पांचाली / अलका सैनी
ऐश्वर्या सुप्रसिद्ध लेखिका प्रतिभा राय का ज्ञानपीठ मूर्ति देवी पुरस्कार से पुरस्कृत उपन्यास ”पांचाली” पढ़ रही थी। पढ़ते-पढ़ते वह मन ही मन पांचाली के पौराणिक चरित्र का विश्लेषण करने लगी। उसके मन में एक शंका बार-बार सिर उठा रही थी कि पाँच पतियों के होने के बावजूद भी उसे सती, सावित्री, सीता और अनसूया की श्रेणी में रखा जाता है। वास्तव में उस जमाने की सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएं जरूर अपने उत्कर्ष पर रही होंगी। आज जमाना क्या सच में उन्नत हुआ है या फिर उन्नत होने का ढोंग भर है और असल में उन्नति के नाम पर समाज में अश्लीलता फ़ैल गई है? आजकल अगर ऐसा होता है तो उस औरत को कुल्टा, चरित्रहीन और ना जाने क्या- क्या कहकर पुकारा जाता है। यही नहीं वास्तव में पांचाली ने अपने पाँचों पतियों को मानसिक, शारीरिक और संवेदनात्मक दृष्टिकोण से कैसे संतुष्ट किया होगा? किस तरह अपने सारे पतियों के साथ सहचार्य धर्म निभाया होगा? क्या पांचाली असली प्रेम और शादी के बाद उपजे क्रियात्मक प्रेम में सही- सही अंतर समझ पाई होगी।? जबकि वह तो मन से अर्जुन को ही चाहती थी और अर्जुन भी पांचाली से प्रेम करता था मगर माँ के वचनों के अनुपालन हेतु उसे चार अतिरिक्त पतियों का भी साथ निभाना पड़ा था।
ऐश्वर्या ने ओशो के साहित्य का भी थोड़ा बहुत अध्ययन किया हुआ था। उसे आज भी अच्छी तरह याद है जिसे उसने कभी उनकी पुस्तक 'संभोग से समाधि की ओर' में पढ़ा था। उसके अनुसार शादी-शुदा लोगों का मानसिक विकास एक स्तर पर आकर रुक जाता है जबकि प्रेमी युगलों के विकास की असीम संभावनाएं खुली रहती हैं। भावनात्मक संघर्ष और तकलीफों के झेलने की वजह से उनके मस्तिष्क की ना केवल सृजन क्षमता बढ़ती है वरन उसका विस्तार भी तेजी से होता है।
तरह-तरह के पौराणिक विचारों के भीतर वह पांचाली के व्यक्तित्व में अपनी सहेली संतोष के अस्तित्व को खोजने लगी। क्या संतोष के जीवन की अनुभूतियाँ किसी पांचाली से कम नहीं है?।
संतोष के माता-पिता ने कितनी मुशक्कत के बाद अपनी पढ़ी- लिखी होनहार बेटी के लिए योग्य वर ढूँढा था, पर क्या मनीष वाकिया में ही उसके योग्य था? या सच्चाई का पता उसका सामना होने पर ही लगता है।
मनीष के घर का माहौल तो काफी स्वछन्द था, जबकि संतोष गाँव के माहौल में पली- बढ़ी थी और उसका रहन - सहन, पहनावा शहरों के हिसाब से इतना आधुनिक नहीं था जिसके उसकी सास उसे ज्यादा पसंद नहीं करती थी। उसके ससुर का खुद का मकान और अच्छा- ख़ासा सामाजिक वर्चस्व था। मनीष अच्छा माहौल मिलने के बावजूद भी अपनी निजी कमियों के कारण ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाया था, शायद इसी कारण उन्हें संतोष जैसी सीधी - सादी लड़की को अपने बेटे के लिए पसंद करना पड़ा था। परन्तु शादी के बाद की जिम्मेवारियां तो मनीष को खुद ही उठानी थी। इस बात के लिए उसकी सास बार - बार मनीष को और उसे ताने देती रहती और एक दिन उसके ससुर ने मनीष को साफ़ जवाब दे दिया कि वो लोग अपनी गृहस्थी अलग कर ले और अपने खर्चें खुद वहन करें। सास - ससुर का खुद का इतना बड़ा घर होने के बावजूद दोनों अपने छोटे से बेटे को लेकर मजबूरन किराए के मकान में रहने लगे। इस तरह पति की कमजोरी के कारण उसे शादी के बाद ना सिर्फ मानसिक यातनाओं का सामना करना पड़ा बल्कि आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ा। वह बुरी तरह अंदरूनी तौर पर टूटने लगी। घर का कलह, परेशानियां उसे भीतर ही भीतर दीमक की तरह चाटने लगे। अपने को व्यस्त रखने का प्रयास करते हुए वह अपने आप को अपने पांवों पर खड़े करने का प्रयास करने लगी।उसे था कि इस तरह एक तो वह चार पैसे कमाएगी और व्यस्त रहने पर कोई नकारात्मक ख्याल उसके दिमाग में नहीं आएगा।
एक बार जब ऐश्वर्या और संतोष साथ- साथ बैठी अपने सुख- दुःख बाँट रही थी तो संतोष ने कहा था,”ऐश्वर्या, हमारे शास्त्रों में पता है किस बात का उल्लेख है”चौदह भुवन एक पति होई”मतलब चौदह लोक भी अपने पति के सम्मुख छोटे होते हैं।
तुकबंदी करते हुए ऐश्वर्या के मुँह से अचानक निकल गया ”अगर तुलसी दास की जगह मैं रामचरितमानस लिखती तो मै इस उक्ति में संशोधन कर देती, ”चौदह भुवन एक पत्नी होई” अर्थात चौदह भुवन का दर्जा एक पत्नी के तुल्य होता है।
ऐसे बातें करते-करते दोनों खिलखिलाकर हंसने लगी।
उसने आगे कहना जारी रखा, ”तुम जानती हो, तुलसी दास ने सुन्दर-काण्ड में क्या लिखा है? ढोल, गंवार, पशु, शुद्र और नारी ये सब ताडन के अधिकारी” अर्थात पुरुष प्रधान समाज में केवल स्त्री को प्रताड़ित करने का फैसला किया था। क्या नारी की जगह पर नर नहीं हो सकता ताडन का अधिकारी?
