पाकिट / प्रतिभा सक्सेना

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स्कूल से लौटते ही उसने बस्ता सोफ़े पर फेंका और मेरे गले मे हाथ डाल कर पीठ से झूलते हुए बोली, 'मम्मी... ! '

' क्या बात है?'

'मम्मी, हमे भी पाकिट मँगा दो। '

'अच्छा,अच्छा, मँगा दूगी ! पहले कपड़े बदलो और खाना खाओ। '

खाना खाते-खाते भी वह पाकिट की बात करती रही उसकी डिब्बी भी बन जाती है, हवाई जहाज़ भी। कैंची से काटें तो लालटेन निकल आए। रीना के, मन्टू के पास तीन-तीन हैं।

' अच्छा, पापा से कहना बाज़ार से ला देंगे। '

'पापा से तो हमने कहा था. वो कहते हैं हमे नही पता। '

'कब कहा था?'

' कल भी कहा था, पहले भी कहा था। '

' अच्छा, अब मै भी कह दँगी। '

पर पता तो मुझे भी नहीं था कि वह काहे के लिए कह रही है। मैने पूछा, 'अच्छा पाकिट क्या चीज़ है?'

'पाकिट है.'

' पाकिट क्या?'

'पाकिट है पाकिट, जैसा सुधीर के पास है, मोना के पास है और सब के पास है। '

चार साल की बच्ची को मै कैसे समझाऊँ कि जो चीज़ सिर्फ़ उसने देखी है, मै नहीं जान सकती।

'किसी के पास से लाकर दिखाओ, देखूँ कैसा है। '

' कोई नहीं देगा मम्मी, अपना पाकिट। '

'अच्छा कितना बड़ा है?'

उसने अपनी छोटी-सी गुलाबी हथेली खोलकर नाप बता दी। सफ़ेद रंग का है, ऊपर लालटेन का फ़ोटू है और लिखा भी है। क्या लिखा है ये पता नहीं -अभी जितना पढ़ना आता है उसे, वह तो मजबूरी मे जितना पढ़ना पड़ता है उतना ही पढ़ती है, बिचारी !

शाम को खेलने गई तो थोड़ी देर मे वापस लौट आई। सबके पास पाकिट हैं उनसे खेल होता है रीनी के पास हई नहीं। वह उदास होकर घर लौट आई। उसका चेहरा देखकर मुझे बड़ा तरस आया।

' नानक की दूकान पर मिलता है?'

'पता नहीं। '

' और लोग कहाँ से लाए?'

'सब अपने घर से लाते हैं। '

मैं चक्कर मे पड़ी - सब के घरों मे पाकिट हैं, हमारे घर मे नहीं और हम जानते तक नहीं कि यह क्या चीज़ है, कैसी होती है।

'अच्छा अबकी से सुधीर आए तो तुम उसका पाकिट दिखा देना हम तुम्हारे लिए भी ला देंगे। '

इनके बाज़ार जाते समय भी उसने याद दिलाई, ' पापा, हमारे लिे पाकिट जरूर लाना है। '

'बेटे, हमें पता नहीं पाकिट कैसा होता है। '

'पापा सबके पास तो है। '

मैने बीच में दखल दिया, ' कैसा पाकिट कह रही है? ला क्यों नहीं देते -इतने दिनों से रट लगाए है। '

' पर है क्या, कुछ पता भी तो चले। '

' तो ऐसा कीजिये, इसे अपने साथ लेते जाइये। अपने आप देखकर ले लेगी। '

अच्छा चलो. रीनी बेटे कपड़े बदलवा आओ। '

ढाई घन्टे बाद बाप-बेटी दोनो मुँह लटकाए लौट आए।

'क्यों मिल गया पाकिट?'

