पाँचवा प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

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पाँचवा प्रकरण -मनुष्य की उत्पत्ति

जीवविज्ञान की सब शाखाओं में जीववर्गोत्पत्ति विद्या सबसे पीछे निकली है। इसका प्रादुर्भाव भी गर्भविकास विद्या के पीछे हुआ है और इसके मार्ग में कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक पड़ी हैं। गर्भविकास विद्या का उद्देश्य उन विधानों का परिज्ञान प्राप्त करना है जिनके अनुसार उदि्भद् या जंतु का शरीर मूलांड से क्रमश: उत्पन्न होता है, पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या इस बात का निर्णय करती है कि जीवों के भिन्न भिन्न वर्ग किस प्रकार उत्पन्न हुए।

गर्भविकास विद्या में तो बहुत सी बातों को प्रत्यक्ष देखने का सुबीता है; क्योंकि वे बातें हमारे सामने बराबर होती रहती हैं। गर्भांड से स्फुरित होने पर भ्रूण में एक एक दिन और एक एक घड़ी में उत्तरोत्तर क्या क्या परिवर्तन होते हैं यह देखा जा सकता है। पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या का विषय परोक्ष होने के कारण अधिक कठिन है। उन क्रियाविधानों के धीरे धीरे होने में जिनके द्वारा उदि्भदों और प्राणियों के नए नए वर्गों की क्रमश: सृष्टि होती है, लाखों वर्ष लगते हैं। उनके बहुत ही थोड़े अंश का प्रत्यक्ष हो सकता है। उन क्रियाविधानों का परिज्ञान हमें अनुमान और चिन्तन द्वारा तथा गर्भ विधान और नि:शेष जीवों के भूगर्भस्थित अस्थिपंजरों की परीक्षा द्वारा ही विशेषत: होता है। प्राणियों के विकास के इस वैज्ञानिक निरूपण का पहले बहुत विरोध किया गया क्योंकि वह देवकथाओं और धर्मसम्बन्धी प्रवादों के प्रतिकूल था। प्राचीन समय में सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ भिन्न भिन्न मतों में प्रचलित थीं। युरोप में ईसाई धर्म का डंका बजता था। ईसाई धर्माचार्य ही ऐसे विषयों के निर्णय के अनन्य अधिकारी माने जाते थे। अत: उनका निर्णय इंजील में जो सृष्टि की उत्पत्ति की कथा लिखी है, उसी के अनुसार होता था। यहाँ तक कि सन् 1735 में जब लिने नामक स्वेडन के एक वैज्ञानिक ने संसार के जीवों का वर्गविभाग किया तब वह भी बाइबिल का सिद्धांत मानते हुए चला। बड़ा भारी काम उसने यह किया कि प्राणिविज्ञान में वर्गविवरण के लिए दोहरे नामों की प्रथा चलाई। प्रत्येक जंतु के लिए एक तो उसने भेदसूचक या योनिसूचक नाम रखा; फिर उसके आदि में उसका वर्गसूचक नाम रख दिया। जैसे श्वन् शब्द के अन्तर्गत उसने कुत्ता, भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी आदि जंतु के लिए, फिर इन जंतुओं को इस प्रकार अलग अलग वैज्ञानिक नाम दिए-श्वकुक्कुर (पालतू कुत्ता), श्ववृक (भेड़िया), श्वजंबुक (गीदड़), श्वलोमशा (लोमड़ी)। श्वन् एक वर्ग का नाम हुआ और कुत्ता, लोमड़ी, गीदड़ आदि अलग अलग विशिष्ट योनियों के नाम हुए। दोहरे नामकरण की यह प्रथा इतनी उपयोगी सिद्ध हुई कि इसका प्रचार वैज्ञानिक मंडली में हो गया।

लिने ने जीवों का वर्गविभाग तो किया पर वह भिन्न भिन्न वर्गों के अवान्तर भेदों या विशिष्ट उत्पत्तिक्रम आदि का कुछ विवेचन न कर सका। बाइबिल की बात को मानते हुए उसने यही कहा कि संसार में उतनी ही योनियाँ दिखाई पड़ती हैं जितनी के ढाँचे सृष्टि के आंरभ में ईश्वर ने गढ़े थे1। इस भ्रान्त विचार के कारण जीववर्गोत्पत्ति के परिज्ञान के लिए कोई वैज्ञानिक प्रयत्न बहुत दिनों तक नहीं हो सका। लिने को केवल उन्हीं जीवों और उदि्भदों का परिज्ञान था जो इस समय पृथ्वी पर मिलते हैं। उसे उन जीवों की कुछ भी खबर न थी जो किसी समय इस पृथ्वी पर रहते थे पर अब जिनके केवल अस्थिपंजर भूगर्भ के नीचे दबे मिलते हैं।

