पात्र-अपात्र / जगदीश कश्यप
उस दिन वह एक असफल इंटरव्यू देकर रात के वक्त लौटा तो पाया कि बड़ा भाई मां के आगे नशे में बक रहा था —‘और पढ़ाओ, और कराओ बीए. बीए तो साले हमारी प्रेस में चपरासी हैं. मेरे लिए चाय लाते हैं, बेचारे.’
उसके ठीक बाद पिता की बहकी हुई आवाज सुनाई दी —‘उसने सोलहवीं करके कौन-सा तीर मार दिया है. कौन-सा घर का नाम ऊंचा किया है —ऊपर से साला ऐंठता है कि हम क्यों पीते हैं. अरे, तेरे पैसों की तो नहीं पीते. वो तो भगवान ने गंजे को नाखून नहीं दिए वरना....’
वह सिर से पांव तक हिल गया. जी में आया कि जोर से बंद किबाड़ों को लात मारकर तोड़ दे और दोनों की जी-भर पिटाई करे और कहे —‘जलीलो, ये बातें मूत पीकर करते हो, सामने क्या हो जाता है.’
पर वह चुपचाप दरवाजा ठकठकाता है. मां दरवाजा खोलती है. वह योग्यता प्रमाणपत्रों वाला लिफाफा पीठ पीछे किए धीरे-से घर के अंदर दाखिल होता है. पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया है. बड़ा भाई भौंचक्का बना मां को देख रहा था. जबकि छोटा भाई अंगीठी में मूंगफली के छिलके डालकर धुंआ पैदा कर रहा था. ख्वामखाह ही. इसका मतलब उसने भी चढ़ा रखी थी.
अचानक उसके दिल में आया कि वह दहाड़ मारकर बड़े भाई के आगे गिर पड़े और डकार मारकर कहे —‘भइया मुझे भी कल से अपने अपनी प्रेस में ले चलो काम सिखाने. तुम खूब पियो—मुझे कुछ गिला नहीं. तुम शराब पीने के पात्र हो, क्येंकि तुम्हारे हाथ में हुनर है.’
पर वह चुपचाप अंदर वाले कमरे में जाकर धम्म से गिर पड़ता है. डिग्रियों वाला लिफाफा अब उसके पैरों में पायताना दबकर रह गया था.