रीनी तो रोने-रोने को हो आई। ये झल्लाए हुए थे, बोले अब तुम्हीं जाकर खरिदवा दो। हम तो सारी बाज़ार ढूँढ फिरे, कहीं मिला नहीं। '

इनसे डाँट खाती है तो मेरे पास आ बैटठती है,ये उसकी पुरानी आदत है।

मैने सिर सहलाकर कहा, 'जाओ अपना स्कूल का काम कर डालो, मैं तुम्हारे लिए पाकिट मँगा दूँगी। '

वह आश्वस्त होकर चली गई।

सौदा लाने में इन्होने हमेशा मुझे झिंकाया है। एक से दूसरी दूकान देखने में इनकी शान घटती है। जिस दूकान पर ठहर जायेंगे उसी से सारा सामान खरीद लेंगे - चाहे सड़ा हो, गला हो, देखेंगे तक नहीं। घर पर आने के बाद कुछ कहो तो कह देंगे, 'मै क्या करूँ उसके यहाँ और था ही नहीं। '

अरे, आदमी दो-चार दुकाने देख कर पूरी तसल्ली कर सामान लेता है ! पर मजाल है जो ये एक दूकान से दूसरी तक बढ़ भी जायँ। कभी-कभी तो ऐसा सामान लाकर पटका है कि पड़े-पड़े सड़ता रहा और अंत मे कूड़े में फेंक देना पड़ा। मै तो इनकी खरीदारी जानती हूँ, रीनी का पाकिट ठीक से ढूँढा थोड़े ही होगा !

मैंने रीनी से पूछा, ' क्यों रीनी, पापा ने कहाँ-कहां ढूँढा था पाकिट?'

'खूब सारी दुकाने देखी थीं, ' आशा के विपरीत उत्तर मिला।

बाप-बेटी देने एक से हैं !

दुकानदार को अपनी बात समझा नहीं पाए होंगे, नहीं तो सबके पास जो चीज़ है, वो इन्हे ढूँढे नहीं मिलती ! अब मुझे ही जाना पड़ेगा।

अगले दिन उसके स्कूल में छुट्टी थी. मैने रीनी से कहा, 'नानक की दुकान पर देख आओ, पाकिट है?'

नानक मोहल्ले की परचून की दूकानवाला है, बच्चों के मतलब की चीज़ें भी रखता है थोड़ी-बहुत।

वह दौड़ी-दौड़ी चली गई पर आधे रास्ते जाकर लौट आई, ' मम्मी, पैसे तो दिये ही नहीं। '

'पहले तुम देख तो आओ जाके। '

' ऐसे तो वो देगा भी नहीं और कह देगा भाग जाओ यहाँ से। '

मुझे हँसी आ गई - बड़ी समझदार हो गई है मेरी बिटिया ! मैने पाँच रुपए का नोट उसे पकड़ा दिया।

पर पाकिट उसे नानक की दूकान पर भी नहीं मिला।

सब बच्चे अपने पापा से पाकिट लेते हैं, बस रीनी के पापा के पास नहीं है, उसके लिये शरम की बात है !

इनके आने पर फिर वही रट ! दो-तीन बार इन्होने उसे समझाया, देखा, नहीं समझती ते बुरी तरह डाँट दिया.वह रोने लगी।

बच्चों का चुपचाप रोना मन को कितना बुरा लगता है !मुझे बोलना ही पड़ा, 'इस बुरी तरह झिड़क दिया लड़की को ! ज़रा सी चीज़ लाकर दे नहीं सकते?'

'तुम तो उसी की तरफ़ बोलोगी ! हर बखत पाकिट-पाकिट-- हमारी तो समझ मे नहीं आता आखिर है क्या चीज़ !'

मैने उसे पाँच रुपए का नोट दिया पाकिट के लिए, पर उसने फेंक दिया और रोती रही। .

♦♦ • ♦♦

मेरी अच्छी मुसीबत है ! ये तो डाँट फटकार कर छुट्टी पा लेते हैं, वह रोती हुई मेरे पास आती है। इन बापों का ढंग भी बड़ा अजीब होता है - कभी तो उसे इतना प्यार करेंगे और कभी एकदम फटकार देंगे। इनके आगे वह अधिक बोल भी नहीं पाती, डाँट खाते ङुए सहम जाती है। पर मुझे तो उसका मन रखना ही है।

