पातंजलि योग दर्शन / मृदुल कीर्ति
‘योग’ शब्द संकेत करता है कि किसी से पृथकता है जिससे मिलना है। एक से एक पृथक नहीं होता अतः पृथकत्व में एकत्व लाने का विषय योग है। जीव का कुछ बिछुड़ा है जिससे जुड़ना योग है।
‘दर्शन’ योग की प्रक्रिया का तात्विक विवेचन और सूक्ष्म चित्त वृत्तियों का समीकरण ‘ दर्शन’ का विषय है। अतः यह सूक्ष्म आध्यात्मिक परा विद्या ही योग दर्शन का विषय है।
‘पातंजलि योग दर्शन’ वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विषय का तात्विक निरूपण ग्रन्थ है, जो सूक्त में लिखा गया अद्वितीय यौगिक ज्ञान कोष है। कथित है किः
‘नास्ति सांख्य समं ज्ञानं , नास्ति योग समं बलं ‘।
सांख्य के समान ज्ञान नहीं, योग के समान बल नहीं।
योग शास्त्र को अति प्राचीन काल में ‘हिरण्य गर्भा शास्त्र’ कहा जाता था।
भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहाः
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानह मवयं विवास्मानमनवे प्राह, मनुरिक्क्ष्वाकावे ब्रबीत। एवं परंपरा प्राप्त मीमं राजर्षयो विदुः , स काल नेह महता योगो नष्टः परन्तप।
हे अर्जुन! आदि में इस योग को विवस्वान सूर्य से कहा, सूर्य ने इसे मनु को कहा। मनु ने इच्छ्वाकु को कहा और इस प्रकार परम्परा से प्राप्त योग को राजर्षि ने जाना, जो कि बहुत काल तक नष्ट हो गया था, उसे मैं तुझे कह रहा हूँ।
ऐसी दिव्य शिष्य परंपरा से योग शास्त्र सूर्य वंश में अगणित वर्षों तक चला। त्रेता युग के अंत में महर्षि बाल्मीकि ने भगवान् राम को योग शास्त्र की शिक्षा दी। महर्षि बाल्मीकि ने भी योग साधना के ग्रन्थ ‘योग वशिष्ठ और इतिहास’ की रचना की।
महर्षि पातंजलि को शेषावतार माना गया जिन्होंने इस हिरण्यगर्भ शास्त्र को क्रमबद्ध कर ‘योग सूत्र’ की रचना की।
महर्षि पातंजलि शुद्ध, बुद्ध और प्रबुद्ध मानसिकता के प्रखर दार्शनिक है। सच तो यह है कि वे स्वयं में ही एक अद्भुत घटना है। ‘पातंजलि योग दर्शन’ दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक आधार पर योग के शाश्वत सिद्धांतों पर लिखा गया युगांतरकारी यौगिक दर्शन ग्रन्थ है। यह सूक्तात्मक भाषा में नियोजित ग्रन्थ है। ‘योग दर्शन’ में वे काव्य सौंदर्य की भाषा में बात नहीं करते वरन गणितीय और वैज्ञानिक भाषा में बात करते हैं। वे सत्य परक , शाश्वत, सटीक और अकाट्य सूत्रों के आधार हैं।
विज्ञान का अर्थ है – ज्ञान से विदित हुआ तथ्य। परीक्षण की कसौटी पर प्रमाणित और सिद्ध तथ्य। जैसे पानी का अनुपात है कि दो भाग ओक्सीज़न और एक भाग हाइद्रोज़ंन से ही पानी बनता है। प्राणायाम से मेरुदंड के सोये बिंदु उत्तेजित होते हैं। यह वैज्ञानिक सिद्ध तथ्य है। यह सुप्त बिन्दुओं को जाग्रत करने का विज्ञान है।
दार्शनिक का अर्थ है - यह चित्त वृत्तियों का दर्शन है, अंतस का दर्शन, अंतर्मन के निर्मलीकरण का दर्शन है। अन्दर की शांति से ही बाहर की तृप्ति मिलती है। तन का भार, मन का भार, चेतना का कोई भार नहीं होता है। अतः जो सात्विक शांत और प्रसन्न हैं, प्रफुल्लित हैं वे पहले से ही निर्भार हैं। सही अर्थों में तत्वगत होते ही जीव इस जगत की वस्तु नहीं रह पाती, पहले वह तत्वगत और फिर तथागत हो जाता है क्योंकि मन मस्तिष्क जब शांत होगा तब ही चेतना प्रखर होगी।
आध्यात्मिक का अर्थ है – इस भौतिक शरीर के भीतर एक अभौतिक तत्व विद्यमान है, वही आत्मरूप आत्मा है। आध्यात्मिक अर्थ में योग अंतस की यात्रा है, इसी आत्म स्वरुप को जानने की यौगिक प्रक्रिया है। मानव देह, मन और मस्तिष्क में कितने ही बिंदु ऐसे हैं, जहाँ तक संचेतना के स्पंदन पहुँच ही नहीं पाते क्योंकि भौतिकता ने वृत्तियों को बाहर ही रोक रखा है। वस्तुओं के आकर्षण, संवेग और आसक्ति से अंतस की प्रगति रुकी हुई है। जब सांसारिक संबंधों से मन उचाट होता है तब आध्यात्मिकता का उदय होता है। अपेक्षाओं और उपेक्षाओं से टूटे मन ही अवसाद के कारण होते है, तब ही आध्यात्मिकता और दिव्यता को उन्मुख होता है और दिव्य प्रसाद मिलता है। राग के बाद का वीतराग स्थायी होता है।
सूत्र का अर्थ है – धागा या आधार या मार्ग निर्देशन या मूल को जान पाने की विधि। ये सूत्रात्मक संकेत , गणतीय भाषा में अध्यात्म के पथ पर क्रमशः चलाते हुए ब्रह्म-रंद्र तक ले जाते हैं। ये छोटे और सारगर्भित हैं और सूक्त अथवा गणित में कोई स्पंदन बिंदु नहीं होते। संवेदना और संवेग विहीन सूक्त सीधे ज्ञान के प्रहार से सोई चेतना को जगाते है। तथ्य को हथेली पर रखते हैं। कोई मनुहार या भावनात्मक बिंदु पर नहीं रुकते।
निद्रा वैसे भी बहुत प्यारी होती है, चाहें वह मोह निद्रा हो या योग निद्रा। नींद से जो भी जगाता है वह अच्छा नहीं लगता। मोह निद्रा अंतस की सुषुप्ति और जगत के प्रति जागरण है। योग निद्रा जगत के प्रति सुषुप्ति और अंतस का जागरण है। सबसे अधिक भावनाएं ही मानव को पीड़ा देती हैं तब ही योग अनुशासन के बाद दूसरा मन्त्र है।
योगश्रिचित्त वृत्ति निरोधः
चित्त वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही योग है
समत्वं योग उच्यते
इस क्षण भंगुर संसार से वियोग करते ही योग हो जाता है.
संयोग वियोगं योग संग्यीतम
गीता में ‘योग’ शब्द ६४ बार आया है जब कि ‘सुलभ’ शब्द केवल एक बार आया है।
योगी राज श्री कृष्ण ने कहा कि नित्य युक्त योगी को ही मैं सुलभ हूँ , नित्य से ‘योग’ होना ही नित्य योग है।