पापी पेट की दिवाली / शशि पुरवार
आज दिवाली थी और विमला के चेहरे पर चिंता की लकीरे उमड़ रही थी, दो छोटे बच्चे थे. वह और उसका मर्द हरिराम दोनों मजूरी का काम करते थे, वह 2-3 दिन से बीमार थी तो काम पर नहीं जा सकी व बचा हुआ थोडा सा पैसा भी दवा - दारु में खर्च हो गया।
वैसे भी त्यौहार पर कोई काम नहीं मिलता, मजूरी के रूपये से बमुश्किल परिवार का पेट भरता था, उस पर त्यौहार की मार। ...चीनी, तरकारी....सभी के भाव भी बढ़ जाते है, अब गरीब करे तो क्या करे । आज दिवाली है और बर्तन खाली पड़े है। बच्चे सुबह से खाने को मांग रहे है कि आज दिवाली का मजा करेंगे, पर वह बच्चो से कैसे और क्या कहे।
”आज तो खाने के भी लाले पड़े है, अब भोजन कैसे बनेगा।"
वह इसी उधेड़बुन में थी कि बाहर से आते शोरगुल से उसकी तन्द्रा टूट गयी।
बाहर जा कर देखा तो कोई बड़ा सेठ बस्ती में आया था जिसके पीछे बस्ती के बच्चो का हुजूम शोर मचाते हुए चल रहा था । वह हर घर में बच्चो को एक पैकेट दे रहा था । जब उसके घर के सामने आया तो बच्चो ने पैकेट लिया और विमला को दिया।
विमला ने जब पाकेट खोल कर देखा तो उसमे पटाखे-फूलझड़ी निकली, बच्चे तो यह देखकर बहुत खुश हो गए।... और पटाखे देखने लगे, पर विमला बुदबुदाई --
“काश पटाखे की जगह, मिठाई दी होती, तो आज सच्चे मायने में पापी पेट की भी दिवाली हो जाती, आज भूखा नहीं रहना पड़ता था। "
और पुनः चिंता की लकीरे माथे पे उमड़ आई।