पानी और पुल / महीप सिंह
गाड़ी ने लाहौर का स्टेशन छोड़ा तो एकबारगी मेरा मन काँप उठा। अब हम लोग उस ओर जा रहे थे जहाँ चौदह साल पहले आग लगी थी। जिसमें लाखों जल गये थे, और लाखों पर जलने के निशान आज तक बने हुए थे। मुझे लगा हमारी गाड़ी किसी गहरी, लम्बी अन्धकारमय गुफा में घुस रही है। और हम अपना सब-कुछ इस अन्धकार को सौंप दे रहे हैं।
हम सब लगभग तीन सौ यात्री थे। स्त्रियों और बच्चों की भी संख्या काफी थी। लाहौर में हमने सभी गुरुद्वारों के दर्शन किये। वहाँ हमें जैसा स्वागत मिला,उससे आगे अब पंजासाहिब की यात्रा में किसी प्रकार का अनिष्ट घट सकता है, ऐसी सम्भावना तो नहीं थी, परन्तु मनुष्य के अन्दर का पशु कब जागकर सभी सम्भावनाओं को डकार जाएगा, कौन जानता है?
यही सब सोचते-सोचते मैंने मां की ओर देखा, हथेली पर मुंह टिकाये, कोहनी को खिड़की का सहारा दिये वे निरन्तर बाहर की ओर देख रही थीं। खेत कट चुके थे। दूर-दूर तक सपाट धरती दिखाई दे रही थी। मुझे लगा, मां की आँखों में से उतरकर यह सपाटता मन में पूरी तरह छा गयी है। फिर मैंने अपने डिब्बे के दूसरे यात्रियों की तरफ देखा। उन पर भी गहरी उदासी छा गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक ऐसी उदासी सब पर क्यों छा गयी है?
“तुम्हें तो रास्ता अच्छी तरह याद होगा।” मैंने मां का ध्यान तोड़ते हुए पूछा, “सैकड़ों बार आना-जाना हुआ होगा तुम्हारा?”
मां मेरी ओर देखकर मुसकरायी। वह मुस्कराहट सब-कुछ खोकर पायी हुई मुसकराहट थी। बोलीं, “मुझे तो रास्ते का एक-एक स्टेशन तक याद है। पर आज यह इलाका कितना बेगाना-बेगाना-सा लग रहा है। आज चौदह साल बाद इधर से जा रही हूं। पहले भी ऐसी ही जाती थी। लाहौर पार करते ही अजीब-सी उमंग नस-नस में दौड़ी जाती थी।” सराई : हमारा गाँवॅ : जैसे-जैसे निकट आता जाता, वहाँ की एक-एक शक्ल मेरे सामने दौड़ जाती, स्टेशन पर कितने लोग आये होते...
मां की आँखों में चौदह साल पहले की याद तरल हो आयी थी। पिताजी ने अपना रोजगार उत्तर प्रदेश में ही जमा लिया था। हम सब भाई-बहनों का जन्म पंजाब के बाहर ही हुआ था। मुझे याद है, पिताजी तो शायद साल में एकाध बार ही पंजाब आते हों, पर मां के दो-तीन चक्कर जरूर लग जाते थे। हममें जो छोटा होता वह मां के साथ जाता, और जबसे मुझे याद है मेरी छोटी बहन ही उनके साथ जाएा करती थी। उन दिनों, पंजाब का विभाजन घोषित हो चुका था, पंजाब की पाँचों नदियों का जल उन्माद की तीखी शराब बन चुका था, मां ने फिर पंजाब जाने का फैसला किया था। सभी ने ऐसे विरोध किया जैसे वे जलती आग में कूदने जा रही हों। और वह सचमुच आग में कूदने जैसा ही तो था। परन्तु पिताजी सहित हम सब जानते थे कि मां को अपने निश्चय से डिगाना कोई आसान बात नहीं। उन्होंने सबकी बातों को हँसकर टाल दिया। बीस-बाइस दिनों में वह वापस आ गयीं। गाँव के घर का बहुत-सा सामान वे बुक करा आयी थीं। अपने साथ वे अपना पुराना चरखा और दही मथने की मथनी ले आयी थीं।
फिर सारे पंजाब में आग लग गयी। घर-के-घर, गाँव-के-गाँव और शहर-के-शहर उस आग में जलने लगा। आग रुकी तो लगा इधर तक सपाट फैली हुई जमीन अमृतसर और लाहौर के बीच से फट गयी है और उस पार का फटा हुआ हिस्सा बीच में गहरी खाई छोड़कर न जाने कितना उधर खिसक गया है। हम सब भूल-से गये कि उस गहरी खाई के उस पार हमारा अपना गाँव था, पक्की सड़क के किनारे पीछे की ओर एक नहर थी, और पास की झेलम नदी, अल्हड़ लड़की की तरह उछलती-कूदती बहती थी !
