पापा की सज़ा (पृष्ठ-1) / तेजेन्द्र शर्मा

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पापा ने ऐसा क्यों किया होगा ?

उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैंतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था - मेरे पापा ने मेरी मां की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा? पापा के छोटे भाई जॉन अंकल को भी पेट में कैंसर हुआ था। बस दो महीने में ही चल बसे थे। जॉन अंकल पांच फ़ुट ग्यारह इंच लम्बे थे। लेकिन मृत्यु के समय लगता था जैसे साढ़े तीन फ़ुट के रह गये हों। कीमोथिरेपी के कारण बाल उड़ गये थे, कुछ खा ना पाने के कारण बहुत कमज़ोर हो गये थे। बस एक कंकाल सा दिखने लगे थे। उनकी दर्दनाक स्थिति ने पापा को झकझोर दिया था। रात रात भर सो नहीं पाते थे।

पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहां के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी मां हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।

ममी अपनी रुलाई रोक नहीं पाती थीं। बस मदर मेरी की फ़ोटो के सामने जा कर रो देतीं। वो चर्च जा कर पादरी से भी मिल कर आईं। उसे लगता था कि शायद पापा पर किसी प्रेतात्मा का साया है। लेकिन मुझे कभी कभी महसूस होता कि शायद पापा किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गये हैं। एक बार मैने ममी से कहा भी, लेकिन उसने ऐसा मुंह बनाया कि मैं चुप हो कर रह गई। जिस ज़माने की ममी हैं, उस ज़माने के लोग मानसिक बीमारियों को सीधे पागलपन से जोड़ देते हैं। और किसी अपने को पागल क़रार करना उनके बूते से बाहर की बात होती है।

पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहां के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !' ममी दहश्त से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं मां पर हाथ ना उठा दें, लेकिन मां इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। मां का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी। पापा बड़बड़ाते रहते। पेट दर्द ने जैसे उनके जीवन में एक तूफ़ान सा ला दिया था। एक दिन ममी के पास आकर बोले, 'मार्गरेट, अगर मुझे कुछ हो गया, तुम मेरे बिना कैसे ज़िन्दा रह पाओगी ? तुम्हें तो बैंक के अकाउण्ट, बिजली का बिल, काउंसिल टैक्स कुछ भी करना नहीं आता है। मुझे मरना नहीं चाहिये, तुम तो ज़िन्दा ही मर जाओगी।' बेचारी ममी, रोज़ाना मर मर कर जी रही थी।

हमारा घर है भी थोड़ी वीरान सी जगह पर। घर से करीबी रेल्वे स्टेशन कार्पेन्डर्स पार्क तक की दूरी भी कार से सात आठ मिनट में पूरी होती है। ऑक्सी विलेज - हां प्यारा सा हरियाला गांव। हरयाली की भीनी भीनी ख़ुशबु नथुनों को थपथपाती रहती है। पापा कभी कभी अकेले बैठे उकता जाते तो जा कर रेल्वे स्टेशन पर बैठ जाते। एक ज़माने में तो एक ही रंग की ब्रिटिश रेल की गाड़ियां दिखाई दिया करती थीं। लेकिन जब से रेलों ने रंग बदला है, तब से रंगबिरंगी रेलें गुज़रने लगी हैं। वर्जिन ट्रेन्स की लाल और काली और कॉनेक्स कंपनी की पीली तेज़ रफ्तार गाड़ियां, जो धड़धड़ करती वहां से निकल जाया करतीं। और फिर सिल्वर लिंक की ठुकठुक करती हरी और बैंगनी रेलगाड़ी जो कार्पेन्डर्स पार्क पर रुकती है। वाटफ़र्ड से लंदन यूस्टन तक की गाड़ियां - स्कूल जाते बच्चे, काम पर जाते रंग रंगीले लोग।

रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।

पापा पर जॉन अंकल का भूत छाया जा रहा था। जॉन अंकल के जीवन के अंतिम छ: महीने जैसे पापा के दिल और दिमाग क़ो मथे जा रहे थे। मुझे और मां को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। मैं सोचती हूं अगर मेरे पति ने मेरे साथ ऐसा सुलूक किया होता तो मैं तो उसको कबकी छोड़ छाड क़र अलग हो गई होती। किन्तु मेरे ममी और पापा मुझ जैसे नहीं हैं न। सैंतीस वर्ष की हंसी, ख़ुशी और गम - सभी को साथ साथ सहा था उन्होंने। मैं उनके सम्बन्धों के बारे में सोच सोच कर परेशान होती रहती हूं।

परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।

'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'

'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊंगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'

मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी मांगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।

मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला। सुबह ममी का फ़ोन था। पापा बैंक में जा कर बैंक वालों से झगड़ा कर बैठे थे। अपने अकाउण्ट को लेकर परेशान थे। बात बढ़ती गई और गाली गलौज तक पहुंच गई। बैंक वाले पापा ममी को जानते थे। पिछले तीस वर्षों से वहीं तो अकाउण्ट था। उन्होंने पुलिस की जगह ममी को फ़ोन किया। ममी को पता ही नहीं था कि पापा बैंक गये हैं। वो बेचारी घर में परेशान थी कि आख़िर चले कहां गये। वो सोच ही रही थी कि मुझे फ़ोन करके पूछे। शर्मिंदा होती ममी बैंक जा कर पापा को वापिस घर ले कर आ गई। पापा बड़बड़ाए जा रहे थे, 'मेरे बाद तुम अपने अकाउण्ट का पूरा ख्याल रखना। ये लोग किसी के सगे नहीं होते। तुम्हें लूट कर खा जायेंगे।'

बीमारी का ख़ौफ़ पापा को खाए जा रहा था और ममी उस ख़ौफ़ के साये तले पिसती जा रही थी। मैं कभी कभी हैरान भी होती हूं कि ममी पापा से इतना डरती क्यों हैं। घर में शुरू से ही पापा का रोबदाब देखा है। पापा स्टीम इंजिन पर सैकण्ड मैन थे। हर वक्त बुड़बुड़ाते रहते थे कि उनको पूरा ड्राइवर नहीं बना रहे। उनकी तरक्की में कौन रोड़े अटका रहा था हमें कभी पता नहीं चला। काम की बात घर पर पूरी तरह से नहीं करते थे, बस बुड़बुड़ाते रहते थे। सभी रेल्वे वालों की तरह पापा भी चाहते थे कि उनका भी एक पुत्र हो जो कि रेल्वे में ड्राइवर बने। पापा के ज़माने में औरतें ड्राइवर नहीं बना करती थीं। मैं ममी पापा की इकलौती संतान ! पापा न स्वयं पूरे ड्राइवर बन पाये, न ही अपने पुत्र को बना पाये। कभी कभी जब बहुत प्यार आता तो कहते, 'मैं तो अपनी बेटी को पायलट बनाऊंगा।'