इन पंजरावशिष्ट जीवों की खबर पहले पहल सन् 1812 के लगभग क्यूवियर ने दी। उसने इन अप्राप्य जीवों के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी जिसमें इनका सविस्तार विवरण दिया। उसने दिखलाया कि इस पृथ्वी पर भिन्न भिन्न कल्पों में भिन्न भिन्न जीव परम्परानुसार एक दूसरे के पीछे रहे हैं। पर क्यूवियर ने भी लिने के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों को अचल और स्थायी माना। इससे उसे पृथ्वी के इतिहास में संहार और नवीन सृष्टि अनेक बार होने की कल्पना करनी पड़ी। उसने बतलाया कि प्रत्येक प्रलय के समय सब जीवों का नाश हो जाता है और फिर से सब नए जीवों की सृष्टि होती है। क्यूवियर का यह 'प्रलयवाद' नितान्त भ्रान्तिमूलक होने पर भी तब तक सर्वमान्य रहा जब तक डारविन का समय आकर नहीं उपस्थित हुआ।

पर विविध योनियों को स्थिर और अपरिणामशील तथा उनकी सृष्टि को दैवी विधान मानने से विचारशील पुरुषों को संतोष नहीं हुआ। कुछ लोग सृष्टि विधान के प्राकृतिक हेतुओं के निरूपण की चेष्टा में लगे रहे। इनमें मुख्य था जर्मनी का प्रसिद्ध कवि और तत्ववेत्ता गेटे जिसने भिन्न भिन्न जीवों के शरीरों की परीक्षा करके समस्त जीवधारियों के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध और एक मूल से उत्पत्ति का निश्चय किया। सन् 1790 में उसने सब प्रकार के पौधों को एक आदिम पत्तो से निकला


1 पुराणों में तो इन योनियों की गिनती चौरासी लाख बतला दी गई है। उनके अनुसार इतनी ही योनियाँ सृष्टि के आंरभ में उत्पन्न की गई थीं, इतनी ही बराबर रही हीं और इतनी ही रहेंगी।


हुआ बतलाया। मेरुदंड और कपाल की परीक्षा द्वारा उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मनुष्य से लेकर समस्त मेरुदंड जीवों के कपाल एक विशेष क्रम से बैठाई हुई हड्डीयों के समूह से बने हैं और ये हड्डियां मेरुदंड या रीढ़ के विकार या रूपान्तर मात्र हैं। इस सूक्ष्म पंजरपरीक्षा के आधार पर उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि सारे जीवों की उत्पत्ति एक ही मूल से है। उसने दिखलाया कि मनुष्य का पंजर भी उसी ढाँचेपर बना है जिस ढाँचेपर और रीढ़वाले जीवों का। उस मूल ढाँचे में पीछे से परिवर्तन या विशेषताएँ उत्पन्न करनेवाली दो प्रधान विधायिनी शक्तियाँ हैं-एक तो शरीर के भीतर की अन्तर्मुख शक्ति जो केन्द्र की ओर ले जाती है और नियति या विशिष्टता की ओर प्रवृत्त करती है और दूसरी बहिर्मुख शक्ति जो केन्द्र के बाहर ले जाती है और रूपान्तर अर्थात वाह्यावस्थानुरूप परिवर्तन की ओर प्रवृत्त करती है। पहली शक्ति वही है जिसे आजकल पैतृक प्रवृत्ति1 कहते हैं और दूसरी वह है जो अब स्थितिसामंजस्य2 कहलाती है। गेटे के विचार यद्यपि अनेक प्रकार के प्रमाणों से पुष्ट नहीं हो पाए थे पर उनसे डारविन और लामार्क के सिध्दान्तों का आभास पहले से मिल गया।

