेμ सम् ़ कल्प = संकल्प वा सøल्प। किम् ़ चित् = किंचित् वा कि×िचत्। सम् ़ तोष = संतोष वा सन्तोष। सम् ़ पूर्ण = संपूर्ण वा सम्पूर्ण। 74. म् के आगे अंतस्थ वा ऊष्म वर्ण हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है; जैसेμ किम् ़ वा = किंवा; सम् ़ हार = संहार। सम् ़ योग = संयोग; सम् ़ वाद = संवाद। अपवादμसम् ़ राज् = सम्राज् (ट्)। 75. ऋ, र वा ष के आगे न हो और इनके बीच में चाहे स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार, य, व, ह आवे तो न का ण हो जाता है; जैसेμ भर् ़ अन = भरण; भूष् ़ अन = भूषण। प्र ़ मान = प्रमाण, राम ़ अयन = रामायण। तृष् ़ ना = तृष्णा; ऋ ़ न = ऋण। हिंदी व्याकरण ध् 57 76. यदि किसी शब्द के आद्य स के पूर्व अ, आ को छोड़ कोई स्वर आवे तो स के स्थान पर ष होता है; जैसेμ अभि ़ सेक = अभिषेक; नि ़ सिद्ध = निषिद्ध। वि ़ सम = विषम; सु ़ सुप्ति = सुषुप्ति। (अ) जिस संस्कृत धातु में पहले स हो और उसके पश्चात् ऋ वा र् उससे बने हुए शब्द का स पूर्वोक्त वर्णों के पीछे आने पर ष नहीं होता; जैसेμ वि ़ स्मरण (स्मृμधातु) = विस्मरण। अनु ़ सरण (सृμधातु) = अनुसरण। वि ़ सर्ज (सृजμधातु) = विसर्ग। 77. यौगिक शब्दों में यदि प्रथम शब्द के अंत में न् हो तो उसका लोप होता है; जैसेμ राजन् ़ आज्ञा = राजाज्ञा, हस्तिन् ़ दंत = हस्तिदंत। प्राणिन् ़ मात्रा = प्राणिमात्रा, धनिन् ़ त्व = धनित्व। (अ) अहन् शब्द के आगे कोई भी वर्ण आवे तो अंत्य न् के बदले र् होता है; पर रात्रिा, रूप शब्द के आने से न का उ होता है; और संधि के नियमानुसार अ ़ उ मिलकर ओ हो जाता है; जैसेμ अहन् ़ गण = अहर्गण, अहन् ़ मुख = अहर्मुख। अहन् ़ रात्रा = अहोरात्रा, अहन् ़ रूप = अहोरूप। विसर्ग संधि 78. यदि विसर्ग के आगे च वा छ हो तो विसर्ग का श् हो जाता है, ट वा ठ हो तो ष्; और त वा थ हो तो स् होता है, जैसेμ निः ़ चल = निश्चल, धनुः ़ टंकार = धनुष्टंकार। निः ़ छिद्र = निश्छिद्र, मनः ़ ताप = मनस्ताप। 79. विसर्ग के पश्चात् श, ष, वा स आवे तो विसर्ग जैसा का तैसा रहता है, अथवा उसके स्थान में आगे का वर्ण हो जाता है; जैसेμ दुः ़ शासन = दुःशासन वा दुश्शासन। निः ़ संदेह = निःसंदेह वा निस्संदेह। 80. विसर्ग के आगे क, ख, वा प, फ आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता, जैसेμ रजः ़ कण = रजःकण, पय ़ पान = पयःपान (हि.μपयपान)। (अ) यदि विसर्ग के पूर्व इ वा उ हो तो क, ख वा प, फ के पहले विसर्ग के बदले ष् होता है, जैसेμ 58 ध् हिंदी व्याकरण निः ़ कपट = निष्कपट, दुः ़ कर्म = दुष्कर्म। निः ़ फल = निष्फल, दुः ़ प्रकृति = दुष्प्रकृति। अपवादμदुः ़ ख = दुःख, निः ़ पक्ष = निःपक्ष वा निष्पक्ष। (आ) कुछ शब्दों में विसर्ग के बदले स आता है, जैसेμ नमः ़ कार = नमस्कार, पुरः ़ कार = पुरस्कार। भाः ़ कर = भास्कर, भाः ़ पति = भास्पति। 81. यदि विसर्ग के पूर्व अ हो और आगे घोष व्यंजन हो तो अ और विसर्ग (अः) के बदले ओ हो जाता है, जैसेμ अधः ़ गति = अधोगति, मनः ़ योग = मनोयोग। तेजः ़ राशि = तेजोराशि, वयः ़ वृद्ध = वयोवृद्ध। (सू.μवनोवास और मनोकामना शब्द अशुद्ध हैं।) (ख) यदि विसर्ग के पूर्व अ हो और आगे भी अ हो तो ओ के पश्चात् दूसरे अ का लोप हो जाता है, और उसके बदले लुप्त अकार का चिद्द ऽ कर देते हैं (दे. 66वाँ अंक); जैसेμ प्रथम ़ अध्याय = प्रथमोऽध्याय। मनः ़ अनुसार = मनोऽनुसार। 82. यदि विसर्ग के पहले अ, आ को छोड़कर और कोई स्वर हो और आगे कोई घोष वर्ण हो, तो विसर्ग के स्थान में र् होता है; जैसेμ निः ़ आशा = निराशा; दुः ़ उपयोग = दुरुपयोग। निः ़ गुण = निर्गुण; बहि ़ मुख = बहिर्मुख। (च) यदि र के आगे र हो तो र् का लोप हो जाता है और उसके पूर्व का Ðस्व स्वर दीर्घ कर दिया जाता है; जैसेμ निः ़ रस = नीरस; निः ़ रोग = नीरोग पुनर् ़ रचना = पुनारचना (हि.μपुनर्रचना)। 83. यदि अकार के आगे विसर्ग हो और उसके आगे अ को छोड़कर कोई और स्वर हो, तो विसर्ग का लोप जाता है और पास आए हुए स्वरों की फिर संधि नहीं होती; जैसेμ अतः ़ एव = अतएव। 84. अंत्य स् के बदले विसर्ग हो जाता है; इसलिए विसर्ग संबंधी पूर्वोक्त नियम स् के विषय में भी लगता है। ऊपर दिए हुए विसर्ग के उदाहरणों में ही कहीं-कहीं मूल स् हैं; जैसेμ अधस् ़ गति = अधः ़ गति = अधोगति। निस् ़ गुण = निः ़ गुण = निर्गुण। तेजस् ़ पुंज = तेजः ़ पुंज = तेजोपुंज। हिंदी व्याकरण ध् 59 यशस् ़ दा = यशः ़ दा = यशोदा। 85. अंत्य र् के बदले भी विसर्ग होता है। यदि र् के आगे अघोष वर्ण आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता (वे. 79वाँ अंक); और उनके आगे घोष वर्ण आवे तो र् ज्यों का त्यों रहता है (दे. 82वाँ अंक); जैसेμ प्रातर ़ काल = प्रातःकाल। अंतर ़ करण = अंतःकरण। अंतर ़ पुर = अंःतपुर। पुनर ़ उक्ति = पुनरुक्ति।