पाटदेई / वीणापाणि मोहंती / दिनेश कुमार माली
वीणापाणि मोहंती (1936 )
जन्म-स्थान :- चांदोल,केंद्रपड़ा
प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“नव तरंग”,1963, “कस्तुरी मृग ओ सबुज अरण्य “,1967, “तटिनीर तृष्णा”,1972, “अंधकारर छाई “,1976, “मध्यांतर “*1979, “वस्त्रहरण”,1980, “खेलणा”,1983, “पाटदेई “,1987, “वह्नि वलय”,1990, “अश्रु अनल “,1992, “पद्म घुंची घुंची जाऊछि “,2000 इत्यादि समुदाय 25 किताब।
पाटदेई आधी रात को घर छोडकर कहां चली गई, किसी को भी पता नहीं था। फाल्गुन पूनम की रात थी, चन्द्रमा धवल चाँदनी बिखेर रहा था। मेले के मैदान में मजीरे-मृदंग बजाकर सभी भक्त, घर-घर घूमकर भोग खाकर एक जगह इकट्ठे हो गए थे। चारो ओर भीड़ लगी हुई थी।छोटे-छोटे बच्चे अबीर लिए अल्प विश्राम लेकर फिर घर के बाहर घूमने निकाल आते थे। चारो तरफ जिसने जहां पाया, वह छुपते- छुपाते अंजलि भर ले जा रहा था। होली के दिन का मजा और उसके पहले दिन का मजा तो समान नहीं है। वर्ष में एक बार आता है वह उत्सव। रोकना चाहने से भी रोक नहीं पाते है, कब आकर कब पलकों से ओझल हो जाता था। न चाहने से भी सभी अपने आप हो जाता था, सारे साल की धूल शरीर और मन के आवरण पर जमा होकर रहती। न तो कोई उसे देखता, न किसी को दिखाते बनता। शायद उसी तरह पाटदेई भी ऊपर ही ऊपर हंसती थी, उसके भीतर भूत की तरह एक चिंता सालों-साल से सता रही थी। दिन के उजियाले जैसी चांदनी रात में भीड़ के समय पाटदेई भगवान को भोग लगाकर मेले के मैदान में यात्रा देखेगी, सोचकर घर से बाहर निकल पड़ी थी। सुबह- सुबह उसके पिताजी भगवान की प्रतिमा को कंधे पर बिठाकर गांव में कुछ दूरी तक पैदल चले। शाम को उसने सिंगफली की सब्जी और पखाल खाया था। पेट ठीक नहीं लग रहा है,सोचकर वह रसोई के बरामदे में दरी बिछाकर लेट गई थी। घर में कोई भी नहीं था कि जिसके साथ वह कुछ बात करती। पड़ोसी मनीभाऊज ताश खेलने के लिए बुलाने आया था, शरीर ठीक नहीं है, कहकर पाटदेई ने मना कर दिया और ऐसे ही लेटी पड़ी रही। यह देखकर मनी भाभी और दूसरे चले गए थे। पिछवाडे के दरवाजे बंद करते समय खिलखिलाकर हंसते हुए किसी ने कहा था, “
“अरे .. ! शरीर मरोड़कर अजगर की तरह सोई है, कहती है,अच्छा नहीं लग रहा है। झूठ बोल रही है...।
उसके बाद सभी जोर-जोर से हंसने लगे। शरारती हवा में वह हंसी उड़कर पता नहीं कहां चली गई। केवल पाटदेई चित्त लेटकर सोते-सोते चन्द्रमा से बतिया रही थी। बाहर इकट्ठी भीड़, आनंद महोत्सव से जैसे उसका कोई सरोकार नहीं हो। वह उस दिन किस दुनिया में थी और क्या सोच रही थी, उसके अलावा, अन्य किसी को खबर लेने की कोई जरुरत नहीं थी।