एक गाम्भीर्य झलकने लगा था संतोष के चेहरे पर। उसने तुलसीदास की उक्तियों को अर्थात हिन्दू धर्म की मूल नीतियों को चुनौती देते हुए एक से अधिक पति रखने की कल्पना को पंख प्रधान किए थे। क्या कहीं उसके भीतर उसका स्वार्थ तो छुपा नहीं है? या वह नाम, यश, कीर्ति, बल आदि प्राप्त करने के लिए यशवंत की जिन्दगी का हिस्सा बन केवल भोग विलास संस्कृति का उपभोग तो नहीं करना चाहती थी। वह सोचने लगी कि अगर कोई उसकी देह का उपभोग करता भी है तो क्या उसकी आत्मा भी अपवित्र हो जाएगी?। शायद नहीं ऐसा तो किसी शास्त्र में नहीं लिखा। सुशिक्षिता होने के बाद भी जब उसने अपनी मंजिल पाने के लिए अनेक संघर्ष झेले और एक निर्बल औरत समझकर समाज ने उसे ऊपर उठने नहीं दिया तो उसके पास और क्या चारा था। ऐसे भी उसे किसी भी तरह का लोभ,लालच और मोह नहीं था। यहाँ तक कि उसे तो अपने शरीर से भी लगाव नहीं था।
जब उसने जवानी की दहलीज पर कदम रखा था तब भी समाज के प्रति एक आक्रोश उसके मन में था। वो जब अपने स्कूटर में पैट्रोल भरवाने जाती तो औरतों की लाइन अलग से होने के कारण वह फट से सबसे आगे चली जाती और मन ही मन यह कहती जब समाज ने अभी भी औरत को बराबरी का दर्जा नहीं दिया है तो जो उसके कमजोर होने पर उसे अधिकार मिले हैं तो वह क्यूँ ना उनका फायदा उठाये।
समय की तीखी मार ने उसे समय से पूर्व ही कुछ ज्यादा ही गंभीर और दार्शनिक बना दिया था। आँखों के नीचे पड़े काले धब्बे, चेहरे पर शिकननुमा झुर्रियां तथा लम्बे- लम्बे बालों की संगमरमरी लटें उम्र के अगले पड़ाव का सन्देश दे रही थी। उसे याद आ रहा था कभी उसका भी एक समय था। जवानी की स्मृतियों के वे सुनहरे लम्हे जब वह स्वयं एक अपूर्व सुन्दरियों में गिनी जाती थी और हर मनचला लड़का उससे मित्रता करना चाहता था।
संतोष जिस जगह पर किराए के मकान में रहती थी यशवंत वही पास में ही रहता था। वह पेशे से एक ज्योतिषी था, धोती कुर्ता पहनने वाला ज्योतिषी नहीं बल्कि आजकल के जमाने में जिन्हें ऐस्त्रोलोजर कहते है। ऐश्वर्या को भी संतोष ने एक बार यशवंत से मिलवाया था। यशवंत ने संतोष की परेशानियों को देखते हुए उसे कुछ उपाय बताये थे जिससे संतोष को अच्छा लगा था कि कोई उसका हमदर्द भी है। यशवंत ने संतोष को तसल्ली दी थी कि वह उसके सास- ससुर को भी अपने विश्वास में लेकर संतोष के लिए अलग से एक घर बनवाने के लिए राजी कर लेगा। इस तरह से संतोष यशवंत को अपना शुभ चिन्तक मानने लगी और उस पर विश्वास करने लगी। धीरे - धीरे यशवंत का उसके यहाँ आना - जाना बढ़ने लगा। यशवंत ने कुछ समय में ही उसके सास- ससुर का विश्वास भी जीत लिया था क्योंकि वह बातों का बहुत मीठा था और तेज दिमाग का भी था। इस तरह संतोष की यशवंत से नजदीकियां बढ़ने लगी और इस तरह तकरीबन वह हर रोज उसके घर आने लगा। वो उसके घर के सदस्य की तरह ही हो गया था इसलिए वह बेझिझक किसी भी समय उसके घर आ जाता। कभी उसके पति घर पर नहीं होते तब भी वो किसी ना किसी काम के बहाने उसके घर पहुंचा जाता। उसके सास - ससुर तो उसकी हर बात पर आँख मीच कर विश्वास करने लगे। संतोष बार- बार यशवंत को याद दिलाती रहती,
“यशवंत, मै किराए के घर में रहते-रहते तंग आ गई हूँ। कभी पानी की समस्या तो कभी गंदगी की परेशानी। इस पराये घर की हम अपनी मन मर्जी से देख- भाल भी नहीं कर सकते और अपना घर अपना ही होता है”