जीवों के क्रमश: रूपान्तरित होने का सिद्धांत पूर्णरूप से फ्रांसीसी वैज्ञानिक लामार्क द्वारा ही स्थापित हुआ। 1802 में उसने जीवों की परिवर्तनशीलता और रूपान्तर विधान के सम्बन्ध में अपने नवीन विचार प्रकट किए जिन्हें आगे चलकर उसने पूर्णरूप से स्थिर किया। पहले पहल उसी ने जीवभेदों के स्थायित्वसम्बन्धी प्रवाद के विरुद्ध यह मत प्रकट किया कि योनिभेद भी जाति, वर्ग, कुल आदि के समान बुद्धिकृत प्रत्याहार या सापेक्ष भावनामात्र है। उसने निर्धारित किया कि सब योनियाँ (जीवभेद) परिवर्तनशील हैं और काल पाकर अपने से प्राचीन योनियों से उत्पन्न हुई हैं। जिन आदिम मूल जीवों से ये सब योनियाँ उत्पन्न हुई हैं वे अत्यंत क्षुद्र और सादे जीव थे। सबसे आदिम मूल जीव जड़ द्रव्य से उत्पन्न हुए थे। पैतृक प्रवृत्ति द्वारा ढाँचे का मूलरूप तो बराबर वंशपरम्परानुगत चला चलता है पर स्वभाव परिवर्तन और अवयवों के न्यूनाधिक प्रयोगभेद द्वारा स्थिति सामंजस्य जीवों में बराबर फेरफार करता रहता है। हमारा यह मुनष्यशरीर भी इसी प्राकृतिक क्रिया के अनुसार बनमानुसों के शरीर से क्रमश: परिवर्तित होते होते बना है। सृष्टि के समस्त व्यापारों का क्या वाह्य क्या मानसिक-प्रकृत कारण लामार्क ने भौतिक और रासायनिक क्रियाओं को ही माना।

आदि ही से एक एक जीव की स्वतन्त्र सृष्टि माननेवालों का भ्रम तो लामार्क


1 पैतृक प्रवृत्ति द्वारा जीवों का एक विशिष्ट ढाँचा वंशपरम्परागत बराबर चला चलता है।

2 स्थितिसामंजस्य के द्वारा वाह्य अवस्था के अनुसार प्राणियों के अंगों में कुछ विभेद होता जाता है। जैसे मछली और मेंढक के शरीर का भेद जो जल की स्थिति से जल और स्थल की उभयात्मक स्थिति में आने के कारण हुआ है।

ने अच्छी तरह दिखला दिया पर उसके सिद्धान्तों का अच्छा प्रचार न हो सका। अधिकांश वैज्ञानिक उसका विरोध ही करते रहे। इस विषय में पूर्ण सफलता आगे चलकर डारविन को हुई। उसने अपने समय के सब वैज्ञानिकों से बढ़कर काम किया। उसने अपने 'योनियों की उत्पत्ति' नामक ग्रंथके द्वारा विज्ञानक्षेत्र में एक नवीन युग उपस्थित कर दिया। उसके सिद्धांत से सृष्टिसम्बन्धी बहुत सी समस्याओं का समाधान हो गया। प्राणिविज्ञान के भिन्न भिन्न विभागों में जिन जिन बातों का पता लगा था सबका सामंजस्य डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धांत में किया। यही नहीं, उसने एक रूप के जीव से वंशपरम्पराक्रम द्वारा दूसरे रूप के जीव में परिणत होने का जो कारण 'ग्रहण क्रिया' है उसका भी पता लगाया। उसने दिखाया कि जिस प्रकार मनुष्य कुछ विशेषता रखनेवाले जंतुओं को चुनकर उनसे एक नए प्रकार की नसलें पैदा करता है उसी प्रकार प्रकृति भी रक्षा के लिए ऐसे जीवों को चुन लेती है जिसमें स्थिति के अनुकूल अंग आदि में विशेषता आ जाती है। इस प्रकार उसने प्राकृतिक 'ग्रहण सिद्धांत' की स्थापना की1A