रीनी तीसरे पहर फिर खेलने नहीं गई। सब बच्चे जान गए है कि वह पाकिट नहीं मगा पाई। -उसे दिखा-दिखा कर और चिढ़ाते हैं। इसलिए वह खेलने ही नहीं जाती। उदास अकेली बैठी देखकर मेरा मन कचोटता है। दो साल छोटे टोनू से उसकी बिल्कुल नहीं पटती, वह तो कभी उसके रिबन खींचता है कभी बाल नोचता है।

'रीनी, कल सुबह स्कूल जाते समय सुधीर से पाकिट लेकर मुझे दिखा देना फिर मैं तुम्हारा खरीद दूँगी। '

सुबह का समय क्या किसी तूफ़ान से कम होता है? रीनी तो फिर भी सीधी है, दो साल का टोनू तो ज़रा सा मन के खिलाफ़ होते ही आसमान सिर पर उठा लेता है - उस पर न बाप की फटकार का असर, न मेरी पुचकार का। अपनी पूरी बात बोल नहीं पाता तो क्या हुआ बे-मन की बात होने पर ऐसा धमकाता है। पहली स्टेज होती है नीचे का होंठ सिकोड़ कर पूरा बाहर निकाल कर छ: कोने का मुँह बना कर रोने की तैयारी। इस पर अगर कोई ध्यान न दे तो दूसरी और आखिरी स्टेज है -खूब ज़ोर से रोने की और वह भी आँखें बन्द करके कि कहीं किसी की पुचकार से रोने की मुद्रा भंग न हो जाए। रुदन पूर्व की छ: कोने के मुँह और होंठ बाहर फुलाने की आदत तो तब की है जब वह तीन महीने का था। पहने तो ऐसा मुँह देखकर मुझे बड़े ज़ोर की हँसी छूटती थी - दो चार बार सास वगैरा ने टोका तो अब हँसने पर काफ़ी कंट्रोल कर लिया है। मेरी रीनी ने ऐसा कभी नहीं किया वह सीधे-सीधे रोती है।

सात बजे रीनी का रिक्शा आ जाता है, छ: बजे से उसे जगाकर उसके पीछे लगती हूँ - बीच-बीच में टोनू की इमरजेन्सियाँ पूरी करती हूँ और जब वह खा - पी कर समय से तैयार होकर रिक्शे पर बैठ जाती है तो मुझे लगता है एक किला फ़तेह कर लिया। इस सब के बीच दूध गर्म करना, ठण्डा करना, टोनू की शीशी भरना, शूशू कराना चलता रहता है।

रीनी को रिक्शे पर भेज कर मैंने चैन की साँस ली ही थी कि रीनी की आवाज़ आई, ' मम्मी --मम्मी--'

'क्या हो गया?' हाथ मे सँडासी लिए मै दौड़ी-दौड़ी ज़ीने पर आई।

' मम्मी ये रहा सुधीर का पाकिट --' वह रिक्शे ंमे से चिल्लाई, 'सुधीर, जल्दी दिखाओ मेरी मम्मी को --.'

सुधीर अपने बस्ते मे कुछ ढूँढ रहा था।

मेरे पीछे-पीछे टोनू घिसटता चला आया था। मेरी साड़ी की चुन्नटें पकड़ कर वह ऊपरवाली सीढी पर खड़ा उछल-उछल कर नीचे रिक्शे पर, रीनी को देख किलक रहा था। नीचे को बढता उसका पाँव देखकर मैंने एक हाथ से उसे सम्हाला, आवाज़ लगाई, ' रीनू, जल्दी दिखा पाकिट। '

सुधीर ने अपने बस्ते ंमे से कोई सफ़ेद सी चीज़ ऊपर उठाकर दिखाई, इतने मे दूध जलने की महक आई।

अरे, मै तो सारा दूध आग पर छड़ा आई थी !,सड़सी से उतारने जा रही थी कि रीनी की आवाज़ सुनी। इधर टोनू एक साथ सारी सीढियाँ फलाँगने ने की कोशिश में। मैने खींचा तो उसने बड़ी जोर से होंठ निकाल कर मुझे धमकाया, तभी रीनी का रिक्शे वाला चिल्लाया, ' जल्दी करो। '

'मम्मी देख लिया पाकिट?'