और इस तरह संतोष बार-बार यशवंत को उसके सास- ससुर को उसके घर के लिए जोर देने को कहती क्योंकि उसके पति की इतनी कमाई नहीं थी जिससे आए महीने किराया देना भी बहुत मुश्किल हो जाता। शुरू - शुरू में तो यशवंत संतोष को सांत्वना देता रहा परन्तु धीरे - धीरे वह अपना निजी फायदा देखने लगा और उसके सास - ससुर के करीबी होकर उनका फायदा उठाने लगा। इधर वह संतोष की भावनाओं से भी खेलता रहा और जब दिल चाहता उसके घर चला जाता और उससे शारीरिक सम्बन्ध बना लेता।
धीरे-धीरे यशवंत दोस्त कम प्रेमी ज्यादा नजर आने लगा। वह अपनी आत्मा और पति से आँख मिचोली करते हुए बरबस उसकी तरफ आकर्षित होने लगी। शायद उसकी महत्वकांक्षा के अतिरिक्त कई मनोवैज्ञानिक कारण रहे होंगे। हो ना हो वह उसके भीतर एक पति का स्वरुप देख रही थी। पुराने समय में भी तो पांचाली के पाँच पति थे अगर मै किसी दूसरे पुरुष को इस स्वरुप में स्वीकार करूँ तो मेरे दृष्टिकोण में यह अपराध नहीं है। जबकि अर्जुन, भीम आदि के भी उसके अतिरिक्त सुभद्रा और हिडिम्बा जैसी पत्नियां भी थी। जब सुभद्रा और हिडिम्बा के होते हुए भी पांचाली को कोई दोष नहीं लगा तो उसके मानवीय स्वरुप को कोई भला क्यूँ गलत ठहराएगा?। जब कभी उसे समय मिलता तो वह अपना आत्मावलोकन करने से भी ना चूकती थी। उसे कभी- कभी यह अवश्य लगता था कि वह कहीं ना कहीं शब्दों के आडम्बरों के चक्कर में अपने आप को धोखा दे रही है।
जरूर कोई ना कोई कारण अवश्य रहा होगा, कहीं ना कहीं उसकी कार्य दक्षता, कर्मठता अथवा सुन्दर व्यक्तित्व ने उसके मन के किसी कोने में कोई ख़ास जगह जरूर बनाई है, अन्यथा वह उसे क्यों कहता?,
“संतोष, तुम्हारे जैसी सुन्दर लड़की मैंने अपने जीवन में कभी देखी नहीं। जितनी तुम सुन्दर हो उससे कई गुना ज्यादा सुन्दर ढंग से तुम अपना हर काम करती हो। एक बात कहूँ अगर बुरा नहीं मानोगी कि मै तुमसे प्यार करने लगा हूँ”
इस समय उसे यशवंत का प्यार इतना यथार्थ लग रहा था कि वह उसे सच्चा प्यार समझने लगी। वह सोचने लगी कि हो ना हो वह भी उसे दिल से प्यार करता है। नहीं तो उसके उत्थान के लिए व्यर्थ में क्यों इतना अहसान करता।
इतनी प्यार और आसक्ति भरी बातें सुनकर स्वत संतोष के मन में प्यार की एक चाहत पैदा हो गई।
उसकी मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें आगे बढ़ने के तरह- तरह के झांसे और दांपत्य सुख के अभाव की वजह से उसे अपने दिल के रिक्त स्थान को भरने के लिए यशवंत पांडव भाई भीम की तरह नजर आने लगा था।।
भले ही उसने अपने प्यार का इजहार नहीं किया हो, मगर जो कुछ भी यशवंत कहता उसकी हां में हां वह अवश्य मिलाती थी। यहाँ तक कि अगर वह उसे शराब पीने को कहता तो चाहने पर भी वह उसे इनकार ना कर पाती। प्रेम अपील को स्वीकार करने की उसकी यही अभिव्यक्ति थी। जहाँ निसंगता और भीतरी खालीपन ने उसे झकझोर दिया था वहीँ यशवंत का हृष्ट- पुष्ट शरीर और मधुर व्यवहार उसे अपनी और आकर्षित कर रहा था।शारीरिक उपभोगों से जब यशवंत का मन उपराम हुआ तो वह उससे छुटकारा पाना चाहता था। पता नहीं कौन किसको दुख दे रहा था? पांचाली की तरह संतोष जहाँ उसमे दूसरे पति का स्वरुप देख रही थी मगर यशवंत किसी प्यासे की तरह अपनी प्यास बुझाकर वहाँ से खिसकना चाह रहा था। संतोष को क्या पैसों की चाहत थी? नहीं उसे तो केवल उसका प्यार चाहिए था। मगर ऐसा हो ना सका। समय पाकर यशवंत ने उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया। जबकि उसने तो कभी कल्पना की थी कि वह अपनी पत्नी की तरह उसका साज- सिंगार करेगा उसकी हर इच्छा का ध्यान रखेगा। हर दिन त्यौहार पर खूब सारे तोहफे भेंट करेगा। दुखी होकर संतोष के मन में कई औरतों द्वारा ऐसे नीच मर्दों को ब्लैकमेल करने के किस्से याद आने लगे। वे औरतें ना सिर्फ ऐसे मर्दों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करतीं बल्कि यह वे औरतें उन्हें बुरी तरह ब्लैक मेल भी करती थी। मगर उसने तो ऐसा कभी नहीं सोचा था। उसे तो सच्चे प्यार की तलाश थी। उसे ब्लैकमेल करने से क्या नसीब होता? इस विफलता की वजह से वह अवसाद ग्रस्त हो गई।