जीवविज्ञान में डारविन ने इस बात पर बहुत जोर दिया कि जंतुओं और


1 इस सिद्धांत का अभिप्राय यह है कि जिस स्थिति में जो जीव पड़ जाते हैं उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते हैं तो रह सकते हैं अन्यथा नहीं; जितने जीवों के अंग आदि स्थिति के अनुकूल बन जाते हैं उतने रह जाते हैं, जिनके नहीं बनते वे नष्ट हो जाते हैं। अर्थात प्रकृति इस प्रकार चुने हुए जीवों को रक्षा के लिए ग्रहण करती है। स्थिति के अनुकूल बनने की क्रिया के कारण ही जीवों के अंगों में भिन्नता आती है और भिन्न भिन्न रूप के जीव उत्पन्न होते हैं। यह प्राकृतिक नियम है कि स्थितिपरिवर्तन के अनुरूप किसी वर्ग के कुछ जीवों में यदि औरों से कोई विशेषता उत्पन्न हो जाती है तो वह विशेषता पुश्त दर पुश्त चली चलती है। इस रीति से उस वर्ग में एक नए ढाँचे के जंतु का विकास हो जाता है। जंतुव्यवसायी प्राय: ऐसा करते हैं कि किसी वर्ग के कुछ जंतुओं में कोई विलक्षणता देखकर उनको चुन लेते हैं, और उन्हीं के जोड़े लगाते हैं। फिर उन जोड़ों से जो जंतु उत्पन्न होते हैं उनमें से भी उन्हें चुनते हैं जिनमें वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पुश्तों के पीछे एक नए ढाँचे का जंतु ही उत्पन्न कर लेते हैं, जैसे जंगली नीले (गोले) कबूतर से अनेक रंग और ढंग के पालतू कबूतर बनाए गए हैं। यह तो हुआ कुछ मनुष्य का चुनाव या 'कृत्रिम ग्रहण'। इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे 'प्राकृतिक ग्रहण' कहते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जंतुओं को चुनता है पर प्रकृति का यह चुनाव जीवों के लाभ के लिए होता है। प्रकृति उन्हीं जीवों को रखने के लिए चुनती या रहने देती है जिनमें स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते हैं। ह्नेल को लीजिए। उसके गर्भ की अवस्थाओं का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलचारी जंतुओं से उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्वज पानी के किनारे दलदलों के पास रहते थे फिर क्रमश: ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थितिपरिवर्तन के अनुसार उनके अवयवों में फेरफार होता गया, यहाँ तक कि कुछ काल पीछे उनकी सन्तति में जल में रहने के उपयुक्त अवयवों का विधान हो गया, जैसे उनके अगले पैर मछली के परों के रूप के हो गए, यद्यपि उनमें हड्डियां वे ही बनी रहीं

उदि्भदों की उत्पत्तिपरम्परा स्थिर कर दी जाय। किस प्रकार एक प्रकार के जीवों से उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के जीवों की सृष्टि होती गई इसका क्रम निर्धारित कर दिया जाये। तदनुसार सन् 1866 में मैंने इस विषय पर एक पुस्तक लिखकर इस बात का प्रयत्न किया। पहले एक विशिष्ट रूप के जीव को लेकर मैंने यह दिखलाया कि किस प्रकार गर्भावस्था में क्रमश: उसके विविध अंगों का स्फुरण होता है, फिर यह निर्धारित किया कि किस क्रम से सजीवसृष्टि में उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न रूपों, योनियों का विधान हुआ है। विकास से पहले गर्भ का उत्तरोत्तर स्फुरण ही समझा जाता था। पर मैंने यह स्थिर किया कि गर्भ के उत्तरोत्तर क्रम विधान के अनुसार ही जीववर्गों का भी उत्तरोत्तर क्रम विधान हुआ है। जिस क्रम से भ्रूण गर्भ के भीतर एक अणुजीव से एक रूप के उपरान्त दूसरे रूप को प्राप्त होता हुआ पूरा सावयव जंतु हो जाता है उसी क्रम से एक घटक अणुजीव से भिन्न भिन्न रूपों के छोटे बड़े जीवों की उत्पत्ति होती गई है। अस्तु, दोनों प्रकार के विकास समान नियमों के अनुसार होते हैं। गर्भ विधान या व्यक्तिविकास विधान वर्गविकास विधान की संक्षिप्त उद्धरणी है जो प्रजनन और संरक्षण क्रियाओं के अनुसार होती है। सारांश यह कि व्यक्ति विकास और वर्ग विकास का क्रम एक ही है।

उपर्युक्त सिद्धांत की व्यापकता का आभास लामार्क ने 1809 में ही दे दिया था। उसने यह दिखा दिया था कि मनुष्य भी जीवों की उस शाखा से उत्पन्न हुआ है जिस शाखा से और सब स्तन्यजीव और स्तन्यजीव भी उसी कांड से निकले हैं जिस कांड से और सब रीढ़वाले जंतु। उसने यहाँ तक कहा कि मनुष्य का बनमानुस से निकलना दिखाया जा सकता है। डारविन भी इस सिद्धांत पर पहुँचा था पर उसने अपना यह मत बहुत दिनों तक प्रकट नहीं किया। अन्त में सन् 1871 में 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में उसने अपना मत अत्यंत दृढ़ प्रमाणों से सिद्ध करके प्रकाशित किया।