पूरी बस्ती में भजन- कीर्तन, झाल- मृदंग बज रहे थे। अबीर लगाते लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई थी। उस समय आधी रात को बिल्ली, भूत-प्रेत, डायन किसी से भी न डरकर पाटदेई घर दरवाजे पर चिटकनी लगाकर यात्रा देखने चली गई। सारी रात चिटकनी खोलकर घर में कोई नहीं आया या पाटदेई कहां गई कहकर दिमाग नहीं खपाया।
सारी रात महोत्सव। सुबह, दोपहर में होली खेलने के बाद सब अपने- अपने घर के अंदर घुस गए। किसके पास समय था दूसरे के घर जाने का ! कौन गया, मरा, गायब हो गया, खाया या भूखा सोया किसको पडी थी सूध लेने की। उसी रात में दो ‘पाला’ की प्रतियोगिता हो रही थी। उस समय पाटदेई की कौन खबर लेता ! वह रात बीतने के बाद उसके दूसरे दिन दोपहर में जब खाँसते हुए जगु बेहरा घर लौटा तो दरवाजे पर चिटकनी देख गुस्से से आग बबूला हो गया।
आस-पास घरवालों को आवाज सुनाई दे, इसलिए पाट नाम लेकर पुकारने लगा। उसकी आवाज उसके कंठ और छाती के भीतर टकराकर लौट आती थी। एक घड़ी विश्राम लेने के बाद वह उठ गया और चिल्लाते- चिल्लाते सबके घर जाकर पाट को खोजने लगा।
कैसे नहीं चिल्लाता ! पांच गुंठ जमीन बेचने पर पाट की उसने शादी करवाई थी। राजकुमार की तरह सुंदर दामाद, घर और जमीन मिलाकर दो बीघे से अधिक, घर में खूब सारा बंधक रखा हुआ सोना। लड़की दो महीने भी ससुराल में नहीं रही। क्या हुआ उसको, वही जाने। एक महीने में ही चिंता करते- करते काली पड़ गई। कोई पूछने से बिल्कुल बोलती नहीं थी, केवल डबडबाई आंखों से देखती थी। वास्तव में ऐसा लगता था, जैसे किसी अनजान आदमी को देख रही हो। वरन उसे जानने-पहचानने की चेष्टा कर रही हो। जगु सोच रहा था, लड़की लाड-प्यार में पली है इसलिए जरा-सी भी दिक्कत उसे दुखी कर देती है। मां, भाई नहीं थे जो उसके दुख को पेट से उगलवाते, वह तो पिता थे ! वह और अधिक क्या करते? जगु बेहरा कोई राजा जमींदार तो था नहीं कि समधी और समधिन को दो कड़वी बातें कह सकता। जगु का मन पाट के लिए छटपटा रहा था।
कुछ सुना नहीं, कुछ पता नहीं, एक दिन आधी रात में किवाड़ का कड़ा झनझना उठा। रिमझिम बारिश हो रही थी। आकाश में काले-काले बादल उमड़- घुमड रहे थे। तालाब के किनारे मेंढक टर्रा रहे थे। ठंडी हवा के कारण जगु सिर से पांव तक ओड़ कर सो रहा था। खटखटाने की आवाज से वह उठ गया। “कौन है? कौन है? ” भीतर से आवाज देने लगा। मगर कोई उत्तर नहीं मिला। भूत-प्रेत होकर सोचकर वह करवट बदलकर सो गया। फिर दरवाजे पर एक बार खटखटाने की आवाज हुई तो वह उठकर बैठ गया। जगु को गुस्सा आने लगा। भगवान का नाम लेकर अंधेरे में दरवाजा खोल दिया तो वह चौंक उठा। जितना भी होने से खून पुकार रहा था। अंधेरे के अंदर अपनी बेटी को पहचानने में बिल्कुल भी कष्ट नहीं हुआ। बल्कि आश्चर्यचकित होकर उसके मुंह से शब्द निकले, “पाट ! पाट तू !”