पर उसे कहाँ पता था कि इस पुरुष प्रधान समाज के दरिन्दे उसे इस कदर नोचने का प्रयास करेंगे कि उसके पास उड़ने का साहस ही नहीं बचेगा। समाज जितना मर्जी दुहाई देता रहे कि पुरुष और औरत को समान अधिकार है परन्तु वास्तविक स्थिति अभी भी वही है कि पुरुष हर क्षेत्र में औरत को अपने मतलब के लिए किसी ना किसी तरह इस्तेमाल करना चाहता है। घाट - घाट का पानी पीते हुए अंत में वह यशवंत के चंगुल में फंस ही गई थी।
उसे इस हालत में देख कर उसका बेटा बहुत परेशान होता और एक दिन उसने जबरदस्ती उसका अकाउंट फेस बुक पर बना दिया तो वो कहने लगी,”इससे क्या होगा, जब किसी काम में मन ही नहीं लगता तो इससे क्या हो जाएगा?”
“माँ इसके द्वारा तुम दुनिया भर के लोगों से घर बैठे ही बातें कर सकती हो और इससे तुम्हारा मन लग जाएगा”
संतोष मन ही मन सोच रही थी कि बिना जान पहचान और किसी परिचय के कोई इंसान बातों से कैसे किसी के मन को समझ सकता है? जबकि उसके पास रहने वाले उसे उसके इतने करीब होते हुए भी ना तो समझ पाए, ना ही उसके सुख- दुःख में साथ निभा पाए तो अनजान व्यक्तियों से वह क्या उम्मीद कर सकती थी। सबसे पहली जो उसे दोस्ती की रिक्वेस्ट आई वो एक नवोदित लेखक की थी परन्तु उसे न तो लेखन की न ही लेखक जगत की कोई जानकारी थी। शुरू- शुरू में औपचारिक बातें होने लगी और कभी- कभी तो उसका बेटा ही उसके अकाउंट से उस लेखक से बात कर लेता । संतोष को टाइपिंग नहीं आती थी और शब्द बहुत देख- देख कर टाइप करने पढ़ते थे क्यूंकि उसे शुरू से ही टाइपिंग से सख्त नफरत थी।उसे दीवाली का वो दिन अभी भी याद है जब वो अपने कुछ रिश्तेदारों के यहाँ सुबह के वक्त मिठाई देने गयी हुई थी तो पीछे से उसका बेटा अशोक से बातें करता रहा। जब वापिस आकर उसकी खुद की अशोक से बात हुई तो उसने बताया कि वो तो घर पर थी ही नहीं इसलिए पक्का उसके बेटे की शरारत होगी ।
इस तरह धीरे - धीरे संतोष को अशोक से बातें करने में मजा आने लगा। उसके शब्दों की अभिव्यक्ति से प्रभावित होकर वह बरबस ही उसकी तरफ खिंचती चली गयी। क्योंकि उसने अपने पति के मुँह से आज तक अपनी तारीफ़ में तो दूर की बात थी कोई भी मन की बातों का आदान-प्रदान भी नहीं किया था। जबकि संतोष को बातें करना बहुत पसंद था और अशोक के बातें करने का ढंग इतना निराला था कि वो इतनी सादगी और साफ़ सुथरे तरीके से हर बात कह देता कि संतोष मोहित हो जाती। संतोष भी उसके सामने एक खुली किताब की तरह अपने जीवन का हर पन्ना बेझिझक खोलती चली गई जैसे कि उसे जन्मों से जानती हो और उसी का ही इस जन्म में इन्तजार कर रही थी। अशोक से बातें कर वह खुश रहने लगी। उसके बेटे ने अपनी माँ के चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी और मुस्कराहट देखी तो उसे बहुत संतुष्टि हुई। पर उसे कई बार बहुत अजीब लगता कि कभी उसकी माँ सातवें आसमान पर उड़ रही होती है तो कभी बहुत उदास और चिडचिडी-सी हो जाती है। क्योंकि जब तो उसकी बात अशोक से हो जाती तो वह चहकने लगती पर जब किसी कारणवश अशोक उससे बात ना कर पाता तो वह गमहीन हो जाती, जिसको कि वह खुद भी समझ नहीं पा रही थी। अशोक को तो अपनी नौकरी भी करनी थी पर संतोष जैसे- तैसे घर का काम जल्दी से निबटा कर उससे बात करना चाहती। जैसे कि जो शब्द बरसों से उसके अंदर दबे हुए थे वे बाहर आने को हर समय छटपटाते रहते। कभी- कभी तो जब अशोक से उसकी बात ना होती तो वो अपने मन की बातें लिख कर उसे लम्बे- लम्बे ई। मेल भेज देती।