आज मैं मां के साथ खाई पर राजकीय औपचारिकता के बांधे हुए पुल से गुजरकर उसी ओर जा रहा था जो कल कितना अपना था, आज कितना पराया है!
मैं एक पुस्तक के पन्ने उलट रहा था, मां ने पूछा, “यह गाड़ी सराई स्टेशन पर रुकेगी?”
मैंने कुछ सोचा फिर कहा, 'हां रुकेगी शायद। पर पहुँचेगी रात के एक-दो बजे। हम लोग गहरी नींद में सो रहे होंगे। स्टेशन कब आकर निकल जाएगा, पता भी नहीं लगेगा। और अब अपना रखा ही क्या है वहाँ?'
मां के चेहरे पर खिसियाहट-सी दौड़ गयी। बोलीं, “तुम्हारे लिए पहले भी वहाँ क्या रखा था?”
मेरी बात से मां को चोट पहुँची थी। बिना और कुछ बोले मैं सिर झुकाकर अपनी पुस्तक के पन्नों में उलझ गया।
धीरे-धीरे अँधेरा छाने लगा। मां ने पोटली खोलकर खाने के लिए कुछ निकाला। मेरे एक दूर के मामाजी हमारे साथ थे। तीनों ने मिलकर कुछ खाया और सोने की तैयारी करने लगे। मामाजी तो दस मिनट में ही खर्राटे भरने लगे। मैं भी एक ओर लुढ़क गया। मां वैसी ही बैठी रहीं।
कुछ देर बाद एकाएक मेरी आँख खुली, देखा मां, वैसे ही बाहर फैले हुए अँधेरे की ओर निष्पलक देखती हुई बैठी हैं। घड़ी देखी, साढ़े दस बज गये थे। मैंने कहा, “मां तुम भी लेट जाओ न।”
“अच्छा!” उनके मुंह से निकला और वे अधलेटी-सी हो गयी।
उस अधनींदी अवस्था में मैंने कोई स्वप्न देखा, ऐसा तो मुझे याद नहीं आता, पर उस नींद में भी कुछ घबराहट अवश्य होती रही थी। शायद किसी अस्पष्ट स्वप्न की ही घबराहट हो। कोई लाल-सी तरल चीज मुझे अपने चारों ओर फिरती अनुभव होती थी और मुझे लग रहा था उस लाल-लाल गाढ़ी-सी चीज पर मेरे पैर फच-फच पड़ रहे हैं। फिर एकाएक मैं हड़बड़ा कर उठा। मां मुझे झकझोर रही थीं और अजीब-सी घबराहट और उत्तेजना से उनके हाथ काँप रहे थे।
“क्या है?”
“देखो यह बाहर शोर कैसा है?”
मैंने बाहर झाँककर देखा। हमारी गाड़ी छोटे-से स्टेशन पर खड़ी थी। प्लेट-फॉर्म पर लैम्प पोस्टों की हलकी-हलकी रोशनी थी और अजीब-सा कोलाहल वहाँ छाया हुआ था। एकबारगी मेरा रोयां-रोयां काँप उठा। चौदह साल पहले की अनेक सुनी-सुनायी घटनाएं बिजली बनकर कौंध गयी, जब दंगाइयों ने कितनी गाडियों को जहां-तहां रोककर लोगों को गाजर-मूली की तरह काट डाला था। मामाजी जागकर मेरा कन्धा हिला रहे थे।
“अरे क्या बात है?”