पाट कुछ भी ना कहकर पिता के पास से होते हुए घर के भीतर आ गई और घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर दिए। जगु बेचैन होकर पूछने लगा, “क्या हुआ? आधी रात को आई हो? क्या जंवाई के साथ झगडा करके छुपकर आई हो? ”
पाट कुछ न बोलकर दीवार के सहारे खड़ी हो गई। उसका चेहरा अच्छी तरह से दिख नहीं रहा था। आखिरकर से जगु बेहरा थक हारकर नीचे बैठ गया। बिना कुछ बोले पाट को घर के भीतर जाते देख जगु रुद्ध गले से पूछने लगा, “पाट ! क्या हुआ, कुछ बता नहीं रही हो ! सास- ससुर से लडाई-झगडा हुआ? तबीयत तो ठीक है? ”
पाट निरुत्तर रही। जगु सोचने लगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरुर है। अभी पता नहीं चलेगा, किसे आधी रात को पूछेगा?। बेटी ने खाना खाया है या नहीं, पता नही। शुरु से वह जिद्दी लडकी है। मन नहीं संभल पाने के कारण जगु उठकर रसोईघरके बरामदे में बैठी हुई बेटी को देखकर पूछने लगा, “कुछ खाओगी? हांडी में पखाल होंगे...।” पाट घुटनों के भीतर अपना मुंह छिपाकर रोने लगी। जोर-जोर से रोने लगी जितनी तो वह पिता का घर छोडते वक्त भी नहीं रोई थी। अपने गमछे से बेटी के आंसू पोंछकर जगु चुप हो गया। वह नहीं समझ पा रहा था, किस कष्ट की वजह से वह भाग आई है?। पता नहीं चलेगा? कच्चे मन की है, घर-बार अभी अपना नहीं समझ रही है। सुबह होने पर दामाद या समधि, जो भी हो, आएंगे। मगर जगु बेहरा उन्हें दो बात जरुर सुनाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। महीने- महीने, साल बीत गए पाट के ससुराल से कोई खबर लेने नहीं आया और न ही जगु दिन-रात कोशिश करने पर भी पूछ पाया कि पाट किस वजह से आधी रात को तुम अपना ससुराल छोडकर आई हो?। पूछने पर वह केवल डबडबाई आंखों से देखती थी। दोनो आंखें आंसुओं से छलकने लगती थी, होंठ थर्राने लगते थे, मगर मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। पास-पड़ोस वालों के पूछने पर जगु चुप रहता था, ज्यादा होने पर कहता था दामाद चेन्नई गए हैं। वहां नौकरी मिल जाने पर बेटी को लेने आएगा। सास,ससुर, दामाद किसी की एक भी चिट्ठी नहीं आई और न ही कोई आदमी खबर लेने आया। पता नहीं, क्या सोचकर जगु बेहरा भी पाट के ससुराल की खबर लेने नहीं गया?, बुढ़ापे में मजदूरी करके, एक वक्त का खाना तो एक वक्त का फांका, जैसे- तैसे अपना गुजरबसर कर रहा था।
अपने बाप को इस बुढ़ापे में इतना कष्ट दे रही है, इस बारे में पाट ने कुछ नहीं कहा। जगु उस पर क्रोध करता? क्रोध आने पर भी पाट का चेहरा देखकर वह कुछ नहीं कह पाता था। कल अगर वह आत्महत्या कर लेगी या भागकर और कहीं चली गई तो। जगु के परिवार में और कोई नहीं था। जितने भी अवगुण होने पर, जितनी भी जिद्दी होने पर भी उसको लेकर जिंदा रहना होगा, उसके लिए सुननी होगी निंदा, प्रशंसा, सब कुछ। इस वजह चौबीस घंटे बोलने वाले जगु बेहरा के मुंह पर जैसे ताला लग गया हो। पाट के आने के बाद पास-पडोसियों ने काफी भला –बुरा कहा। कोई कहने लगा, सास- ससुर के साथ झगड़ा करने की वजह से ससुराल से डंडा मारकर बाहर निकाल दिया है। कोई कहने लगा, दामाद को नापसंद थी इसलिए छोड़ दिया और कोई कहने लगा, पडोसियों के साथ गुलछर्रे उड़ाने की वजह से आधी रात को घर से धक्का देकर बाहर निकाल दिया होगा। किसी को भी कुछ उत्तर न देकर जगु पाट के चेहरे की तरफ देखता था, कभी- कभी सोचता था, पूछेगा, डांटेगा और नहीं मानने पर जबरदस्ती ससुराल छोडकर आ जाएगा। मगर उसका रूंआसा चेहरा देखकर जगु चुप रह जाता था। पौ फटते ही वह मजदूरी करने जाता था, शाम को अच्छे कल के बारे में भगवान से प्रार्थना करता था। वह हर दिन बेटी को तो रख नहीं पाएगा?