अशोक भी दूसरी तरफ संतोष के जीवन से जुड़ता जा रहा था और उसका लिखा हर एक अक्षर बहुत ध्यान से पढ़ता और उस पर विचार मंथन करके उसे जीवन की गहरी बातें समझाने का प्रयास करता। कंप्यूटर पर बैठने का इक नशा सा हो गया था। अशोक से बात हो जाती तो ना उसे भूख लगती ना प्यास। बस उसका मन करता कि वह यूँही दिन रात बैठी उससे बातें करती रहे। इस तरह कुछ अंतराल में ही अपने सुख -दुःख और विचारों के पारस्परिक विनमय से वे एक दूसरे के हमसफ़र बन गए। कविताओं और कहानियों के माध्यम से उन्होंने एक दूसरे के अंतस को छूने का प्रयास किया। जो संतोष कविता का एक अक्षर भी नहीं लिखना जानती थी उसके अंदर से भी कविताओं की पंक्तियाँ निकलने लगी। संतोष बस अपने भीतर के निर्वात को भरना चाहती थी और कहा करती थी,
“अशोक पता नहीं कब मेरा यह शरीर छूट जाए और मेरी इच्छाएं अतृप्त रह जाने से मरने के बाद मेरी आत्मा भटकती रहे”
अशोक बहुत गंभीर होकर उत्तर देता,”भगवान् हर किसी की सारी इच्छाएं तो पूरी नहीं करता मगर फिर भी उसकी कृपा हुई तो कुछ इच्छाएं अवश्य पूरी हो जायेंगी”
तरह- तरह के लुभावने संदेशों के माध्यम से वे एक दूसरे के मन को टटोलने का प्रयास करते। मन ही मन संतोष अशोक में अर्जुन को देखने लगी। हो ना हो मछली की आँख के निशाने की तरह वो उसके जीवन के लक्ष्य का भेद अवश्य करेगा। मगर अशोक उसके प्रेम अतिशय को देखकर बुरी तरह विचलित हो जाता। उसे लगता कि कहीं वह भावुक होकर किसी जाल में ना फंस जाए जिसमे से फिर कभी ना निकल पाए और मछली की तरह छटपटाने लगे। इस तरह के ख्याल आने से वह अपने को संतोष से दूर करने का प्रयास करता। ऐसे में दो दिन में ही संतोष पागल होने को हो जाती और अशोक से अपने प्यार की भीख मांगते हुए गिड़ गिडाने लगती। काफी आत्म मंथन के बाद अशोक यही पाता कि वो भी संतोष से बात किए बिना नहीं रह सकता परन्तु वो खुद को भी सजा देता और संतोष को भी खून के आंसू रुलाता।
अशोक का बार- बार का इस तरह का व्यवहार संतोष की समझ के परे था। वो मन ही मन विचार करती कि जब अशोक भी उसे दिलों जान से प्यार करता है तो बार- बार क्यूँ उसे अपने से दूर करना चाहता है। वो एक औरत होकर सच्चाई झेलने की हिम्मत रखती है तो वो एक मर्द होकर अपनी अंतरात्मा से आँख मिचोली क्यूँ खेलता है?।संतोष का बेटा उसके बारे में सब कुछ जानता था । परन्तु संतोष जिस सच्चे प्यार के सुख के लिए बरसो से तरसी थी उसे पता था वो अशोक ही है। वो दोनों दो जिस्म् जरूर थे पर एक आत्मा हो गई थी उन दोनों की। जबकि कितनी बार ऐसा होने पर आत्म विश्लेषण करने पर उसने भी यही पाया है कि वो उसके बिना नहीं रह सकता तो फिर ये बार- बार दोहराने से क्या फायदा? इन बातों से संतोष की जीने की इच्छा बिल्कुल ख़त्म हो गई। उसके लिए अशोक से अलग रहना मुमकिन नहीं था। संतोष जानती थी कि उसकी जरा सी परेशानी देख कर अशोक कितना दुखी हो जाता है जिसे वो इतनी दूर से भी महसूस कर सकती थी।
संतोष अपने को उसके सामने इस तरह प्रस्तुत करते हुए कहती,”अशोक, तुम्हारे बिना मेरी जिन्दगी अधूरी है। मै तुम्हारे बिना जी नहीं पाउंगी। भगवान् से मेरी एक ही प्रार्थना है कि मै अपने जीवन का कुछ अंश तुम्हारे चरणों में समर्पित करना चाहती हूँ। अगर आज मै जिन्दा हूँ तो केवल तुम्हारी बदोलत वर्ना मै तो मौत को बहुत पहले गले लगा चुकी होती”
अशोक उसकी हर बात को गंभीरता से सुनते हुए कहने लगता,”अच्छा एक बात बताओ कि तुम्हे अपने मासूम बेटे का भी ध्यान नहीं है?”
