पापा झूठ नहीं बोलते / दीनदयाल शर्मा

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मां-बाप की इकलौती बेटी सुरभि। उम्र लगभग ग्यारह साल। कद चार फुट, चेहरा गोल, आंखें बड़ी-बड़ी, रंग गोरा-चिट्टïआ, बॉब कट बाल, स्वभाव से चंचल एवं बातूनी।

सुरभि के पापा एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं और उसकी मम्मी एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका। छोटा सा परिवार और छोटा सा घर।

सुरभि पांचवीं कक्षा में पढ़ती है। पढऩे के साथ-साथ चित्रकारी करना, डॉस करना, पहेलियां बूझना, टीवी देखना, कहानियां सुनना और अपने पापा से नई नई बातें जानना उसका शौक है।

'पापा, आज आप स्कूल से जल्दी कैसे आ गए ?' अपना बस्ता बैड पर रखते हुए सुरभि ने पूछा।

'बस, यूं ही बेटे।' 

'यूं ही क्यों पापा ?'

'बस... यूं ही आ गया, मेरी बेटी से मिलने।' कहते हुए पापा ने सुरभि को अपनी बांहों में उठा लिया।

'पापा, आप मुझे बहुत अच्छे लगते हो।' सुरभि ने पापा के गले में बांहें डालते हुए कहा।

'तुम भी तो मुझे बहुत अच्छी लगती हो।'

'बड़ा लाड़-प्यार हो रहा है बाप-बेटी में।' सुरभि की मम्मी ने घर में घुसते हुए कहा।

'देख भई सुरभि, तेरी मम्मी तो फुंफकारती हुई ही आती है।' उसके पापा ने हंसते हुए कहा तो सुरभि भी हंस दी।

'इतना सिर पर मत बिठाओ लाडली को।' कहते हुए सुरभि की मम्मी ने अपना बैगनुमा पर्स कील पर टांका और आइने के सामने से बड़ा कंधा उठा कर अपने बालों को संवारने लगी।

'लो आते ही संवरने लग गई महारानी... थका हारा आया हूं... थोड़ी चाय बना लो भई।'

'तो मैं कौन सा आराम करके आ रही हूं।'

'चाय मैं बनाऊं पापा ?' सुरभि बोली।

'नहीं बेटा, तुम्हारी मम्मी के हाथ की ही पीयेंगे।'

'मेरे हाथ की तो पी लेना लेकिन कभी बेटी को भी बनाने दो। नहीं तो न जाने आगे इसे कैसा घर मिलेगा।'

'अरे अभी से क्या चिंता करती हो। अभी इसकी उम्र ही क्या है।'

'उम्र आते देर लगती है क्या। पर आपको तो....।' तभी बात को काटती हुई सुरभि बोली, 'मेरी प्यारी-प्यारी मम्मी, चाय मैं बनाती हूं।'

'नहीं बेटे... तू बैठ... चाय तो तेरी मम्मी के हाथ की ही पीनी है।' दबी मुस्कान के साथ उसके पापा ने कहा तो सुरभि भी शरारती मुस्कान बिखेरती हुई वापस बैठ गई।

सुरभि की मम्मी चाय बनाने रसोई में चली गई तो उसके पापा कुछ ऊंची आवाज में बोले, 'हां तो बेटे, अब बता तेरे नये वाले स्कूल में पढ़ाई ठीक चल रही है ना ?'

'हां पापा, ये वाला स्कूल बहुत अच्छा है। सारे सरजी समय पर आते हैं और बढिय़ा पढ़ाते हैं। हिन्दी वाले हैं ना जनक सरजी, वे तो मजेदार कहानियां भी सुनाते हैं। आज तो स्कूल में बड़ा मजा आया पापा।' आंखें मटकाते हुए सुरभि ने कहा।

'कैसे बेटा ?' पापा ने पूछा।

'आज है ना पापा, सातवें पीरियड में है ना... टन-टन-टन-टन घंटी बजी तो हम सब बच्चे अपना अपना बस्ता लेकर बाहर आ गये। हमने तो सोचा था कि छुट्टïी हो गई लेकिन वहां तो मामला ही कुछ और था।'

'क्या था बाहर ?'

'बाहर है ना... बाहर मेरी सहेली कंचन की बुआजी थाली बजा रही थी।' हाथों को झटकाते हुए सुरभि ने कहा।

'फिर ?'

'इत्ते में सरजीभी आ गये और बड़े सरजी भी आ गये। फिर हम सब बच्चे अपनी अपनी कक्षा में चले गये। पापा, आपको पता है कंचन की बुआजी थाली क्यों बजा रही थी ?'

'नहीं तो।'

'बस... इतना भी हनीं पता... कंचन के हैं ना...कंचन के घर भैया आया है... नन्हा सा भैया। '

'अच्छा।'

'पापा, जब मैं नन्हीं सी थी तो मेरी बुआजी ने भी थाली बजाई थी ना ? पापा बोला ना... जब मैं नन्हीं सी थी तो मेरी बुआजी ने भी थाली बजाई थी ना?'

'अं...आं...हां...हां बेटा।'

'पापा, जोर से बोला तो। पापा, मेरी बुआजी ने थाली बजाई थी ना ?'

'हां तो... हां, तेरी बुआजी ने थाली बजाई थी बेटा।'

'लेकिन पापा, कंचन तो कहती ै कि जब घर में लड़की आती है ना, तो थाली नहीं बजाते। पापा, क्या ये बात सही है ?'

'अरे भई, कंचन को क्या पता।' सुरभि का चुम्बन लेते हुए पापा ने प्यार से कहा।

'बच्ची के सामने झूठ क्यों बोल रहे हो जी। ' चाय का प्याला रखते हुए सुरभि की मम्मी ने कहा तो सुरभि तुनक कर बोली, 'नहीं मम्मी, पापा झूठ नहीं बोलते...मेरी सहेली है ना कंचन... वह झूठी है। हैं ना पापा?'

सुरभि के इतना पूछते ही उसके पापा का गला रूंध गया। उन्होंने बेटी को बांहों में लेते हुए रूंधे गले से कहा, 'कंचन सच्ची है बेटा... कंचन सच्ची है। मैं तो तुझे खुश करने के लिए झूठ बोल गया थ। मुझे मापऊ कर दो बेटा। मुझे माफ कर दो।'