और जगु अपने को काबू नहीं कर सका। दो दिन की थकान, भूख-प्यास से शरीर कमजोर लगने लगा। बेटी दरवाजा खोलकर कांसे के बर्तन में पखाल, पानी लेकर बाप के लौटने की राह देखनी चाहिए। लेकिन पड़ोस में वह या तो ताश खेलती या फिर गपशप करने लगती। कितना सहन करता जगु बेहरा और? श्मशान में जाने तक वह केवल खटेगा, सब के मन मुताबिक चलेगा, उसकी बात सुनने के लिए कोई आगे नहीं आएगा?
जगु बेहरा चिल्लाने लगा, “पाट ! ! पाट ओ ! कहां हो, जल्दी आओ.... पाट, पाट, ओ!” कहीं से कोई जबाव नहीं आया। सारा गांव घर- घर घूमने के बाद जगु बेहरा अपने घर लौटकर देखने लगा। चिटकनी वैसे ही लगी हुई थी। टूटे-फूटे दोनो दरवाजे परस्पर चिपककर लगे हुए थे। सूर्यास्त होने को आया था, चारों तरफ अंधेरा फैलने लगा था।
जगु बेहरा बरामदे में दीवार के सहारे सो गया। सोते-सोते रात गुजर गई, चिड़ियों की चहचहाहट होने से वह दरवाजे पर लगी चिटकनी की ओर देखने लगा। वैसी ही लगी हुई थी चिटकनी।
गांव वाले कहते हैं, देखने वाले कहते हैं, जगु बेहरा दीवार के सहारे बैठकर ऐसे ही झपकी मार रहा था और उसकी चेतना नहीं रही। बुजुर्ग लोगों ने आकर समझाया। वह बड़ी-बड़ी आंखों से देखने लगा। पखाल, पानी लेकर कोई बहू-बेटी सामने आकर खडी हो जाती, तो उसके होंठ कांपने लगते, आंखों से आंसू बहने लगते, मगर मुंह से कोई बोल नहीं फूटते। लोग कहते हैं, बेटी व्यभिचारिणी होने से बाप को सदमा लग गया। वह न कुछ बोल पाता है, न कुछ सुन पाता है। वास्तव में जगु बेहरा जैसे पागल हो गया हो। भूखे-प्यासे दस दिन बीतने के बाद हमेशा के लिए लुढ़क गया। सुबह सभी लोग बुलाते- बुलाते थक गए,मगर उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकली। उसकी आंखें दरवाजे की चिटकनी के ऊपर स्थिर हो गई और चेहरे पर मक्खियां भिनभिनाने लगी।
पाटदेई को घर छोडे हुए तीन वर्ष हो गए थे, और जगु बेहरा को दुनिया छोडे हुए भी तीन वर्ष। उस दिन से मेले के मैदान में तीन बार मेला लग चुका है, आम-मंजरी पककर नीचे गिर गई, नदी का जल इस किनारे से उस किनारे दोनो किनारों को छूता हुआ समुद्र के मुहाने तक जा पहुंचा। पाट की भाभी एक बच्चे को गोद में लेकर विधवा हो गई, सारे संगी- साथी इस किनारे से उस किनारे इधर-उधर बिछुड गए। मगर किसी को भी पाटदेई के वापस आने का ध्यान नहीं आया, क्यों घर छोडकर चली गई?, किसी ने सोचा तक नहीं, पाटदेई का पति कहां चला गया?, किस के साथ शादी कर ली?, उसकी चिंता किसी ने नहीं की। बल्कि हर दिन सूरज उगता था, हर ऋतु यथारीति चलती थी। सभी के दिनों में पाटदेई एक अनकहा, अनबुझा, अवांछनीय प्रश्नवाचक बनकर रह गई। उसका उत्तर देने में न वह खुद समर्थ थी और न ही इस दुनिया में कोई और। उस दिन से जगु बेहरा के घर की चटकनी बंद थी। डेढ कमरों का घर। अंदर फटी हुई चद्दरें, बिछौने पड़े हुए थे। मैले सूटकेस रखे