इस बनमानुसी सिद्धांत के सम्बन्ध में सबसे कठिन कार्य अब यह रह गया


 जो घोड़े, गदहे आदि के अगले पैर में होती हैं। कई प्रकार के ह्नेलों में पिछली टाँगों का चिन्ह अब तक मिलता है।

जीवों के ढाँचों में बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवों के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवों का व्यवहार अधिक करना पड़ता है और कुछ का कम। जिनका व्यवहार अधिक होने लगता है वे वृद्धि को प्राप्त होने लगते हैं और जिनका कम होने लगता है वे दब जाते हैं। मनुष्य ही को लीजिए, जिसकी उत्पत्ति बनमानुसों से धीरे धीरे हुई है। ज्यों ज्यों दो पैरों के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति अधिक होती गई त्यों त्यों उसके पैर चिपटे, चौड़े और कुछ दृढ़ होते गए और एँड़ी पीछे की ओर कुछ बढ़ गई। बनमानुस से मनुष्य में ढाँचे आदि का बहुत अधिक विभेद नहीं हुआ। एक ही ओर बहुत अधिक विशेषता हुई; उसके अन्त:करण या मस्तिष्क की वृद्धि अधिक हुई।


कि मनुष्य के सबसे निकटस्थ पूर्वजों और फिर उनके पहले के और प्राचीन पूर्वजों का पता चलाया जाय जो पृथ्वी के अत्यंत प्राचीन युग में थे और जिनका विकास करोड़ों वर्ष में हुआ था। मैं इस प्रकार की पूर्वज परम्परा दिखाने का प्रयत्न बराबर करता रहा। अन्त में सन् 1891 में मैंने अपने ग्रंथ का जो संस्करण निकाला उसमें भूगर्भपंजर परीक्षा, गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के प्रमाणों के आधार पर जीवों की विकास परम्परा निश्चित की। भूगर्भ की खोदाई और छानबीन से पीछे जो और ठठरियाँ मिलीं उनसे मेरे निश्चित क्रम की ओर भी पुष्टि हुई। इस प्रकार गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के आधार पर जो जीवोत्पत्ति परम्परा अर्थात किस प्रकार के जीव से किस प्रकार के दूसरे जीव उत्पन्न हुए, निर्धारित हुई थी उसका सामंजस्य भूगर्भ में मिली हुई अप्राप्य जीवों की ठठरियों से पूरा पूरा हो गया। संक्षेप में यह परम्परा इस प्रकार है-

सबसे पहले आदिम मत्स्य, फिर फेफड़ेवाले मत्स्य1, फिर जलस्थलचारी जंतु मेंढक आदि सरीसृप, और स्तन्य जंतु। स्तन्य जीवों में अंडजस्तन्य सबसे पहले हुए, फिर उन्हींसे क्रमश: थैलीवाले अजरायुज पिंडज और जरायुज जंतु उत्पन्न हुए। इन जरायुजों से ही किंपुरुष निकले जिनमें पहले बन्दर फिर बनमानुस उत्पन्न हुए। पतली नाकवाले बनमानुसों में पहले पूँछवाले कुक्कुराकार बनमानुस हुए, फिर उनसे बिना पूँछवाले नराकार बनमानुस हुए। इन्हीं नराकार बनमानुसों की किसी शाखा से बनमानुसों के से गूँगे मनुष्यों की उत्पत्ति हुई।

रीढ़वाले जंतुओं के उत्पत्तिक्रम की शृंखला तो इस प्रकार मिल जाती है पर उनसे पहले के बिना रीढ़वाले जंतुओं की शृंखला मिलना कठिन है। भूगर्भ के भीतर उनका कोई चिन्ह नहीं मिल सकता; इससे प्राग्जन्तुविज्ञान2 कुछ सहायता नहीं दे सकता। पर तारतम्यिक शरीरविज्ञान और गर्भविज्ञान आदि के प्रमाणों पर हम इस शृंखला को मूलतक ले जा सकते हैं। हम यह दिखला सकते हैं कि मनुष्य का भ्रूण भी दूसरे रीढ़वाले जंतुओं के भ्रूण के समान कुछ दिनोंतक सूत्रादंड अवस्था में; जब कि रीढ़ के स्थान में सूत की तरह लचीली शलाका होती है। अत: जीव सृष्टि के नियमानुसार3 हम निश्चित कर सकते हैं कि पूर्वकाल के जीव सूत्रादंड और द्विकलघट


1 इस प्रकार की मछलियाँ अब बहुत कम मिलती हैं; आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमेरिका में दो तीन जातियाँ पाई जाती हैं। ये मछलियों और मेंढक आदि जलस्थलचारी जंतुओं के बीच में हैं।

