पापी पेट का सवाल है / कबीर संजय
मई का चटख आसमान था। सूरज सुबह से ही लोगों पर अपनी आँखें लाल-पीली करने लगा। रात देर से सोया था। सुबह अधनींद उठा और तैयार होकर ऑफिस के लिए चल दिया। टैंपों पकड़ा और पाँच रुपये के किराए में ऑफिस पहुँच गया। लेकिन दिमाग खाली था। क्या बताऊँ, क्या बताऊँ।
ब्यूरो चीफ की लाल-पीली आँखें डराने लगती हैं। एक बड़े अखबार का छोटा-सा दफ्तर है। सोनीपत का ब्यूरो है। सुबह दस बजे की मीटिंग है। रिपोर्टर को एक-एक खबर बतानी है। जिसकी रिपोर्ट बनाकर हेड ऑफिस भेजनी है और मेरा दिमाग खाली है। क्या बताऊँ, क्या बताऊँ। क्या खबर होगी आज की। कुछ सूझ नहीं रहा। अचानक ही दिमाग में सोनीपत बस अड्डे के सामने के ठेले घूम गए। कल दोपहर में बस अड्डे के पास घूमते हुए वहीं पर गन्ने का रस पिया था। पाँच रुपये गिलास। इतना सस्ता तो अब कुछ भी नहीं मिलता। थोड़ी देर गन्ने वाले से बात भी हुई थी। देवरिया के किसी गाँव का मनोहर लाल सोनीपत बस अड्डे के सामने लोगों को गन्ने का जूस पिलाता था। महीने में दो सौ रुपये पुलिस वालों के और सौ रुपये नगर निगम के। बाकी कमाई अपनी।
कोई खबर नहीं थी। ख्याल कौंधा तो उसने लिखवा दिया ठेले पर बिक रही हैं बीमारियाँ। आँखों के सामने गन्ने के रस पर उड़ान भरकर इतराने वाले ढेरों-ढेर मक्खियाँ घूमने लगीं। ब्यूरो चीफ ने वैल्यू भी एड किया। खुले हुए खाद्य पदार्थ खाने से क्या-क्या बीमारियाँ हो सकती हैं। कैसे बचा जाए। बीमारी हो जाए तो क्या करें, क्या कहते हैं डाक्टर। नगर निगम क्यों नहीं करता कार्रवाई। अतिक्रमण की समस्या। ट्रैफिक जाम। आदि-आदि।
खबर तैयार थी। रोज ही आफिस से निकल कर बस अड्डे के एक चक्कर लगते थे। बस अड्डे के सामने की दुकान से सिगरेट सुलगाई जाती थी। सब पता था। लाइन से तीन ठेलियाँ गन्ने के रस की, दो पकौड़ी वाले, एक उबले हुए चने वाला, शाम को जलेबी का ठेला, चाट वालों के ठेले, सड़क के किनारे तमाम ऐसे दुकानदार थे। पूरा पैकेज तैयार है। बस 'कैसे बचें' भी खुद से ही लिख देंगे। डाक्टर क्या बताएगा, इतना तो हम ही जानते हैं, बस किसी डाक्टर का नाम देना पड़ेगा। हाँ, नगर निगम का वर्जन ज़रूर चाहिए होगा।
दिन भर मटरगश्ती की और शाम को पैकेज तैयार। ठेले पर बिक रही हैं बीमारियाँ। शाम तक शहर में कोई बड़ी लूट नहीं हुई, चोरी नहीं हुई, हादसा नहीं हुआ, मजबूरन 'ठेले पर बिक रही हैं बीमारियाँ' ही लीड हो गई। अगले दिन शहर के पन्ने पर छह कॉलम की हेडिंग में यही खबर छाई हुई थी। बस अड्डे के सामने ठेलियों के फोटो भी।
पता नहीं नगर निगम वालों को क्या सूझा। खबर छपने के साथ ही कार्यवाही भी हो गई। ब्यूरो चीफ खुश। इस दिन की भी लीड मिल गई। 'खबर का असर' का लोगो भी इस लीड में लग गया। ऊपर कहने का मौका भी, देखिए सर हमारी खबर पर हुई कार्रवाई।
अपनी खबर पर हुई कार्यवाही का पैकेज तैयार कर खुशी में डूबता-उतराता कमरे पर पहुँचा तो बारह तो बज ही गए थे। पहले मच्छरों ने मुश्किल की, फिर बिजली ने। किसी तरह से नींद आई। अचानक ही नींद में लगा कि जैसे कोई बिस्तर के पास खड़ा है। अँधेरे में लाल-लाल आँखें। गुस्से से चढ़ती उतरती साँसें। पूरा शरीर ठंडे पसीने से भरने लगा। आँख खोलें कि न खोलें। आँख खोलते ही कहीं गायब न हो जाए। लेकिन, आँख बंद किए-किए पर हमला कर दिया तो। अनजान भय की आशंका में किसी तरह से आँख खोली। सामने वह खड़ा था। पिचके हुए गालों वाला। दाढ़ी आधी पकी। बाल बिखरे हुए। पैंट पर जिप फेल हो चुकी थी और उसकी सीवन पर उधड़ी हुई। शर्ट के बटन टूटे हुए।
हाँ, ये मनोहर लाल ही तो था। जिसके यहाँ उसने गन्ने का जूस पिया था।
साहब, हमने क्या बिगाड़ा था आपका?
हाँ, क्या हुआ?
हमारे यहाँ से रस पिया आपने, पत्रकार हैं, हमने एकदम ताजा खींच के भी दिया।
अरे तो उसके पैसे तो लिए तुमने...!
पर साहब हमारी रोजी क्यों उजाड़ दी, नगर निगम वाले मशीन, ठेला सब ले गए।
मैं इसमें क्या कर सकता हूँ, खुले में मक्खियाँ भिनकती हैं, बीमारी हो सकती है।
लेकिन हम तो साफ रखते हैं, गिलास भी धोकर देते हैं।
बैक्टीरिया समझते हो, ई कोल्लोई बैक्टीरिया बहुत खतरनाक है, एक बार पेट में घुस जाए तो निकलता ही नहीं।
पर साहब हमारा तो गन्ना भी ताजा होता है, मंडी से छाँट-छाँट कर लाते हैं
ई-कोल्लोई से डायरिया हो सकती है, ज़्यादा उल्टी-दस्त हो जाए तो आदमी मर भी सकता है, मैं हाईजीन, स्वच्छता और बीमारियों के बारे में मनोहर लाल को समझाने लगा। लंबा वक्त बीत गया। मैं न जाने कब तक उसे बताता रहा और वह जवाब देता रहा। मैं थक गया। अब क्या बताऊँ।
लेकिन, साहब ई तो पापी पेट का सवाल है। हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं, जो गाँव में रहते हैं।
यही तो इतनी देर में मैं भी कह रहा हूँ, पापी पेट का सवाल है, मेरे भी छोटे-छोटे बच्चे हैं, जो गाँव में रहते हैं।