“प्यार के सामने परिवार तो क्या सारी दुनिया तुच्छ लगती है। और तुम्हे तो सब पता है कि मैंने जीवन में कोई ख़ुशी नई पाई”कहते - कहते वह सिसकी भरने लगती।
ऐश्वर्या को यहाँ पर ओशो की किताब की ही पंक्तियाँ याद आने लगी जबकि वह उस बात से सहमत नहीं थी किसी भी हाल में कि जब कोई औरत अपने पति को प्यार नहीं करती तो उसके बच्चों को भी पूरा प्यार नहीं दे पाती चाहे वो उसकी कोख से ही जन्मे होते हैं। इस बात को पढ़ कर ऐश्वर्या को बहुत हैरानी हुई थी और इस बात को उसका दिल मानने से इनकार कर रहा था।
संतोष की अपने पति से लगातार अनबन, असतुष्टि तथा आर्थिक परिस्थितियों ने उससे दूर एक अनजाने अर्जुन की तरफ आकृष्ट कर लिया था कि वह उसके लिए किसी भी तरह का खतरा उठा सकती थी यहाँ तक कि अपनी जान भी दे सकती थी। बहुत ही जिगर वाली लड़की थी। अशोक तो इस तरह की बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था और कई बार संतोष उसके व्यवहार से दुखी होकर उसे बुजदिल कायर और न जाने क्या- क्या कह देती थी। अशोक को उसे देखकर बेहद आश्चर्य होता था कि भगवान् ने इस धरती पर इस कलयुग में भी ऐसे इंसान बनाये है जो कि अपने प्यार को पाने के लिए अपने बसे बसाए नीड को बिखेरकर दूसरे के घोंसले में जाने का दुस्साहस कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि कभी भी हवा का तेज झोंका, आंधी या तूफ़ान उस घोंसले को तितर- बितर कर सकता है। जबकि अशोक भी संतोष से सच्चा प्यार करने के बावजूद हमेशा वास्तविकता के धरातल पर हर बात को परखना चाहता था। उसके अनुसार समाज, दुनियादारी को हम नजर अंदाज करके अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने परिजनों का दिल नहीं दुखा सकते हैं। इससे चिड़कर संतोष उससे गुस्से में अक्सर कहती,
“ठीक है तो तुम्हे बाकी सबकी तकलीफ और दुःख दिखाई देते है मेरी तड़प और मेरा दर्द तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखता तो मेरे से हमेशा के लिए नाता क्यूँ नहीं तोड़ लेते?”
उसकी ऐसी बातें सुनकर अशोक बेचैन हो जाता और उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहता,”मै तुम्हे हर हालत में खुश देखना चाहता हूँ और तुम्हारी ख़ुशी के लिए जो भी मेरे बस में होगा मैं जरूर करूँगा”
परन्तु संतोष तो बच्चों की तरह जिद करके सूरज को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेना चाहती थी और तर्क देते हुए कहती,”अशोक,मेरी वास्तविक ख़ुशी तो तुम हो तो अगर मुझे खुश देखना चाहते हो तो क्या मुझे अपने साथ रखने की हिम्मत कर सकते हो?”
अशोक उसकी ऐसी बातों से मन ही मन उसे पागल का करार देता तो कभी उसे अविकृत अति संवेदनशील हृदय। कभी- कभी उसे उसका प्रेमातिरेक समझ में नहीं आता था परन्तु वो यह जरूर मानता था कि कुछ तो ऐसी बात है जो उन्हें आपस में बांधकर रख रही थी। जबकि वह ना तो ज्यादा स्मार्ट दिखने वाला था और ना ही पैसे वाला था। वह तो पूर्णतया एक सामान्य आदमी था। जिस प्रकार महाराज दधिची ने अपने शरणागत के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि अपनी अस्थियों तक का दान भी कर दिया था ठीक उसी प्रकार अशोक भी संतोष को अपनी तकदीर का हिस्सा समझकर उसके लिए कुछ भी त्याग कर सकता था। उनकी जिन्दगी किसी खतरनाक रोमांचक उपन्यास से कम नहीं थी। कभी- कभी अशोक को संतोष के प्यार में राधा के अलोकिक प्यार की झलक दिखाई देती थी और कभी उसे उसका प्यार अपने शरीर पर झोंक की तरह चिपका हुआ लगता जिससे मृत्यु पर्यंत भी किसी भी हालत में छुटकारा नहीं पाया जा सकता था। संतोष जबकि अपने दिल की बातों को स्वीकार करना जानती थी जबकि अशोक उन सब बातों से छुटकारा पाने का सोचता रहता और संतोष उन बातों को ही अपनी दुनिया समझकर उनके साथ जीवन बिताना चाहती।