2 भूगर्भ के भीतर प्राचीन जंतुओं के चिद्दों की खोज करने वाली विद्या।

3 यह नियम कि गर्भ के बढ़ने का क्रम और एक जीव से दूसरे जीव के उत्पन्न या विकसित होने का क्रम एक ही है। गर्भ में भ्रूण जिस एक मूलरूप से क्रमश: जिन दूसरे रूपों में होता हुआ कुछ महीनों में एक विशेष रूप का होकर तैयार हो जाता है सृष्टि में भी उसी एक मूल रूप से उन्हीं दूसरे रूपों में होती हुई अनेक योनियाँ क्रमश: उत्पन्न हुई हैं। अन्तर इतना ही है कि मछली से मनुष्य होने में तो करोड़ों वर्ष लगे होंगे पर मत्स्याकार गर्भपिंड से नराकार शिशु होने में कुछ महीने ही लगते हैं।


रूप के रहे हैं। सबसे अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि मनुष्य का भ्रूण भी और प्राणियों के भ्रूण के समान आदि में एक घटक के रूप का ही होता है। यह एक घटक पिंड इस बात का पता देता है कि जीवसृष्टि के आदिम काल में एक घटक जीव ही रहे होंगे।

हमारे तत्वाद्वैतवाद की स्थापना के लिए बस इतना ही देखना काफी है कि मनुष्ययोनि बनमानुस योनि से निकली है जो क्षुद्र मेरुदंड जीवों की परम्परा से विकसित हुई है। हाल में जो भूगर्भस्थपंजर मिले हैं उनसे इस बनमानुसी सिद्धांत की पुष्टि अच्छी तरह हो गई है। जरायुज जंतुओं के जो मांसभक्षी खुरपाद और किंपुरुष आदि भिन्न भिन्न वर्ग हैं उनकी परम्परा की शृंखला आजकल पाए जानेवाले जंतुओं को देखने से ठीक ठीक नहीं मिलती थी। बीच में बहुत से स्थान खाली पड़ते थे। भूगर्भ की छानबीन से अब इन स्थानों की पूर्ति हो गई है, बहुत से ऐसे जंतुओं के पंजर मिले हैं जो उपर्युक्त भिन्न भिन्न वर्गों के मध्यवर्ती जंतु थे। इन जंतुओं को किसी एक वर्ग में रखना कठिन जान पड़ता है क्योंकि इनमें भिन्न भिन्न वर्गों के लक्षण मिलेजुले हैं। पूर्ण जरायुज अवस्था में आने के पहले की अवस्था के जो क्षुद्र जीव (पंजर) मिले हैं उनमें खुरपाद, मांसभक्षी आदि वर्गों के लक्षण मिलेजुले हैं। सबके पंजरों का ढाँचा एक सा है, सब 44 दाँतवाले हैं, सबका आकार छोटा तथा मस्तिष्क की बनावट अपूर्ण है। तीस लाख वर्ष पहले ये जीव इस पृथ्वी पर थे। जीवसृष्टि क्रम के विचार से कहा जा सकता है कि ये पूर्वजरायुज जंतु भी थैलीवाले मांसभक्षी क्षुद्र जंतुओं से जरायु की विशेषता उत्पन्न हो जाने के कारण निकले हैं।

भूगर्भ की छानबीन से सबसे काम की चीजें जो मिली हैं वे किंपुरुषवर्ग के जंतुओं के पंजर हैं। पहले इन जंतुओं के पंजर नहीं मिलते थे। पर अब बहुत से मिल गए हैं। सबसे महत्व का जो पंजर मिला है वह जावाद्वीप के बानराकार मनुष्य का है जो 1894 में मिला था। उसे न हम ठीक ठीक बनमानुस का पंजर कह सकते हैं, न मनुष्य का। जिस जीव का वह पंजर है वह बनमानुष और मनुष्य के बीच का जीव था। ऐसे जीव की खोज बहुत दिनों से थी। जावा के इस बानराकार नरपंजर के मिलने से मनुष्य का बनमानुस से क्रमश: निकलना प्राग्जन्तुविज्ञान द्वारा भी उसी निश्चयात्मकता के साथ सिद्ध हो गया जिस निश्चयात्मकता के साथ शरीरविज्ञान और गर्भविज्ञान द्वारा सिद्ध था। अस्तु, मनुष्यजाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीनों प्रकार के प्रमाणों की एकरूपता हो गई।