हुए थे। सारे पड़ोसियों ने वह दृश्य देखा। किसी भी चीज का उन्हें लोभ नहीं था। या कौन उनके मैले कुचैले सामान को हाथ लगाने जाता? रात को भूत-प्रेत का डर भी तो था? दुर्भाग्य से गांव के अंतिम छोर पर घर था जगु बेहरा का। घर के दरवाजे पर खिलने वाले तराट पेड़ के फूल भी उस दिन से खिलना बंद हो गए थे, नहीं तो उसी बहाने से कोई न कोई चिटकनी को खोलकर पाटदेई के चीज-सामान को परख लेता। अकेला होकर यह घर एक दिन भूतखाने की तरह नजर आने लगा। उस रास्ते से गुजरते हुए लोगों ने घनघोर अंधेरे में सफेद वस्त्र पहने हुए पाटदेई को देखा, इसके अलावा जगु बेहरा की जोर-जोर से रोने की आवाज बीच- बीच में सुनाई पड़ती थी।
अचानक एक दिन चारों तरफ बात फैल गई। तीन वर्ष मानो तीन युग की तरह लगने लगे। पिछली बातें ठीक-ठीक याद भी नहीं आ रही थी। मालूम नहीं होने पर लोगों ने तरह-तरह की बातें करना शुरु की, जानने सुनने वाले लोग त्राहिमाम करने लगे। क्योंकि एक दिन सुबह पाटदेई बरामदे में झाडू लगाते दिखाई पड़ी। दो साल का एक बेटा अपने मुंह में अंगुली डालकर उसके पीछे भाग रहा था। पाटदेई थोड़ी मोटी लगने लगी थी। मगर दोनो आंखे पहले की तरह ही डबडबाती हुई भयंकर दुख से भरी हुई थी। यह खबर चारों दिशा में तुरंत फैल गई.. जगु बेहरा के घर से भागी लडकी पाटदेई घर लौट आई है। साथ में है एक बच्चा। अपना होगा, नहीं तो क्यों अपने साथ लाती? अपने सुंदर से पति को छोडकर वह रात के अंधेरे में भागकर आई थी, वह क्या ऐसे ही खाली हाथ आई थी? पिता के घर भी वह रुक नहीं पाई, किसी के साथ में संबंध बनाकर फिर घर छोडकर भाग गई। कौन भला सारा जीवन उसका पालन-पोषण करता? ढलती उम्र के पाटदेई के शरीर में मेहनत करने की और ताकत नहीं थी। आखिरकर वह पिता के घर आशा करके लौट आई।
तीन वर्ष पहले की और अभी की पाटदेई में आकाश- पाताल का अंतर था। अब वह किसी की भी इज्जत नहीं करती थी। बडे बुजुर्ग, गुरुजन जब कोई उससे प्रश्न करते, सिर पर घूंघट डालकर दूसरी तरफ खडी हो जाती थी। बेटी, बहू जाने पर फटी दरी बिछा देती थी और डबडबाती आंखों से देखती रहती थी। जिसको भी पूछने से, हंसी मजाक करने से भी कुछ उत्तर नहीं देती थी। कभी-कभी थोड़ा बहुत हंसती थी, तो कभी-कभी अन्यमनस्क होकर जमीन पर चित्र बनाने लगती थी।
सभी उसे व्यभिचारिणी, कलंकिनी कहने लगे। कैसे जीवन गुजारेगी किसको क्या पडी है? ससुराल व पति को छोडकर आने के बाद गर्भवती होने की कहानी किसी ने नहीं सुनी थी। फिर भी इतना गर्व अहंकार? राम ! राम ! धर्म नहीं सहन करेगा। पाटदेई क्या स्वर्ग की मालकिन है जो सभी अनियमों को नियम में बदल देगी? सभी अकहानी को कहानी बनाकर संसार में जीने का सपना देखेगी? छि ! छि ! कितनी शर्मनाक बात ! पाटदेई को क्या थोडा जहर भी नहीं मिला.?.. सभी बातों में चुप रहने पर क्या इस संसार में वह जी पाएगी?
