पागल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गली–मुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों सेअब सिर्फ़ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–"मारो इस हरामी का।" और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–"अरे–रे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभी–कभी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहता है।" युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिये हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से 'बचाओ–बचाओ' की चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगे–आगे चलने वाले युवक ने कहा–"अरे महेश, इसे ऊपर पहुचा दो।"
पागल खिलखिलाकर हँस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–"इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है, जो कभी–कभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।"
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई. पागल पुन: खिलखिलाकर हँस पड़ा। -0-