पाँव का जूता / सतीश दुबे
बैसाख की सन्नाटे–भरी दोपहरी में कभी एड़ी तो थोड़ी देर बाद पंजे ऊँचे करके चलते हुए वे दुकान के अहाते में पसरी हुई छाइली के बीच खड़े हो गए। क्षण–भर बाद थकान और पीड़ा से भरी हुई निगाह उन्होंने दुकानदार की ओर घुमाई, ‘‘भइया! ये दवाई दे दो। देख लेना जरा, पेट–दरद की ही है ना, बूढ़ी दरद से तड़फ रही है।’’ लाठी टेकते हुए धीमी–धीमी चाल से आ रही इस आकृति के क्रियाकलाप को बड़ी देर से देख रहा दुकानदार अपने को संयत नहीं कर पाया तथा आर्द्रभाव से बोला, ‘‘बाबा! यह क्या? पैरों में जूते–चप्पल तो डाल लिए होते। ऐसी तेज घूप में नंगे पैर, जूते कहाँ गए आपके?’’ ‘‘जूते.....’’ उन्होंने धीरे–धीरे अपनी गर्दन ऊँची करके दुकानदार की ओर देखा तथा पूरा वजन लाठी पर टिकाते हुए बोले, ‘‘बबुआ, जब से बेटे के पाँव मेरे पाँव के बराबर हुए हैं, जूते वह पहनने लगा है।’’ उनका जवाब सुनकर दुकानदार को एहसास हुआ, मानो गरम लपट का कोई झोंका आहत करके गुजर गया हो। उसकी निगाह उनके तपे हुए चेहरे, जले हुए पाँवों तक फिसली तथा वह सिहर उठा। उसने दवाई चुपचाप उनकी ओर खिसका दी तथा अपने जूतों को पैरों में जोरों से भींच लिया।