पागल / अनिल जनविजय

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गर्मी-सर्दी-बरसात वह यूँ ही घूमता रहता है, चिथड़े लपेटे, अर्धनग्न अवस्था में। कभी-कभी ढेर सारी छोटी-छोटी लकड़ियाँ बीन लाता है इधर-उधर से। फिर घण्टों उन्हें सजाता रहता है।

इसके साथ-साथ वह बड़बड़ाता जाता है — बैठिए बिड़लाजी, आप यहाँ बैठिए, टाटाजी की बगल में। और भरतरामजी, आप वहाँ डालमियाजी के साथ जम जाइए, जहाँ साहू साहब बैठे हैं। पीलू मोदी तो अटलजी के साथ बैठेंगे। क्या ? आपत्ति कुछ, तो चलिए वहाँ चरणसिंह के साथ बैठ जाइए। जग्गू भाई तो वहाँ मोरारजी के साथ ठीक रहेंगे। इन्दिराजी के लिए वह आगेवाली लाइन में जगह रिजर्व है; डाँगे तो बैठेंगे उन्हीं के पास । हाँ, नम्बूदरीपाद और ज्योति बसु जहाँ बैठना चाहें, उनकी मरज़ी पर है। चलिए, विपक्ष के साथ बैठने का नाटक ही करिए।

और वह इसी प्रकार बोलता रहता है, जब तक कि सारी लकड़ियाँ एक ढेर का रूप नहीं ले लेतीं। फिर वह माचिस निकालकर उस ढेर में आग लगा देता है। जब सारी लकड़ियाँ सुलगने लगती हैं तो वह बेतहाशा तालियाँ बजाने लगता है, उछलने लगता है, अट्टहास करने लगता है, किलकारियाँ मारने लगता है, ख़ुशी से चीख़ने लगता है। लोग कहते हैं — वह पागल हो गया है।