पापा एक पिस्तौल ला दो / सुरेश सौरभ
पापा घर से बाज़ार जा रहे थे। किसी ने कहा, मेरे लिए यह लाना। किसी ने कहा, मेरे लिए वह लाना। सबने कुछ न कुछ फरमाइश की, पर निम्मी दूर ख़ामोश खड़ी थी। पापा ने जब ज़ोर देकर निम्मी से कहा, ' बताओ बिटिया तुम्हारे लिए क्या लाना है। तब निम्मी कातर स्वर बोली-पापा मेरे लिए एक पिस्तौल ले आना। पापा ने उसे हैरत से देखते हुए पूछा-वह क्यों बेटी?
निम्मी-जब भी घर से बाहर मैं निकलती हूँ, तो कई मांसखोर गिद्ध मेरी ओर घूर-घूर कर देखते रहते हैं। इससे पहले वे हम पर हमला करें, उससे पहले मैं उन्हें अपनी पिस्तौल से उड़ा देना चाहती हूँ।
पापा ने विस्मय से कहा-बेटी ऐसे बुरे ख़्याल तुम्हें क्यों आ रहें हैं ज़रा बताओ?
तब निम्मी पापा के गले से लग कर करूण स्वर में बोली-महिलाओं की आज जो दुर्दशा हो रही है उसे देख-सुन कर मेरी आत्मा जार-जार रो रही है। मैं मनीषा या निर्भया नहीं बनना चाहती। मुझे बचा लो पापा... मुझे बचा लो पापा...कहते-कहते निम्मी फफक पड़ी।
पापा ने उसे दिलासा देते हुए रूंधे गले से कहा-तू चिंता न कर तेरे लिए ऐसा हथियार लाऊंगा, जिससे तू एक नहीं अनेक दुष्कर्मियों का सत्यानाश कर सकेगी।
काश ऐसा हो पाता, काश कोई ऐसा हथियार होता, जो दुनिया भर के कुकर्मियों का सफाया कर देता, लेकिन हर मां-बाप अपनी बेटी को ऐसी झूठी दिलासा कब तक देता रहेगा? कब तक मनीषा निर्भया लूट कर मारी जाती रहेंगी? यह सवाल शायद हमेशा सवाल ही बना रहे?