पाटदेई की तीसरी कक्षा तक की गई पढ़ाई भी इस विषय पर उसको कोई सटीक ज्ञान नहीं दे पाई। इसके भाई पिता नहीं है, कौन उसकी मदद करेगा?। आखिरकर एक दिन गांव वालों ने निर्णय किया - पाटदेई गांव छोडकर चली जाए अगर वह जिंदा रहना चाहती है, नहीं तो जगु बेहरा के उस घर में आग लगा दी जाए। गांव की बहु- बेटियों की इज्जत का मटियामेट कर पाटदेई सभी के मुख पर कालिख पोत देगी।
जिस दिन पडोस के सभी आदमी, औरतों ने मिलकर पाटदेई के दरवाजे पर खडे होकर स्पष्टीकरण माँगा, वह फटे कपडे को मुंह में डालकर कहने लगी- “हां, हां, इस बेटे को मैने जन्म दिया है। शादी के दूसरे दिन मेरा पति कलकत्ता चला गया, सास- ससुर ने मुझे एक घर में बंदकर भूखा-प्यासा रखकर पन्द्रह दिन तक मुंह नहीं देखा, आधी रात को मैं छिपते- छिपाते पिता के पास आ गई। वह भी मुझे देखकर घबरा गए। जितने दिन मैं उनके पास रही, उतने दिन वह सभी की लांछना सुनते रहे। मुझ पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए। मेरी खातिर वह बुढापे में हड्डीतोड मेहनत करने लगे, फिर भी न तो पेट भरता था न इज्जत बचती थी।
पाटदेई सिर पर ओढनी को ठीक करते हुए कहने लगी, “मेरे पास कुछ भी कहने को नहीं था, कुछ करने का भी नहीं था। बाप को मेहनत से मुक्त करने के लिए मैं मर भी नहीं पाई.. मगर... इस निष्ठुर दुनिया ने मेरी गोद में एक बेटा देकर इधर लौटा लाया।” कोई एक बुजुर्ग आदमी कमर पर गमछा बांधकर आगे आया, पता नहीं क्यों, पाटदेई ओढ़नी के अंदर देख नहीं पाई। कमर पर हाथ रखकर चिल्लाते हुए वह कहने लगा- “क्या कहा? और एक बार कहो? दुनिया ने तुझे बेटा दिया है? उसे वहां न रखकर यहां क्यों लाई हो? अरे, कलमुही !जिसका कह रही हो उसका नाम बता। कहो, कहो किसका है यह लड़का? ”
घूंघट को ओर आगे खींचकर थरथराते होंठों के साथ नीचे बैठ गई। बच्चे की आंखों से चुपचाप आंसू बह रहे थे, भयंकर दुख उमड़ पडा था मगर चुपचाप।
अचानक उसकी कमर पर किसी ने लात मारी। मणी भाभी की सास रिश्ते में पाट की चाची लगती थी। पाट के रोते ही वह बूढ़ी कांपते-कांपते कहने लगी, “क्यों री ! मुंह से आवाज क्यों नहीं निकल रही है? साप सूंघ गया। बचपन में इतनी सीधी-सादी फिर भी ससुराल में एक महीना नहीं रह पाई, बाप को जिन्दा खा गई, अब किस मुंह से कह रही हो, मेरा बेटा, भगवान ने मुझे दिया है। अरे ! सही- सही बता इस लड़के का बाप कौन है? नहीं तो,आज तेरे कटार से दो हिस्से कर दूंगी... हाँ। मुझे नहीं जानती हो?
पाट की गर्दन पर पैर रखकर खडी हो गई। चारो ओर आदमी और औरत घेरकर खडे थे, मानो जैसे जादू का कोई खेल चल रहा हो।
पाट की गर्दन मुडकर टेडी हो गई थी। सांस रुकने लगी थी। आंखों के सामने तारे नजर आने लगे थे। नहीं, वह और नहीं सहन कर पाएगी... नहीं कर पाएगी... नही कर पाएगी। उसके लिए न तो धरती फटेगी और न ही स्वर्ग से शिव-पार्वती लेने आयेंगे। खुद के चाहने से मरेगी, खुद के चाहने से बचेगी। यही तो बात है?
