पागल हाथी / प्रेमचन्द

Gadya Kosh से
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मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोर-जोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा।

थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा न सका। जंगल का जानवर जंगल ही में चला गया।

जंगल में पहुंचकर अपने साथियों को ढूंढ़ने लगा। वह कुछ दूर और आगे बढ़ा तो हाथियों ने जब उसके गले में रस्सी और पांव में टूटी जंजीर देखी तो उससे मुंह फेर लिया। उसकी बात तक न पूछी। उनका शायद मतलब था कि तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहराम गुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है। जब तक वे आंखों से ओझल न हो गये, मोती वहीं खड़ा ताकता रहा। फिर न जाने क्या सोचकर वहां से भागता हुआ महल की ओर चला।

वह रास्ते ही में था कि उसने देखा कि राजा साहब शिकारियों के साथ घोड़े पर चले आ रहे हैं। वह फौरन एक बड़ी चट्टान की आड़ में छिप गया। धूप तेज थी, राजा साहब जरा दम लेने को घोड़े से उतरे। अचानक मोती आड़ से निकल पड़ा और गरजता हुआ राजा साहब की ओर दौड़ा। राजा साहब घबराकर भागे और एक छोटी झोंपड़ी में घुस गये। जरा देर बाद मोती भी पहुंचा। उसने राजा साहब को अंदर घुसते देख लिया था। पहले तो उसने अपनी सूंड़ से ऊपर का छप्पर गिरा दिया, फिर उसे पैरों से रौंदकर चूर-चूर कर डाला।

भीतर राजा साहब का मारे डर के बुरा हाल था। जान बचने की कोई आशा न थी।

आखिर कुछ न सूझी तो वह जान पर खेलकर पीछे दीवार पर चढ़ गये, और दूसरी तरफ कूद कर भाग निकले। मोती द्वार पर खड़ा छप्पर रौंद रहा था और सोच रहा था कि दीवार कैसे गिराऊं? आखिर उसने धक्का देकर दीवार गिरा दी। मिट्टी की दीवार पागल हाथी का धक्का क्या सहती? मगर जब राजा साहब भीतर न मिले तो उसने बाकी दीवारें भी गिरा दीं और जंगल की तरफ चला गया।

घर लौटकर राजा साहब ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो आदमी मोती को जीता पकड़कर लायेगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जायेगा। कई आदमी इनाम के लालच में उसे पकड़ने के लिए जंगल गये। मगर उनमें से एक भी न लौटा। मोती के महावत के एक लड़का था। उसका नाम था मुरली। अभी वह कुल आठ-नौ बरस का था, इसलिए राजा साहब दया करके उसे और उसकी मां को खाने-पहनने के लिए कुछ खर्च दिया करते थे। मुरली था तो बालक पर हिम्मत का धनी था, कमर बांधकर मोती को पकड़ लाने के लिए तैयार हो गया। मगर मां ने बहुतेरा समझाया, और लोगों ने भी मना किया, मगर उसने किसी की एक न सुनी और जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गौर से इधर-उधर देखने लगा। आखिर उसने देखा कि मोती सिर झुकाये उसी पेड़ की ओर चला आ रहा है। उसकी चाल से ऐसा मालूम होता था कि उसका मिजाज ठंडा हो गया है। ज्यों ही मोती उस पेड़ के नीचे आया, उसने पेड़ के ऊपर से पुचकारा, “मोती!”

मोती इस आवाज को पहचानता था। वहीं रुक गया और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखने लगा। मुरली को देखकर पहचान गया। यह वही मुरली था, जिसे वह अपनी सूंड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बिठा लेता था! “मैंने ही इसके बाप को मार डाला है,” यह सोचकर उसे बालक पर दया आयी। खुश होकर सूंड़ हिलाने लगा। मुरली उसके मन के भाव को पहचान गया। वह पेड़ से नीचे उतरा और उसकी सूंड़ को थपकियां देने लगा। फिर उसे बैठने का इशारा किया। मोती बैठा नहीं, मुरली को अपनी सूंड़ से उठाकर पहले ही की तरह अपने मस्तक पर बिठा लिया और राजमहल की ओर चला। मुरली जब मोती को लिए हुए राजमहल के द्वार पर पहुंचा तो सबने दांतों उंगली दबाई। फिर भी किसी की हिम्मत न होती थी कि मोती के पास जाये। मुरली ने चिल्लाकर कहा, “डरो मत, मोती बिल्कुल सीधा हो गया है, अब वह किसी से न बोलेगा।” राजा साहब भी डरते-डरते मोती के सामने आये। उन्हें कितना अचंभा हुआ कि वही पागल मोती अब गाय की तरह सीधा हो गया है। उन्होंने मुरली को एक हजार रुपया इनाम तो दिया ही, उसे अपना खास महावत बना लिया, और मोती फिर राजा साहब का सबसे प्यारा हाथी बन गया।