संतोष के लिए अशोक से बिछुड़ने का पल ऐसे था जैसे चाँद, तारे, धरती, आसमान, सूरज, हवा, नदियाँ, झरने और वक्त सब थम सा गया था। वो अपना सुख, चैन, अपने होंठों की लाली, आँखों का काजल, अपनी देह की सुगंध सब कुछ तो अशोक के पास छोड़ कर जा रही थी। जैसे वो बेजान हो गई थी और चली जा रही थी।
जहाँ एक सामान्य आदमी को अपने घर की समस्याएं भूत प्रेत से कम नहीं लगती थी, वहीँ उसकी अतिरिक्त समस्याएँ बर्दाश्त के स्तर से कहीं ज्यादा ऊपर उठी हुई नजर आती। उसे याद आया कि हिन्दू शास्त्रों की वे बातें जिसमे यह स्पष्ट उल्लेख था कि आसक्ति ही दुखों का मूल कारण है। हकीकत की दुनिया में कोई किसी का नहीं होता। सारे रिश्ते नाते व्यर्थ प्रतीत होते हैं। जो जीव इनमे फंस गया वो हमेशा हमेशा के लिए बर्बाद हो गया।
उनसे मुक्त हुए बिना कोई भी आदमी किसी भी सुख की कल्पना नहीं कर सकता। सही अर्थों में सारे रिश्ते नाते स्वार्थ के होते हैं। ना कोई माता पिता, भाई - बहन, बंधु - बांधव, पुत्र - पुत्रियाँ, पति- पत्नी सारे रिश्ते नाते खोखले होते हैं। यह तो कर्म बंधन के कारण ऊपर से टपके हुए रिश्ते हैं। जिसका कोई आधारभूत मूल कहीं नजर नहीं आता। बचपन में उपनिषदों के सन्देश सुनने के कारण उसे इस बात का अच्छी तरह से अहसास था कि जब एक झूठ को बार बार कहा जाता है तो वह सत्य में बदल जाता है। ठीक उसी तरह जब कोई आदमी गलत काम करते करते आदि हो जाता है तो उसे हर गलत काम भी सही नजर आता है। अशोक के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ मगर उसकी निति थी,”बीती ताहि बिसार दे, आगे कि सुधि ली”जो होना था वह तो हो गया परन्तु आगे का सही विचार करना ही बुद्दिमानों के लक्षण है। तरह तरह के दार्शनिक चिंतन धाराओं के मध्य से वह गुजर रहा था। तभी संतोष ने उसे पास में आकर झकझोरा यह कहते हुए,”मैंने किसी के विकास का ठेका नहीं लिया है। मेरा खुद का विकास तो हो नहीं पाया तो मै दूसरों का विकास कैसे कर पाउंगी,”जब तुम्हे मेरे लिए इस जन्म में समय नहीं मिलता तो दूसरे जन्मों में मिल जायेगा इस बात की क्या गारंटी है”
अशोक निरुत्तर रहा। उसकी आत्मा पाप- पुण्य के बोझ तले दबकर अपनी शुद्दता के लिए कराह रही थी। मृत्यु के बाद क्या होगा किसने देखा है? गीता का अनुयायी होने के कारण वह अपने आपको योग भ्रष्ट मान रहा था। कहीं ऐसा ना हो उसका परलोक इस कदर बिगड़ जाए कि आने वाले कई महासर्गों तक उसकी आत्मा अपनी शान्ति के लिए इधर- उधर भटकती रहे। पता नहीं कैसे वह संयम के रास्ते से अचानक फिसल कर हमेशा- हमेशा के लिए वेदना के सागर में गिर चुका था कि दुनिया की कोई भी शक्ति उसे उबार नहीं सकती थी।
इसके विपरीत संतोष कहा करती थी,”अशोक, तुम्हारा प्यार पाने के लिए मैं राधा की तरह एक तो क्या हजार पाप अपने सर मोल ले सकती हूँ”
कभी- कभी अशोक बहुत बेबसी में उसे कहता,”संतोष, मैंने अपने को तुम्हारे से दूर रखने का बहुत प्रयास किया और जितना तुमसे दूर होना चाहता हूँ उतना तुम पास चली आती हो। पता नहीं कैसे मैं इस मायाजाल में घिर गया हूँ।"
“यह सब तुम्हारे मन का भ्रम है। जब- जब जैसा तुम सोचते हो वैसा ही तुम्हारे साथ होता है। काश तुम अपने विचारों पर दृढ रह पाते और बेमतलब में इतना ना सोचते”
यहाँ पर ऐश्वर्या को फिर से ओशो की किताब का एक कथन याद आने लगा जिसके अनुसार ओशो ने कहा है कि तुम उसी चीज से छुटकारा पाना चाहते हो या दूर भागना चाहते हो जिसके बारे में सबसे ज्यादा सोचते हो, वर्ना आपको ऐसा सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ती। और जितना आप किसी चीज से दूर भागने का प्रयास करते हो और उतना ही उस चीज को अपने करीब पाते हो और यही अशोक के साथ भी हर बार होता। जितना वो संतोष या उसकी यादों को अपने से दूर करना चाहता उतना ही उन्हें अपने करीब पाता।
अशोक कभी उसके पति के बारे में कभी भूतपूर्व प्रेमी के बारे में सोचता रहता। किसी को भी दोष देने से पहले वह अपने भीतर झांकता तो उसे खुद में ही सबसे बड़ा दोष नजर आता