अचानक क्या हुआ, पता नहीं, बूढ़ी के पैर को धक्का देकर पाट खडी हो गई. हात्ती-कट्टी पांच फुट लंबी एक बुजुर्ग और गंभीर नारी की तरह उसके चेहरे पर दंभ और घृणा के मिलेजुले हाव-भाव से रंग बैंगनी हो गया। गांव के सभी लोगों को घूरकर रोते हुए बच्चे को अपनी गोद में लेकर कहने लगी- “इस लड़के के बाप के बारे में जानना चाहते हो तो? लडके के बाप तो जितने भी खडे हैं, सभी आदमी हैं। रामू, वीरा, गोपी, भागुणी, नरिया और उनके पीछे दो-चार खड़े हैं, वे भी तो ! कैसे कहूं लडका किसका है? फाल्गुन पूनम की रात, मेले के अंदर जब तक पाला (नौटंकी) प्रतियोगिता चल रही थी, उस समय तो यही, रामू गमछे से मेरा मुह बांधकर सूनसान जगह पर ले गया था, श्मशान के किनारे उस बरगद के पेड के नीचे, ये सभी मुझे घेरकर जैसे नोच-नोचकर मेरा मांस खा रहे थे। मुंह बंद था, फिर भी चेतना खत्म होने से पहले उनके चेहरे चांदनी रात में मैने अच्छी तरह से पहचान लिए थे। फिर किसका है यह बच्चा? कैसे कहूं? पूछो इस हरिआ बावरी को, जो उनसे पैसे लेकर मुझे कटक छोडने गया था। केवल पिता की निंदा न हो इसलिए मैं यहां आई नही थी। लौटकर आने पर भी मैने किसी को कुछ भी नहीं कहा... अब पूछ इनको चाची। अपने सीने पर हाथ रखकर कहें, कौन इसका बाप है? ”
अचानक सारी परिस्थितियाँ बदल गई। बूढ़े और अधेढ उम्र के लोग एक दूसरे की तरफ ताकने लगे। जवान लड़के मुस्कराने लगे। किसी के भी मुंह से न तो कोई प्रश्न निकला और न ही कोई उत्तर। चाची बरामदे में बैठ गई, एक थकेहारे की तरह। रामू, वीरा, गोपी, भागुणी सभी के चेहरे नीचे झुक गए। पाटदेई ने आंखे पोंछते हुए झाडू लगाना प्रारंभ कर दिया। छोटे बच्चे की बाह पकडकर रोना शुरु कर दी। झाडू फेंककर बाएं हाथ से बच्चे की नाक साफ करते हुए गोद में लेकर काफी देर तक दुलार करते कहने लगी- “क्यों रो रहे हो? लोगों को देखने से तुझे डर लग रहा है क्या? मत डर बेटे मैं हूं न। इस दुनिया में कोई माई का लाल है जो इसका बाप बनने को तैयार है? उसके लिए मत रो बेटे, तेरी मां तो है।”
बच्चा क्या समझा,क्या पता, बादलों के भीतर खो गया। चंद्रमा की तरफ हाथ बढ़ाकर धीरे-धीरे हंसने लगा। और उसकी उस हंसी से चारो ओर इकट्ठे हुए लोग चकित हो गए और इधर-उधर होकर पीछे मुंह करके चलना शुरु कर दिया।
दो दिन के बाद ठूंट तराट पेड़ पर दो चार नए फूल खिल कर हवा में मुस्करा रहे थे। मणी भाभी की सास अपनी लकड़ी पकडकर ठक-ठक करके चुपचाप जा रही थी।
पाटदेई इधर-उधर देखकर बेटे को नजर न लगे, इसलिए उसकी छाती पर थोडा-सा थूक दी। आह ! राजकुमार जैसे बेटे को लोगों की नजर लगने से आधा सूख गया है ! न कोई दे रहा है न कोई देगा? अपने बाप के घर की वह मालकिन है, रानी है, बेटा उसका राजकुमार।
उस समय हर दिन की भांति आकाश और धरती पर कोई हलचल नहीं हुई। पाटदेई नीचे और ऊपर देखकर हँसते हँसते रो रही थी।