पागल / राधाकृष्ण

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तो वह बिना किसी कारण के मुस्कराता रहता था।

ऐसे आदमी पागल होते हैं। अगर कोई अपने मतलब से अपने स्वार्थ से मुस्कराता है, तो वह ठीक है। कम से कम वह पागल तो नहीं है। लेकिन अगर कोई बिना वजह के मुस्कराता है तो वह मुस्कान का अपव्यय करता है। इस व्यापारिक युग में अपव्यय बड़ी खराब चीज है। इससे दिवाला निकल जाता है। सो, मुस्कान का भी अपव्यय नहीं होना चाहिए। जो फिजूल बिना कारण के मुस्कराता रहता है, वह पागल नहीं तो और क्या है?

खाने-पीने का भी उसका ठीक नहीं। जो मिला सो खा लिया। नहीं मिला, नहीं खाया। अपनी मौज में मुस्कराते रहे। जरूर ही वह पागल है, वरना खाना तो आदमी को दोनों वक्त मिलना ही चाहिए। इसी दोनों वक्त के भोजन के लिए आदमी चोरी, डकैती, घूसखोरी, जालसाजी और बेईमानी करता है। इसी भोजन के लिए राज्यक्रांतियाँ होती हैं, षड्यंत्र होते हैं, हत्याएँ होती हैं, तख्त उलटते और पलटते हैं। भोजन ही तो सारवस्तु है। उस भोजन की ओर से लापरवाह? उस भोजन के बिना भी अलमस्त? वह जरूर पागल है। यदि वह पागल नहीं होता, तो अपने भोजन के लिए अवश्य ही जाल-फरेब करता, चोरी-डकैती करता अथवा किसी से भीख माँगता। मगर वह तो, यह सबकुछ भी नहीं करता। जरूर वह पागल है।

रहने का भी ठौर ठिकाना नहीं। जहाँ जमे वहीं अपना घर है। सड़क पर है, तो वहीं आराम है। जरूर वह पागल है, अन्यथा उसका कोई अपना घर जरूर होता। अगर अपना घर नहीं होता, तो कोई किराये का घर तो जरूर होता। अगर वह भी नहीं होता, तब भी किसी मकान या जमीन के लिए किसी अदालत में उसका कोई दीवानी मुकदमा जरूर चलता होगा। नहीं-नहीं, वह पागल है। उसे अपने कपड़े-लत्ते का खयाल नहीं। वह अपने भोजन की भी परवाह नहीं करता। उसके रहने का भी ठीक नहीं। ऊपर से वह बिना किसी कारण के मुस्कराता रहता है। उसके पास भीख मांगने की झोली तक नहीं और वह अलमस्त बना रहता है। जरूर वह पागल है।

ऐसे पागल से कौन बोले? मैं भी नहीं बोलता। उसके पास तो अपनी कोई कामना नहीं। फिर वह दूसरों के काम में दिलचस्पी क्यों लेगा? जिसके पास अपना स्वार्थ नहीं, उससे दूसरे किसी का स्वार्थ कुछ भी नहीं सधेगा। वह फिजूल है। समाज और सामाजिक चेतना के लिए वह पागल है। पागल से नहीं बोलना चाहिए। मैं शाम-सवेरे, दिन-दोपहर, आते-जाते उसे बराबर देखता हूँ। वह बराबर मुस्कराता रहता है, बराबर हँसता रहता है। मैं उससे बोलता ही नहीं।

वह पागल बराबर मेरे मुहल्ले में चक्कर काटता था, मेरे ही मुहल्ले में रहता था। घर तो उसका था ही नहीं। अपना पड़ोसी भी उसे कैसे कहूं? मगर वह मेरे ही मुहल्ले में रहता था।

सन 1946 की बात है। संप्रदाय और मजहब आपस में टकराने लगे। मुझे मालूम नहीं कि भगवान और अल्लाहताला कभी लड़ते होंगे, खुदाबंदा करीम और श्री रामचंद्र आपस में छूरेबाजी करते होंगे? लेकिन हिंदू और मुसलमान तो जरूर लडऩे लगे। सारा देश इस वातावरण में लीन हो गया।

फिर हमारा ही नगर क्यों चुप रहे? क्या गया के हिंदुओं ने माँ का दूध नहीं पिया है? क्या मुसलमानों के पास इस्लाम की आन नहीं? अल्लाओ-अकबर! बजरंग बली की जय!!...लो, दोनों ओर ठन गई। खचाखच छुरियाँ चलने लगीं, बीच-बीच में बंदूकों से फायर होने लगे। फटाफट तमाम घरों के सभी दरवाजे बंद हो गए। सारे शहर में सन्नाटा छा गया। बस, कभी दूर से हर-हर महादेव की आवाज आती या फिर आर्तनाद का स्वर सुनाई देता। सड़कों पर लहू के धब्बे थे और निरीह की लोथ थी। ओह, कैसा बुरा वक्त था।

मगर वह पागल तब भी घूम रहा था, तब भी हँस रहा था। मैंने अपने मकान की खिड़की को खोलकर देखा। वह भागते हुए लोगों को देखकर हँस रहा था, मुर्दा पड़ी हुई लाशों को देखकर हँस रहा था।

आज पहली बार मुझे उस पागल पर ममता आई। डर लगा कि कहीं कोई उसे मार न डाले। मैंने खिड़की बंद की। जल्दी-जल्दी नीचे उतरा। पास जाकर बोला, तुम कहीं छिप क्यों नहीं जाते?

वह मुस्कराता रहा, मेरी ओर देखता रहा।

मैंने कहा-देखते नहीं, चारो ओर मार-काट मची हुई है?

उसने मुस्कराकर कहा-हाँ, मार-काट मची हुई है। सब पागल हो गए हैं।

वह ऐसा वक्त था कि आदमी या तो हिंदू था या मुसलमान था। इसके सिवा वह कुछ भी नहीं था। इसके सिवा वह कुछ हो भी नहीं सकता था। मेरे मन में एक संदेह ने सिर उठाया। मैंने उससे पूछा-तुम हिंदुओं की ओर हो या मुसलमानों की तरफ?

उसने हँसते हुए कहा-क्या तुमने मुझे भी पागल समझ लिया है? मैं किसी की तरफ क्यों रहूँ? मैं पागल नहीं हूँ।

और, वह मुझे लक्ष्य करके हँसा, फिर गली की ओर चलकर मुड़ गया। जाते-जाते वह बड़बड़ा रहा था कि लोग पागल हो गए हैं कि मुझे पागल समझ रहे हैं। कम्बख्तो, मैं तुम लोगों की तरह पागल नहीं हूँ।...