तभी मेरे कानों में आवांज पड़ी। उस भीड़ में से कोई चिल्ला रहा था-”अरे इस गाड़ी में कोई सराई का है?”
“यह कौन-सा स्टेशन है?” मैंने मां से पूछा।
मां ने कहा, “सराई-अपने गाँव का स्टेशन।”
बाहर से फिर आवांज आयी, 'अरे इस गाड़ी में कोई सराई का है?'
मैंने मां की ओर देखा। उनके चेहरे पर पूर्ण आश्वस्तता थी।
“पूछो इनसे, क्या बात है?”
मैंने खिड़की से गरदन निकाली। बहुत-से लोग घूमते हुए पुकार रहे थे, “अरे कोई सराई का है?”
पास से जाते हुए एक आदमी को बुलाकर मैंने पूछा, “क्या बात है जी?”
“आपमें कोई इस गाँव का है?”
“हां, हम हैं इस गाँव के...” मां आगे आकर बोली।
“तुम सराई की हो?” उस आदमी ने जोर देकर पूछा।
“हां, जी।”
मां के इतना कहते ही स्टेशन पर चारों ओर शोर मच गया। इधर-उधर घूमते हुए बहुत-से आदमी हमारे डिब्बे के सामने जमा हो गये। फिर कई आवांजें एक-साथ आयीं।
“हम सराई के ही हैं...” मां ने जोर देकर कहा, “इसी गांव के?”
उपस्थित जनसमुदाय में एक कोलाहल-सा हुआ। किसी की आवांज आयी, “तुम किसके घर से हो?”
मां ने मेरी ओर देखा। मैंने कहा, “मेरे पिताजी का नाम सरदार मूलासिंह है। ये मेरी मां हैं!”
“तुम मूलासिंह के बेटे हो?” कई लोग एक-साथ चिल्लाए, “तुम मूलासिंह की बीवी हो...रवेलसिंह की भाभी? कैसे हैं सब लोग...?” कहते-कहते कितने ही हाथ हमारी ओर बढ़ने लगे। लोग हमारे सम्बन्धियों में सबकी कुशल-क्षेम पूछते हुए अपने हाथ की पोटलियाँ मुझे और मां को थमाते जा रहे थे। मैं और मां गुमसुम से उन्हें ले-लेकर अपनी सीट पर रखते जा रहे थे। देखते-देखते हमारी बर्थ कपडों की छोटी-छोटी पोटलियों से भर गयी।
मैं हक्का-बक्का-सा यह देख रहा था। मां अपने सिर का कपड़ा बार-बार संभालती हुई हाथ जोड़ रही थीं। खुशी से उनके होंठ फड़फड़ा रहे थे। मुंह से निकल कुछ भी न रहा था और लगता था आँखें अभी चू पड़ेंगी।
वहीं खड़े गार्ड ने हरी लालटेन ऊपर उठायी और कोट की जेब से सीटी निकाली। मैंने देखा तीन-चार आदमियों ने उसे पकड़-सा लिया।
“अरे बाबू, दो-चार मिनट और खड़ी रहने दे गाड़ी को। देखता नहीं, ये बीवी इसी गाँव की हैं...!” और एक ने उसका लालटेन वाला हाथ पकड़कर नीचे कर दिया।
“भरजाई, सरदारजी कैसे हैं? उन्हें क्यों नहीं लायी, पंजे साहब के दरशन कराने?” एक बूढ़ा-सा मुसलमान पूछ रहा था।
मां ने दोनों हाथों से सिर का कपड़ा और आगे कर लिया, उनके मुंह से धीरे से निकला, “सरदारजी नहीं रहे...!”
