पानी की वह गुट्ट-गुट्ट / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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बात 1954-55 की है जब हमारा परिवार मध्य प्रदेश के सागर जिले के रहली नामक स्थान में रहता था। रहली तहसील मुख्यालय था। बड़े भाई साहब शिक्षा विभाग में थे। उस समय में चौथी कक्षा पास कर पांचवीं में पहुँचा था। मेरा सौभाग्य यह था कि तीन रूपये महीने के शंकरराव मलकापुरकर के जिस मकान में हम लोग किराये से रहते थे उस मकान में पांच साल पहले अमर शहीद चंद्र शेखर आज़ाद की माता श्री कुछ समय के लिए रहीं थीं। शंकरराव के भाई सदाशिव राव, चंद्र शेखर आज़ाद के अनन्य साथी थे। आज़ाद तो बहुत पहले ही देश के लिए कुर्बान हो चुके थे। आज़ादी के बाद जब क्रांतिकारियों के परिवार जनों की खोज बीन हुई तो सदाशिव जी उनकी माँ जगरानी देवी को तलाश कर जो कि भावरा म प्र में भिखारियों कि-सी ज़िन्दगी जी रहीं थीं, रहली लेकर आये थे। कुछ महीने वहाँ रखने के बाद वे उन्हें झांसी ले गए थे जहाँ 22 मार्च 1951 में उन्होंनें देह त्याग किया।

उन दिनों सड़कें तो थी ही नहीं। मुख्य मार्ग तो मुरम गिट्टी का था परन्तु घर को जोड़ने वाली गली मिटटी धूल से पटी रहती थी। बरसात में तो मजे ही मजे थे। कीचड़ इतना कि पैर घुटनों तक धसता चला जाये। बड़े-बड़े बोल्डर डाल दिए जाते थे और हम लोग कूदते हुए सर्कस-सा करते हुए सड़क पार करते थे जब पानी मूसलाधर और कई दिनों तक लगातार गिरता था तो कीचड़ तो दलदल-सा बन जाता था। बोल्डर भी कीचड़ में अंदर चले जाते। फिर तो पैर अपना करिश्मा दिखाते। एक पैर आगे बढ़ता, कीचड़ में धसता और जब पंजा ज़मीन तलाश लेता तो मालुम पड़ता कि पैर घुटनों के ऊपर तक कीचड़ में धंसा हैं। फिर पीछे वाला पैर आगे आता, कीचड़ में धँसता, पंजा ज़मीन तलाशता। इसी तरह की बाजीगरी हम हर बरसात में करते थे।

गर्मी में आँगन में सब लोग खटिया बिछाकर सोते थे। बिजली तो उन दिनों थी ही नहीं। अंधेरे में नीले आकाश में असंख्य तारे मन को आनंदित करते रहते थे। तारे तो रोज़ बराती बने रहते। कभी शुक्र ग्रह दूल्हा बना नज़र आता तो कभी मंगल ग्रह। जिस दिन चाँद दूल्हा बना होता उस दिन तो लगता जैसे हम किसी परी लोक में हों। मकान मालिक शंकर राव जी ने हमें सप्त ऋषि, छोटा, सप्त ऋषि, ध्रुव तारा और मंगल, गुरु, शनि इत्यादि सभी ग्रहों के बारे में बता दिया था। सदाशिवराव जी जिन्हें हम काका कहते थे गर्मियों में झांसी से रहली आ जाते थे। हम लोगों को चंद्र शेखर आजाद के किस्से सुनाया करते थे। काका तो आज़ाद के साथ कंधे से कन्धा मिला जंगल-जंगल घुमे थे।