'हाँ,हाँ--' करती मै एक हाथ से टोनू को खींचती, दूसरे हाथ में सड़ासी सम्हाले अन्दर भागी -दूध उतारने। मैने सोचा लौटकर आएगी तब देख लूँगी, पर उस दिन किसी कारण हाफ़ डे मे ही छुट्टी हो गई, वह जल्दी ही लौट आई। मुझे पाकिट देखने का मौका नहीं मिला।

♦♦ • ♦♦

शाम को बाज़ार जाने का प्रोग्राम बना, बना क्या मैंने जान-बूझकर बनाया। वैसे मुझे बज़ार जाने का कोई शौक नहीं है। पर अब तो पाकिट लेना था।

हमलोगों ने सारा बाज़र छान मारा। दूकानदारों को समझाना मुश्किल हो गया कि पाकिट है क्या। रीनी अपने ढंग से समझाती थी और वे समझ न पाकर उसे ही बहलाने की कोशिश करते.वे अपनी ही कोई चीज़ भिड़ाने के चक्कर में।

पर बहल जाय तो रीनी कैसी! हम लोगों ने भी उसे समझाया, कई खिलौने दिखाए - 'कहा तुम ये लेलो ये पाकिट से भी अच्छे हैं, और किसी के पास ऐसा है भी नहीं। '

पर उसकी एक ही रट '-हमें तो पाकिट चाहिए, सब के पास है हमे भी चाहिए। '

अब तो मैं भी परेशान हो गई, 'जो चीज़ कहीं मिलती ही नहीं, तुम्हारे लिए कहाँ से ला दें?हमने तो कभी देखी भी नहीं। '

'सुधीर की दिखाई तो थी। '

'कहाँ देख पाई मै !टोनू नीचे कूदा जा रहा था उधर दूध उबल गया --। '

रीनी फिर उदास हो गई। मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था।

शाम हो गई थी। मौसम सुहावना था। मैंने सोचा जल्दी घर पहुँच जाएँगे तो ये अकेली चुपचाप बैठी रहेगी खेलने भी नहीं जाएगी, रास्ते में ही थोड़ा समय निकाल दें।

'चलो पैदल ही घर चलें रिक्शा लेकर क्या करेंगे?'

'तुम्ही थक जाओगी, मुझे क्या --। '

हम लेग लौट पड़े।

आज तो हद हो गई !बीस पच्चीस दूकानो पर पूछा पाकिट किसी के पास नहीं !ऐसा क्या अजूबा है?

नुमायश ग्राउण्ड की सफ़ाई हो गई थी, उधर से निकल चलेंगे तो काफ़ी चक्कर बच जाएगा। हम लोग नुमायश की तैयारियाँ देखते हुए चलते रहे। पूरा मैदान एकदम साफ़ है, जगह-जगह फाटक लग रहे हैं, बिजलीवालों के तम्बू गड़े हैं बिजली की फ़िटिंग चल रही है क्यारियों में फूलों की पौध तैयार हो रही है। हप़्ते भर बाद यहाँ खूब रौनक रहेगी, सारे शहर के लोग इधर ही उमड़ पड़ेंगे। लाउड-स्पीकरों के शोर के मारे एक-एक बजे तक सोना मुश्किल हो जाएगा !

गर्मियों की सुहावनी शामें बड़ी जल्दी ढल जाती हैं। नुमायश ग्राउण्ड की इक्की-दुक्की बिजलियाँ जल गईं थीं, बिजलीवालों के तम्बुओं से हम जरा आगे बढ़े ही थे कि दैड़ती हुई रीनी चिल्लाई, 'मम्मी, मम्मी, वो रहा पाकिट ! '

उसने झुक कर जमीन से कुछ उठाया, फ्राक से उसकी मिट्टी पोंछी और दोनो पथेलियों से दबा कर सीने से लगा लिया।

' देखें तो क्या है, ' हम दोनों उत्सुक होकर एक साथ भागे।

उसने खोल कर दिखाया -

सिगरेट का एक खाली पैकेट, जिस पर लालटेन की तस्वीर बनी हुई थी !