“क्या...? मूलासिंह गुजर गये? क्या हुआ था उन्हें?”
मां चुप रहीं, मैंने जवाब दिया, “उनसे पेट में रसोली हो गयी थी। एक दिन वह फूट गयी और दूसरे दिन पूरे हो गये।”
“ओह, बड़े ही नेक बन्दे थे, खुदा उन्हें अपनी दरगाह में जगह दे।” उनमें से एक ने अंफसोस प्रकट करते हुए कहा। कुछ क्षण के लिए सबमें खामोशी छा गयी।
“भरजाई, तेरे बच्चे कैसे हैं?”
“वाहे गुरु जी की किरपा है, सब अच्छे हैं।” मां ने धीरे से कहा।
“अल्लाह, उनकी उम्र दराज करे।” कई आवांज एक-साथ आयी।
“भरजाई तुम अपने बच्चों को लेकर यहाँ आ जाओ।” किसी एक ने कहा, और कितनों ने दुहराया, “भरजाई, तुम लोग वापस आ जाओ...वापस आ जाओ।” प्लेटफॉर्म पर खड़ी कितनी आवांजें कह रही थीं :
“वापस आ जाओ!”
“वापस आ जाओ!”
मैंने सुना, मेरे पीछे खड़े मामाजी कुढ़ते हुए कह रहे थे, “हूं...बदमाश कहीं के! पहले तो मार-मारकर यहाँ से निकाल दिया, अब कहते हैं वापस आ जाओ। लुच्चे!”
पर प्लेटफॉर्म पर खड़े लोगों ने उनकी बात नहीं सुनी थी। वे कहे जा रहे थे-
“भरजाई, तुम अपने बच्चों को लेकर वापस आ जाओ! बोलो भरजाई, कब आओगी। अपना गाँव तो तुम्हें याद आता है? भरजाई वापस आ जाओ...”
मां के मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था। वे सिर का कपड़ा संभालते हुए हाथ जोड़े जा रही थीं।
दूर खड़ा गार्ड हरी लालटेन दिखाता हुआ सीटी बजा रहा था।
इंजन ने सीटी दी। गाड़ी फकफक करती हुई चल दी। भीड़-की-भीड़ हमारे डिब्बे के साथ चल दी।
“अच्छा, भरजाई सलाम...अच्छा बेटे सलाम...रवेलसिंह को मेरा सलाम देना...सबको हमारा सलाम देना...”
मां के हाथ जुड़े हुए थे और मुंह से गद्गद स्वर में धीरे-धीरे कुछ निकल रहा था। धीरे-धीरे गाड़ी कुछ तेज हो गयी। हम दोनों खिड़की से सिर निकाले हाथ जोड़े रहे। भीड़ के लोग वहीं खड़े हाथ ऊपर उठाए चिल्लाते रहे।
गाड़ी स्टेशन के बाहर निकल आयी तो मैंने बर्थ से पोटलियाँ हटाकर एक ओर कीं और मां से कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा।
मां की आँखों से आँसुओं की अविरल धार बह रही थी, बहे जा रही थी। वे बार-बार दुपट्टे से आँखें पोंछे जा रही थीं, पर टूटे हुए बांध का पानी बहता ही जा रहा था।
हमारी गाड़ी जेहलम के पुल पर आ गयी थी। रात्रि की उस नीरवता में खडर...खडर....खडर...की आवांज आ रही थी। मैं खिड़की से झांककर जेहलम का पुल देखने लगा। मैंने सुना था जेहलम का पुल बहुत मंजबूत है। पत्थर और लोहे के बने उस मंजबूत पुल को अँधेरे में मैं देख रहा था। मेरी दृष्टि और नीचे की ओर जा रही थी, वहाँ घुप्प अँधेरा था, पर मैं जानता था वहाँ पानी है, जेहलम नदी का कल-कल करता हुआ स्वच्छ और निर्मल पानी, जो उस पत्थर और लोहे के बने हुए पुल के नीचे से बह रहा था।