रहली की बीच बस्ती में से नदी बहती थी, सुनार नदी। अवकाश के दिनों में कभी-कभी और गर्मियों कि छुट्टी में लगभग रोज़ ही हम नदी में नहाने जाते थे। मेरे घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर किले घाट के नाम से मशहूर घाट था। मुग़ल सूबेदारों के द्वारा बनवाये किले से बिलकुल लगा हुआ घाट। कल-कल, छल-छल करता हुआ नीला-नीला पानी। नदी में उतरते ही आठ दस चुल्लू पानी तो एक ही बार में पी जाते थे। गर्मियों में मई के पहले पखवाड़े तक तो किले घाट में बहुत पानी रहता था किन्तु फिर पानी कमने लगता। तब हम थोड़े और ऊपर कि तरफ़ मुंडा घाट पर नहाने जाते थे। यहाँ तो अथाह पानी रहता था। लोग कहते थे कि यहाँ हाथी डुब्बन पानी है। मैंने तैरना सीख लिया था। मुंडा घाट में पानी तो गहरा था परंतु पाट सवा सौ, डेढ़ सौ फुट से ज़्यादा चौड़ा नहीं था। मैं अपने मित्रो के साथ आराम से नदी पार कर लेता था। कभी-कभी तो दो बार नदी पार हो जाती।

लोग कहते थे कि किसी जमानें में मुंडा घाट में मगर आता था किन्तु कई सालों से नहीं दिखाई दिया था।

एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ नदी में तैर रहा था उस पार जाने कि होड़ थी। मैं बेफिक्र तैरता जा रहा था कि अचानक ऐसा लगा कि किसी ने मुझे पेट पर नीचे से धक्का मारकर उछाल दिया हो। मैं घबरा गया और पानी में गिरकर गुट्ट-गुट्ट करने लगा। मुझे समझ में ही नहीं आया कि क्या हुआ। एक क्षण को तो लगा कि मुझे मगर ने पकड़कर उछाल दिया है और अब आक्रमण करके मुझे खा जाएगा। नाक में पानी भरने लगा था। मैं ऊपर आने के लिये हाथ पैर मार रहा था कि अचानक किन्हीं दो हाथों ने मुझे पकड़कर खींच लिया और पानी के ऊपर कर दिया। मैं तो बुरी तरह घबराया और डरा हुआ था थर-थर काँप रहा था। मुंह से बोल ही नहीं फूट रहे थे। "अरे मैं हूँ मुन्ना, डरो नहीं कुछ नहीं हुआ" \ मैंनें मिचमिचाते हुए आँखें खोलीं। अरे ये तो तिवारी कक्का थे। मेरी कुछ जान में जान आई। फिर भी मुंह से बोल नहीं पा रहा था। कक्का मुझे पानी से खींचकर किनारे पर लाये पीठ थपथपाई और वहीं रेत में बिठाल दिया।

"क ...क्या हुआ कक्का क्या मग ...मगर ...था?" मैनें हिचकी लेते हुए पूछा।

"अरे नहीं रे, मैं था, मगर नहीं था" कक्का ठहाका मारकर हंस पड़े।

"कक्का आप! यहाँ कैसे"

"मुन्ना भैया मैं डुबकी साधकर पानी में बैठा था कि तैरते हुए तुम निकल पड़े। जब तुम मेरे ठीक ऊपर से निकल रहे थे मैं उठ खड़ा हुआ और तुम मेरे सिर के ऊपर से पेट के बल टकराकर पानी में गिर पड़े। बस इतनी-सी बात थी"। मेरी जान में जान आ चुकी थी। फिर भी अनजान-सा भय डराए जा रहा था।

"तो क्या वह मगर नहीं था?"

"इस नदी में मगर नहीं है न" क्यों डर रहे हो।

कक्का मुझे मेरे घर ले आये। चूंकि वह हम सबके परिचित थे उनहोंने बड़े चटकारे ले लेकर घर के लोगों को वाक्य सुनाया तो सबने ख़ूब मजे लिए। हालांकि मुझे चेतावनी दी गई कि अकेले नदी पर नहाने न जाएँ।

1956 में हमने रहली छोड़ दिया था। उसके बाद 2011 में वहाँ जाने का सौभाग्य मिला। वह घर क्रांतिकारियों का स्मारक बन चूका है।

उस जगह को नमन किया जहाँ हम रहते थे। उस जगह की मिटटी चूमी

जहाँ हम बैठकर पढ़ते थे। आखिर आज़ाद की माता श्री के पावन पैर वहाँ पड़े थे।