उसके विपरीत संतोष इतनी गहरी बातें कभी नहीं सोचती थी, वो तो वही करती जो उसका दिल कहता। कभी- कभी वह अशोक की भाषण भरी बातों से तंग आकर कहती कि जितनी भी ज्ञान की किताबें उठा कर देख लो सभी में घुमा - फिरा कर एक ही बात लिखी होती है कि इस संसार से मोह, ममता, आसक्ति सब छोड़ कर ही सच्चा सुख और शान्ति पाई जा सकती है। जबकि हकीकत में जब इस बात पर बड़े- बड़े साधू संत भी नहीं चल पाए तो हम साधारण इंसान बेकार में इन बातों की तरफ अपना ध्यान क्यों लेकर जाएँ? यह जीवन इतनी मुश्किल से मिलता है तो क्यों ना हर दिन को जिन्दा दिली से जीया जाए। इस तरह के तर्क- वितर्क उनमे भले ही चलते रहते परन्तु अंत में घूम फिर कर अशोक भी वहीँ पहुँच जाता जहाँ से शुरू होता था। अशोक की एक समस्या थी कि वो सच्चाई को स्वीकार ही नहीं करना चाहता था जबकि वो भी अपने दिल का हाल भली प्रकार जानता था।
अशोक कभी संतोष के प्यार को मायाजाल, कभी जी का जंजाल कहता, कभी उसके जिस्म पर चिपकी हुई झोंक कहता। इतना ही नहीं एक बार जब संतोष ने प्यार वश अशोक के लिए कुछ सामान भेजा तो इस पर अशोक ने उसे यह कहकर वह सामान वापिस भेज दिया,”संतोष, तुमने अपने घर का सामान अपने घर वालों की आँखों में धूल झोंक कर मुझे भेजा है जो मुझे कतई पसंद नहीं है, इसलिए जो वस्तु तुम्हारी खुद की नहीं होती उसे मेरे लिए मत दिया करो”
अशोक की ऐसी बातों से संतोष को ऐसा लगा जैसे उसके सर पर आसमान टूट पड़ा हो और मन ही मन सोचने लगी कि उसका खुद का तो कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि उसकी देह भी उसकी खुद की नहीं है, वो भी मरने के बाद मिट्टी में मिल जाएगी, ऐसा सोचते - सोचते वह फूट - फूट कर रोने लगी और भगवान् को अपनी शरण में लेने के लिए प्रार्थना करने लगी।
अशोक के इस तरह के नकारात्मक व्यवहार से संतोष बुरी तरह टूट जाती और अपने भविष्य को लेकर बिल्कुल ना उम्मीद हो जाती और फिर से अपने आप को अँधेरे से चारो तरफ से घिरा पाती।वह बार- बार अपना जीवन समाप्त करने के बारे में सोचती परन्तु उसके बच्चों के मासूम चेहरे उसके सामने आ जाते कि अगर उसको कुछ हो गया तो उसके मरने के बाद उन बेचारों की देखभाल कौन करेगा और किसके सहारे जीएँगे?, क्योंकि मनीष से तो वह कुछ भी उम्मीद नहीं कर सकती थी। इस तरह दिन- रात वो कई तरह के विचारों के सागर में गोते लगाती रहती और बेजान सी पत्थर की मूरत बनी रहती।
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों पात्रों से तो उसका पाला पड़ चुका था जिनके लिए भले ही वह अपना जीवन कुर्बान कर दे पर वो अपनी मान मर्यादा को कभी भी उसके लिए दाव पर नहीं लगायेंगे। उसे लगने लगा था कि चाहे नकुल और सहदेव भी क्यों ना आ जाए परन्तु मर्द बहुत ही स्वार्थी होता है। वो कभी भी सच का सामना ना करना चाहता है ना उसमे इतनी हिम्मत होती है कि जिसे वो सच्चा प्यार करने का दम भरता है उसके लिए अपनी निजी जिन्दगी को दाव पर लगा सके। वह फिर से उसी पुरानी जगह पर खुद को खड़ा पाने लगी कि जहाँ पर सब मर्द एक जैसे ही होते हैं जो कि प्यार करना तो जानते हैं पर निभाने का साहस रत्ती भर नहीं दिखा सकते।
सोचते -सोचते वह पुराने सपनों की दुनिया में खो गई जहाँ पर कि ध्रतराष्ट्र की सभा लगी हुई है। पांचाली का चीरहरण हो रहा था और वह अपने सब पतियों के आगे अपने आप को बचाने के लिए विनती कर रही है मगर कोई भी उसे आगे आकर बचाने की हिम्मत नहीं रखता। सब के सब नपुंसक बने तमाशा देख रहे हैं। तभी उसे भगवान् कृष्ण की याद आई और उसने उनसे अपने वर्चस्व को बचाने की प्रार्थना की।
ऐश्वर्या सोच रही थी कि वो पुराना युग था तो पांचाली को भगवान् कृष्ण ने शरण दे दी, परन्तु आज कल के युग में संतोष जैसी औरतों को विवाह उपरान्त क्या कोई कृष्ण भगवान् शरण देने आयेंगे या फिर मौत की शरण लेनी पड़ेगी अंत में सब दरवाजे बंद हो जाने के बाद, सब तरफ से नाउम्मीद हो जाने के बाद उन्हें मजबूर होकर?